अगस्त 08, 2025

POST : 1993 लोकतंत्र के सारे राजा डाकू हैं ( संविधान - ? ) डॉ लोक सेतिया

 लोकतंत्र के सारे राजा डाकू हैं ( संविधान - ? ) डॉ लोक सेतिया 

आजकल चुनाव आयोग की प्रणाली पर इतने गंभीर सवाल उठने लगे हैं की देश की राजनीति सकते में है और कमाल की बात है कि लगता है अभी भी समस्या की जड़ को समझने का कोई प्रयास ही नहीं हो रहा है । क्या आपने सोचा है कि संविधान जिस व्यवस्था की बात कहता है उस में कोई राजनीतिक दल किसी दलीय चुनावी प्रणाली की चर्चा ही नहीं है । अपने मताधिकार का प्रयोग कर जनता को अपना प्रतिनिधि विधायक या सांसद चुन कर भेजना है और उन प्रतिनिधियों को चुन जाने के बाद अपना नेता चुनना है । आपको कभी खबर ही नहीं हुई कि कब राजनीतिक दलों ने इक व्यवस्था बनवा ली जिस में वही मैदान के प्रमुख खिलाड़ी बनकर बाज़ी लगा सकते हैं और जीतने की संभावनाएं उनको बिना किसी राजनीतिक दल निष्पक्ष खड़े होने वाले प्रत्याशी से बढ़त देती हैं । अर्थात समानता का अधिकार ख़त्म हो जाता है और कुछ संगठित राजनेता जनता पर अपना वर्चस्व स्थापित करने में साम दाम दंड भेद कुछ भी अपना कर शासन पर काबिज़ हो सकते हैं । राजनीतिक दलों में अधिकांश संसद विधायक बंधक जैसे होते हैं उनको पहले से घोषित राजनेता अथवा दल के संचालक को ही अपना नेता चुनना होता है । कैसी विचित्र विडंबना है कि जनता के निर्वाचित जनप्रतिनिधि खुद स्वतंत्र नहीं होते हैं , कभी ऐसा नहीं हुआ करता था लेकिन फिर सभी राजनीतिक दलों ने आपस में मिलकर जिस दलबदल विरोधी नियम को बनाकर लागू किया उसका मकसद ही लोकतान्त्रिक व्यवस्था को जकड़ कर अपनी कैद में रखना था । अभी बहुत परतें खुलनी हैं थोड़ा सोचने समझने की आवश्यकता है कुछ लाजवाब शायरों की कही बात पढ़ते हैं ।  
 

जमहूरियत  - अल्लामा इक़बाल

इस राज़ को इक मर्दे-फिरंगी ने किया फ़ाश ,
हरचंद कि दाना इसे खोला नहीं करते । 
 
जमहूरियत इक तर्ज़े - हुक़ूमत है कि जिसमें 
बन्दों को गिना करते हैं टोला नहीं करते । 

  नई तहज़ीब -  अल्लामा इक़बाल 

उठाकर फैंक दो बाहर गली में  
नई तहज़ीब के अण्डे हैं गंदे । 

इलेक्शन मिम्मबरी कैंसिल सदारत 
बनाए खूब आज़ादी के फंदे । 

मिंयां नज़्ज़ार भी छीले गए साथ 
निहायत तेज़ हैं युरूप के रंदे । 
 
 

बलबीर राठी जी के कुछ शेर :-

रूठ गया हमसाया कैसे ,
तुमने वो बहकाया कैसे । 
 
इतना अंधेरा मक्कारों ने ,
हर जानिब फ़ैलाया कैसे । 
 
तुमने अपने जाल में इतने ,
लोगों को उलझाया कैसे ।

वास्तव में हमारी पूरी चुनावी प्रणाली दोषपूर्ण है कभी भी देश की जनता के वोटों के बहुमत की सरकार नहीं बन सकती है अधिकांश तीस से चालीस प्रतिशत वोट पाने वाले निर्वाचित होते हैं अर्थात अधिकांश जो सांसद विधायक विजयी होते हैं उनके विरोध में अधिक मतदान हुआ होता है । लेकिन बात इतनी ही होती तो शायद मान लेते मगर चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित नियमों और संसाधनों का उपयोग कर शायद ही कोई चुनाव जीत सकता है मतलब ये कि ये सभी धनबल बाहुबल ही नहीं बल्कि झूठा शपथपत्र दे कर सदस्य बनते हैं । क्यों चुनाव आयोग सुप्रीम कोर्ट इतने गंभीर विषय पर अपने आंखें कान मुंह बंद रखते हैं । अपराधियों  पर सुप्रीम कोर्ट से चुनाव आयोग तक मेहरबान क्यों है , आज का सबसे बड़ा प्रश्न राजनेताओं का सभी दलों का जनता को प्रलोभन के जाल में फंसाना है जो असंवैधानिक है क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल कुछ भी अपने खज़ाने से नहीं देता बल्कि जनता का पैसा बर्बाद किया जाता है सही मकसद की जगह अपनी स्वार्थ की गलत राजनीति को बढ़ावा देने की खातिर । यहां फिर लोकतंत्र और संविधान की बात आती है कभी सोचा है कि संविधान विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका तीन स्तंभों पर आधारित व्यवस्था करता है , किसी भी सांसद विधायक मंत्री को आर्थिक अधिकार की बात नहीं करता है । सांसद निधि विधायक निधि जैसा प्रावधान बाद में राजनेताओं ने चोर चोर मौसेरे भाई की तरह किया कानून बनाकर । 
 
छलिया हैं ये सभी राजनेता जनता को विज्ञापन भाषण प्रचार से कुछ हज़ार की सहायता राशि की बात शोर मचाकर बताते हैं कि कितने लाख करोड़ कितने लोगों को दी गई मगर कभी नहीं बताया जाता कि उस से लाखों करोड़ गुणा धनराशि कैसे खुद राजनेताओं प्रशासनिक लोगों और सरकार समर्थक उद्योगपतियों से टीवी चैनल मीडिया को विज्ञापन इत्यादि के रूप में देकर सरकारी जनता के धन की लूट हमेशा से चलती रही है जो देश में आज तक का सबसे बड़ा घोटाला है । देश सेवा की राजनीति कब की खत्म हो चुकी है और आज की राजनीति छल कपट और षड्यंत्र की राजनीति बनकर खड़ी है जिस में संविधान से लोकतंत्र तक के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है । बात कड़वी है मगर खरी है कि राजनीतिक दल ठगों की मंडलियां जैसे हैं और गठबंधन बंदरबांट की शर्तों पर बनते बिगड़ते हैं विचारधारा कोई भी नहीं है । हमारे साथ इतना बड़ा धोखा हुआ है मगर हम तालियां बजा रहे हैं झूठों के सच बोलने का उपदेश सुनकर यही विडंबना है हम खुद शिकार हो रहे हैं और ज़ालिमों को मसीहा समझ रहे हैं ।  हमने जैसा सोचा था संविधान सभी की समानता हर प्रकार की सभी को न्याय की बात को प्रभावी बनाएगा वो कभी किसी भी शासन प्रशासन ने होने ही नहीं दिया बल्कि सभी जनता पर शासन कर उसका दोहन करने को अपना अधिकार समझने लगे अज्ज हालत चिंताजनक और लोकतंत्र को छिन्न भिन्न करने जैसी है । कहने को बहुत  कुछ है मगर अभी कुमार विश्वास जी की कविता से विराम देते हैं । 
 
 

 
 


 

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