तकदीर से कुछ मिला नहीं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया
( बाईस वर्ष पुरानी लिखी ग़ज़ल 2003 की डायरी से )
तक़दीर से कुछ मिला नहीं
दुनिया से शिकवा गिला नहीं ।
इक शाख़ से फूल टूटकर
मुरझा गया फिर ख़िला नहीं ।
वो ज़ख़्म दिल के करीब है
जो चारागर से सिला नहीं ।
इस शहर का नाम दर्द है
हमदर्द कोई मिला नहीं ।
मंज़िल नहीं हमसफ़र नहीं
आता नज़र काफ़िला नहीं ।
तूफ़ान आ कर गुज़र गए
वो पेड़ उनसे हिला नहीं ।
' तनहा ' अकेले खड़े हुए
बाक़ी रहा सिलसिला नहीं ।
1 टिप्पणी:
बहुत बढ़िया ग़ज़ल सर👍
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