जुलाई 09, 2012

POST : 06 नया दोस्त कोई बनाने चले हो ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

नया दोस्त कोई बनाने चले हो ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

नया दोस्त कोई बनाने चले हो
फिर इक ज़ख्म सीने पे खाने चले हो ।

न टकरा के टूटे कहीं शीशा ए दिल
ये पत्थर को क्यों तुम मनाने चले हो ।

उसी शाख पर जिसपे बिजली गिरी थी
नया आशियाँ क्यों बसाने चले हो ।

यकीं कर के मौजों पे अपना सफीना
कहाँ बीच मझधार लाने चले हो ।

छिपे हैं गुलों में हज़ारों ही कांटे
कि जिनसे घर अपना सजाने चले हो ।

सितमगर हैं नश्तर से वो काम लेंगे
जिन्हें दाग़े-दिल तुम दिखाने चले हो ।

ये हंसने हंसाने की तुम चाह लेकर
कहाँ आज आँसू बहाने चले हो । 
 

 

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