अगस्त 26, 2025

POST : 2003 अधर में लटके हुए हैं ( व्यंग्य - खरी खरी ) डॉ लोक सेतिया

       अधर में लटके हुए हैं ( व्यंग्य - खरी खरी  ) डॉ लोक सेतिया 

दो पाटों में पिसना इसी को कहते हैं , त्रिशंकु जैसी हालत है न ज़मीन पर न किसी आसमान पर , या फिर आज़ाद नहीं ग़ुलाम भी नहीं । गूंगे नहीं हैं मगर आवाज़ है निलकती ही नहीं है ,  कुछ लोग भटकते रहते हैं धोबी का गधा घर का न घाट का ।  लोकतंत्र का लेबल बाहर भीतर का खेल तमाशा बिल्कुल विपरीत छुपाए से छुपता नहीं जब छुपाना भी जिसे मुश्किल बताना भी जिसे मुश्किल आगे कुंवा पीछे खाई , होने लगी जगहंसाई । निकले थे किधर जाने को पहुंच गए हैं जिधर जाना वर्जित था , जनता समझती है अपनी सरकार बनाई है बड़े बड़े कारोबारी जानते हैं असली शासक वही हैं । सरकार और धनवान लोग जिस चलती चक्की के दो पाट हैं जनता को उसमे डालना पड़ता है पिसाई करनी पड़ती है , साबुत बचा न कोय । कबीर नहीं है कोई आजकल जनता की दुर्दशा देख रोने वाला , ख़ाता है कोई खेलता है रोटी से भूखा रहता है बीज बोने वाला । अमीर गरीब बड़ा छोटा का सवाल पीछे छूट गया है ख़रीदार बनकर साहूकार से सरकार तक जनता को निचोड़ते हैं खून पसीना बन जाता है उनकी तिजोरी का माल पैसा पूंजी कितने ही रूप में । संविधान समानता सुरक्षा सभी खोखले साबित होते हैं जब संस्थाएं विफल साबित होती हैं निष्पक्षता पूर्वक अपना कर्तव्य निभाने में और सत्ताधारी शासकों की कठपुतलियां बनकर संविधान की बात को दरकिनार कर लोकतंत्र को खेल खिलौना समझ तोड़ते मरोड़ते हैं । 
 
देश की एक सौ चालीस करोड़ जनता विवश होकर लूटेरों अपराधी लोगों के सामने बेबस है हाथ जोड़ रहम की भीख मांगती हुई कैसी आज़ादी है कैसे सपने हैं जो बिखर गए हैं टूट चुके हैं । शासक बनते ही राजनेता जनता की वास्तविक समस्याओं को छोड़ कर केवल अपने स्वार्थ साधने में लगे हुए हैं । ग़ज़ब की व्यवस्था है बड़े बड़े अपराधी माननीय कहलाते हैं जबकि साधरण नागरिक बिना किसी अपराध ज़ुल्म सहते हैं कोई अदालत उनकी बात सुनना तो दूर उनकी तरफ देखती तक नहीं है । प्रशासनिक अधिकारियों से लेकर सांसदों विधायकों क्या पूर्व विधायकों को पेंशन सुविधाएं हासिल हैं जनप्रतिनिधि होने से कभी रहने से मगर जिन्होंने उनको निर्वाचित किया उनको मिलता है ऐसा असुरक्षित जीवन जिस में जीना मरना ही नहीं बार बार मरना लगता है । अमृत महोत्सव की गूंज है मगर अमृत किस को मिलता है वास्तविकता में जिन्होंने हमेशा ज़हर उगला है नफ़रत की फ़सल बोई है । ईश्वर धर्म सभी को अपनी शतरंज के मोहरे बनाकर नेता प्रशासक जनता की बात करने का दम भरने वाले अख़बार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया धनवान लोग मिलकर देश की संपत्ति और ख़ज़ाने की लूट में अपना दीन ईमान भुलाये हुए हैं । 
 
जनता का हर अधिकार अधर में लटका हुआ है , कितने भंवर उसको घेरे हुए हैं , पतवार टूटी हुई है नाव जर्जर है लहरों से टकराती है । डूबना नियति है और डुबोने वाले खुद को खेवनहार कहते हैं जो खुद किनारे पहुंच जाते हैं सुरक्षा जैकेट की बदौलत , हमको दूर से हाथ हिलाकर दिलासा देते हुए कि इंतज़ार करो अगली बार नैया होगी पार , पढ़ लिया सभी का झूठा इश्तिहार । जनता की सुनता कोई नहीं चीख पुकार नेताओं की होती है जयजयकार देश का कर बंटाधार , कोई इस पार कोई उस पार मची हाहाकार ।  हर कोई हैरान परेशान है ये कैसा हिन्दुस्तान है अभिशाप बन गया वरदान है व्यर्थ लगने लगा शहीदों का बलिदान है । मतलब परस्त हैं सभी जान है तो जहान है ये सिर्फ झूठी शान है । माझी बनकर डुबाने लगे हैं जनता को जी भर के सताने लगे हैं नया भारत जिस को बताते हैं तस्वीर देख लोग घबराने लगे हैं , रहनुमा जनता को डराने लगे हैं । शायद दुल्हन की डोली कहार राह में लूटकर अपनी हवस मिटाने की खातिर अस्मत लूट कर बेटियों को जलाने लगे हैं , ये कैसे मंज़र नज़र आने लगे हैं , इक नई तहज़ीब के पेशे नज़र आदमी को भूनकर खाने लगे हैं । 
 
आख़िर में इक ग़ज़ल मेरी बहुत पुरानी 14 अप्रैल 1999 की डायरी पर लिखी हुई पेश है । 
 
 

 हमको ले डूबे ज़माने वाले ( ग़ज़ल ) 

डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हमको ले डूबे ज़माने वाले
नाखुदा खुद को बताने वाले ।
 
आज फिर ले के वो बारात चले 
अपनी दुल्हन को जलाने वाले ।

देश सेवा का लगाये तमगा
फिरते हैं देश को खाने वाले ।

ज़ालिमों चाहो तो सर कर दो कलम
हम न सर अपना झुकाने वाले ।

हो गये खुद ही फ़ना आख़िरकार 
मेरी हस्ती को मिटाने वाले । 
 
एक ही घूंट में मदहोश हुए 
होश काबू में बताने वाले । 
 
उनको फुटपाथ पे तो सोने दो
ये हैं महलों को बनाने वाले ।

काश हालात से होते आगाह 
जश्न-ए-आज़ादी मनाने वाले । 
 
तूं कहीं मेरा ही कातिल तो नहीं
मेरी अर्थी को उठाने वाले ।

तेरी हर चाल से वाकिफ़ था मैं
मुझको हर बार हराने वाले ।

मैं तो आइना हूँ बच के रहना
अपनी सूरत को छुपाने वाले ।
 
( ब्लॉग पर 26 जुलाई 2012 को पब्लिश की हुई पोस्ट 19 ) 
 
 चलती चक्की देखकर दिया कबीरा रोय। कबीरदास जी के दोहे। Kabir ke dohe।#kabir  #motivational
 
 


 
  

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