अलविदा ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
तुम जा रहे हो आजछुड़ा कर मुझसे हाथ
भुला कर उम्र भर
साथ देने का वादा
जब मिल गया है
तुम्हें किनारा ।
चलो अच्छा हुआ
मिल गया तुम्हें
कोई तो ऐसा
जो कर सके
पूरे तुम्हारे सपने।
चाहा तो मैंने भी
यही था सदा
मगर कर न पाया कभी
मुझे और क्या चाहिये
तुम्हारी ख़ुशी से बढ़कर।
मैं जूझता रहा
तेज़ हवओं से
लड़ता रहा तूफानों से
नहीं डरा कभी
किसी भी भंवर से।
समझा था मैंने सदा तुम्हें
अपनी मंज़िल भी
किनारा भी
मैं खड़ा हूं वहीं उसी कश्ती पर
थामे पतवार बन के माझी।
और देख रहा हूं तुम्हें
आंसू लिये पलकों पर अपनी
कदम - कदम दूर जाते हुए
हाथ हिलाते हुए।
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