अगस्त 20, 2025

POST : 2000 कठपुतलियां नाच रहीं ( यत्र - तत्र - सर्वत्र ) डॉ लोक सेतिया

    कठपुतलियां नाच रहीं ( यत्र - तत्र - सर्वत्र  ) डॉ लोक सेतिया 

कब से दुनिया समझ रही थी इक बस उन्हीं का चर्चा है जिधर नज़र जाती जब भी कुछ आवाज़ सुनाई देती इक नाम का जाप तमाम तरह से होता था । जब उनको ख़ास अवसर पर शिखर जैसी ऊंचाई पर खड़े हो कर हमेशा की तरह खुद ही अपना गुणगान करना था जिसका कभी कोई सोच भी नहीं सकता था उस संगठन का नाम क्या वंदना तक करने में खुद अपनी गरिमा को गौण कर दिया तब सभी को समझ आया कि ऊंठ पहाड़ के नीचे किस तरह आता है । समझने वाले समझ गए कि जनाब भी किसी के हाथ की कठपुतली ही हैं और जैसे उधर से डोर कसने लगी घुटनों पर आना पड़ा है झुक कर सलाम करने लगे हैं पहले छुप छुपकर अब सरेआम करने लगे हैं । जब चादर लगी फटने , खैरात लगी बटने । लोकतंत्र के प्रहरी जनमत के रक्षक समझने वाले खुद ही सत्ता की लूट को ढकने में अपनी आबरू गंवा बैठे हैं , झूठ छल जालसाज़ी की पैरवी जब अदालत ही पक्ष में दलील देने लगे तब उनकी डोर कोई पकड़े उनको पतंग की तरह उड़ा रहा है । चुनावी पतंग कब कट कर कहां गिरती है और कितने लोग झपटने की कोशिश में उसके पुर्ज़े पुर्ज़े कर देते हैं कोई नहीं जानता मगर सभी को साफ़ लगने लगा है उड़ान हिचकोले खा रही है । राजनीती प्रशासन से समाचार चैनल सोशल मीडिया क्या उद्योग कारोबार करने वाले लोग सभी जाने कितनों के इशारों पर नाचते हैं शतरंज के खिलाड़ी प्यादों को मोहरे बनाकर कब कैसी चाल चलें कि शह को मात में बदल सकते हैं । 
 
अभिनेता फ़िल्मकार निर्माता निर्देशक से टीवी पर सीरियल बनाने वाले ख़रीदार नहीं बिकाऊ सामान हैं कोई झूठे विज्ञापन दिखलाने की कीमत देकर अपना खोटा सिक्का बाज़ार में चला रहा है । बेज़मीर हैं सभी जिस्म है अंतरात्मा मर चुकी है जैसे कोई लाशों की दुनिया है चलती फिरती मुर्दा ज़िंदगी कभी कल्पना भी नहीं की थी हमने । इंसान का कोई वजूद नहीं है लोग नाचने को विवश हैं कौन किसको नचा रहा है कोई नहीं जानता क्योंकि कठपुतली नचाने वाला ऊपर कहीं बैठे अपनी उंगलियों से डोर को जब जैसे चाहे खींचता है कभी ढीली छोड़ता रहता है । ग़ज़ब का तौर तरीका है जिसे देखो खुद को गंगाजल जैसा पावन बताता है अपने गुनाहों का दोष किसी और पर लगाता है भला कोई मुर्दा कभी अपनी बेगुनाही साबित करने कब्र से बाहर आता है । सत्ता ने झूठी कसम खाई है लोकतंत्र का खेल तमाशा उनका है जनता सिर्फ तमाशाई है जान पर जिसकी बन आई है सामने कुंवां है पीछे खाई है । 
 
दुनिया आधुनिक युग में विज्ञान और शिक्षा के महत्व पर ध्यान केंद्रित कर समस्याओं का निदान खोज रही है जबकि हमारे देश में शासक प्रशासक पौराणिक गाथाओं की कथाओं से कपोल कल्पनाओं की पिंजरे में बंद तोते में राजकुमारी की कहानियां नये रूप में घड़ने लगा है जनता को भाग्य भरोसे छोड़ खुद मनचाहे ढंग से खुद को सेवक नहीं देश का मालिक मानने लगे हैं । हम जल्दी ही महाशक्ति बनने वाले हैं ख़्वाब दिखाने लगे हैं अभी तक शासकों ने कभी अपने कहे वचन पूर्ण नहीं किये इस हक़ीक़त से नज़रे चुराने लगे हैं । सच को सूली चढ़ाने लगे हैं झूठ की महिमा समझाने लगे हैं कभी आपको आज़माने लगे हैं सितम पर सितम ढाने लगे हैं क्या क्या ज़ुल्म ज़ालिम करते हैं अपनी हद को बढ़ाने लगे हैं । लोग घबरा कर ज़हर भी दवा की जगह खाने लगे हैं हर घड़ी इश्तिहार जगह जगह बर्बादी को छिपाने लगे हैं कुछ हुआ कुछ बताकर दुनिया भर को बरगलाने लगे हैं ।   दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल याद आई है । 
 
अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार 
घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तिहाऱ । 
 
आप बचकर चल सकें ऐसी कोई सूरत नहीं 
रहगुज़र घेरे हुए मुरदे  खड़े हैं बेशुमार । 
 
रोज़ अख़बारों में पढ़कर ये ख़्याल आया हमें 
इस तरफ आती तो हम भी देखते फस्ले - बहार । 
 
मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूं पर कहता नहीं 
बोलना भी है मना , सच बोलना तो दरकिनार । 
 
इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके जुर्म हैं 
आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फ़रार । 
 
हालते इनसान पर बरहम न हों अहले-वतन 
वो कहीं से ज़िंदगी भी मांग लाएंगे उधार । 
 
रौनक़े जन्नत ज़रा भी मुझको रास आई नहीं 
मैं जहन्नुम में बहुत खुश था मेरे परवरदिगार । 
 
दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर 
हर हथेली ख़ून से तर और ज़्यादा बेक़रार ।  
 
( साये में धूप से आभार सहित )   
 
 
कठपुतली कला – जयपुर विश्व धरोहर



1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

Bdhiya aalekh... Sarthakta deti ghzl 👍