अगस्त 14, 2025

POST : 1996 ज़मीन नहीं आसमान नहीं ( 78 साल बाद ) डॉ लोक सेतिया

   ज़मीन नहीं आसमान नहीं ( 78 साल बाद ) डॉ लोक सेतिया 

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डींगे हांकना बहादुरी का काम नहीं है वास्तविकता को देखना समझना स्वीकार करना ईमानदारी कहलाता है , शासक अगर जनता की देश की भलाई और सेवा करते हैं तो उनको शर्मसार होना पड़ेगा की देश की आधी से अधिक जनसंख्या बदहाल है जिसे सरकार आत्मनिर्भर नहीं बनाना चाहती बल्कि भिखारी की तरह कितनी तरह की ख़ैरात पर गुज़र बसर करने को विवश है । ये पचास से अस्सी करोड़ की चाहत तो बिल्कुल भी नहीं है ये देश के शासकों प्रशासकों की नाकामी और मानवीय संवेदनाओं से शून्यता का प्रमाण है । इसको कोई लोकतंत्र नहीं कह सकता है ये कुछ प्रतिशत लोगों की अनुचित सोच और गलत कार्यप्रणाली का नतीजा है । बीस प्रतिशत लोग देश की अधिकांश ज़मीन जायदाद संपत्ति संसाधनों पर काबिज़ हैं बाक़ी का हक और अधिकार छीन कर । अभी तक लोग शिक्षा स्वास्थ्य सेवाएं तो क्या निडर होकर सुरक्षित जीने तक से वंचित हैं धनवान और साधन संपन्न वर्ग को न्याय से लेकर सभी कुछ आसानी से मिलता है मगर सामन्य नागरिक को कदम कदम कठिनाईयों से जूझना पड़ता है , मर मर कर जीना होता है । असमानता बढ़ती जा रही है और राजनीति में अपराधियों का परचम फहराता है कोई भी दल कोई मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री अपराधी लोगों से गठजोड़ करने में संकोच नहीं करता है । अंग्रेज़ों से कम अत्याचारी कायदे कानून नहीं है आजकल की सभी सरकारों के जिनका विरोध तक करने की अनुमति नहीं है । सत्ता का विरोध सामाजिक भलाई नहीं बल्कि देशभक्त होने पर शंका जताई जाती है दशा दिन पर दिन भयावह होती जा रही है । 
 
शासक प्रशासक किसी भी देश राज्य के कैसे होने चाहिएं पूछा जाये तो सीधा सरल जवाब है जिनको खुद अपने ऐशो-आराम से पहले देश राज्य निवासी जनता नागरिक की समस्याओं की चिंता ही नहीं होनी चाहिए बल्कि अपने सुःख त्याग कर भी जनकल्याण को प्राथमिकता देनी चाहिए । आज़ादी के  78 साल बाद भी देश में जनता अक्सर शासकों प्रशासकों से भयभीत रहती है क्योंकि सत्ता पाकर अहंकारी लोग खुद को जनसेवक नहीं राजा महाराजा समझने लगते हैं और नागरिक को मौलिक अधिकार से मानवाधिकार तक पाना कठिन दिखाई देता है । कैसी विडंबना है कि खुद अपने चुने प्रतिनिधि जनसामान्य से उनकी परेशानियां या समस्याएं जानना तक नहीं चाहते बल्कि समाधान पाने को सरकारी प्रशासनिक बाधाओं से जूझना पड़ता है । अधिकांश जनसंख्या आभाव और बेबसी भरा जीवन बिताती है जबकि तथाकथित लोकतांत्रिक व्यवस्था इस सब से लापरवाह खुद अपने लिए सभी आरक्षित करने को महत्व देती है । जिस देश की करोड़ों की आबादी बेघर और बदहाली में रहने को विवश है यहां तक की बुनियादी सुविधाओं से वंचित है उस देश के शासक प्रशासक देश के ख़ज़ाने को अनावश्यक आयोजनों समारोहों पर बर्बाद करते हैं । सांसदों विधायकों पर अन्य सरकारी पदों पर नियुक्त कर्मचारियों से अदालतों और पुलिस सुरक्षा व्यवस्था पर बेतहाशा धन खर्च करने के बाद भी देश को निराशा मिलती है जब अभी तक महंगाई बेरोज़गारी भ्र्ष्टाचार से मुक्ति नहीं मिली है । 
 
15 अगस्त 2025 को 78 साल बीत चुके हैं लेकिन सरकारें पूर्णतया असफल साबित हुई है उस स्वतंत्र भारत का निर्माण करने में जिस का सपना आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले महान आदर्शवादी नायकों और शहीदों ने देखा था । खेद की बात है की राजनेताओं से प्रशासनिक अधिकारियों तक इस गंभीर विषय को लेकर उदासीनता है उनको रत्ती भर एहसास नहीं जो करना था किया जाना संभव था नहीं करने को लेकर ।सच कहा जाये तो हमारी व्यवस्था किसी सफ़ेद हाथी की तरह बोझ बन चुकी है और दो तिहाई जनता उनके असहनीय बोझ तले दब कर मर रही है । आखिर में अपनी इक नज़्म पेश है । 
 

बेचैनी ( नज़्म )  डॉ  लोक सेतिया 

पढ़ कर रोज़ खबर कोई
मन फिर हो जाता है उदास ।

कब अन्याय का होगा अंत
न्याय की होगी पूरी आस ।

कब ये थमेंगी गर्म हवाएं
आएगा जाने कब मधुमास ।

कब होंगे सब लोग समान
आम हैं कुछ तो कुछ हैं खास ।

चुनकर ऊपर भेजा जिन्हें
फिर वो न आए हमारे पास ।

सरकारों को बदल देखा
हमको न कोई आई रास ।

जिसपर भी विश्वास किया
उसने ही तोड़ा है विश्वास ।

बन गए चोरों और ठगों के
सत्ता के गलियारे दास ।

कैसी आई ये आज़ादी
जनता काट रही बनवास ।  
 

 
 

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