नया दोस्त कोई बनाने चले हो ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
नया दोस्त कोई बनाने चले होफिर इक ज़ख्म सीने पे खाने चले हो।
न टकरा के टूटे कहीं शीशा ए दिल
ये पत्थर को क्यों तुम मनाने चले हो।
उसी शाख पर जिसपे बिजली गिरी थी
नया आशियाँ क्यों बसाने चले हो।
यकीं कर के मौजों पे अपना सफीना
कहाँ बीच मझधार लाने चले हो।
छिपे हैं गुलों में हज़ारों ही कांटे
कि जिनसे घर अपना सजाने चले हो।
सितमगर हैं नश्तर से वो काम लेंगे
जिन्हें दाग़े-दिल तुम दिखाने चले हो।
ये हंसने हंसाने की तुम चाह लेकर
कहाँ आज आँसू बहाने चले हो।
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