अगस्त 17, 2025

POST : 1997 जाएं तो जाएं कहां ( विचार - विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

     जाएं तो जाएं कहां ( विचार - विमर्श ) डॉ लोक सेतिया   

घर से बाहर खुली हवा में सैर करने निकलते हैं हम सुबह शाम ,  दिखाई देते हैं दुनिया भर के लोग कुछ जाने पहचाने कुछ अनजान अजनबी कुछ को देख कर लगता है जैसे होकर भी नहीं हैं बिना आत्मा जिस्म चलते फिरते । झुंड बनाकर खड़े बैठे कितने लोग सामने होते हैं , कोई योग कर रहा होता है कोई अपनी पुरानी संकुचित मानसिकता को बढ़ावा देने का प्रयास करता है कुछ लोग बेमतलब की बातों से दिल बहलाते हैं   समय बिताते हैं या जाने वक़्त बर्बाद करते हैं , कुछ किसी धर्म इत्यादि की चर्चाओं में खोये लगते हैं । कितनी तरह के अलग अलग टोलियां बनाये लोग खुश होने का आभास दिलवाते हैं वास्तविक परेशानियों से बचकर कोई जगह तलाश करते हैं । मैं कई बार किसी न किसी झुंड के करीब जाकर लौट आता हूं मुझे वहां भीड़ में अकेलापन और भी अधिक परेशान करता है । इसलिए मैं अकेला खुद से ही वार्तालाप करता रहता हूं शायद इसलिए कि कोई मुझे मिला ही नहीं जो मुझसे बात करता अपना मेरा हालचाल पूछता बतलाता , यहां किसी को किसी के लिए फुर्सत कहां है जिसे देखो अपनी ही बात करता है दूसरे की सुनना समझना कौन चाहता है । महफ़िलों में सन्नाटा पसरा है शोर है कुछ सुनाई नहीं देता समझ ही नहीं आता , काश पेड़ पौधे होते हम लोग बिना बातचीत भी कितनी शीतलता का वरदान मिला हुआ है । बहार पतझड़ आंधी बारिश तूफ़ान सर्दी गर्मी सबसे बेपरवाह सभी को स्वीकार कर अपनी धरती से जुड़े हुए । 
 
मैं इक कतरा हूं दुनिया महासागर है , सिर्फ़ प्यार का दरिया बहता है मुझमें मगर ज़माना है कि नफरतों की फ़सल कांटों का चमन बनाने की कोशिश करता है । मिलना जुलना बिना मतलब नहीं करते लोग ज़रूरत पढ़ने पर याद आते हैं सभी लोग , ख़ुदपरस्ती का लगा है सभी को रोग , ख़त्म कभी नहीं होगी मगर अपनी दोस्ती की जन्म जन्म की खोज । दिल चाहता है कुछ संगी साथी मिलकर चलते जाएं कहीं दूर कोई नई दुनिया बसाने की चाह में , लेकिन जाएं किधर कोई रास्ता नज़र ही नहीं आता है । अंत में इक नज़्म पुरानी नये सलीके से पेश है । 
 
सब पराए हैं ज़िंदगी , देख आए हैं ज़िंदगी । 
 
बिन बुलाए ही आ गए , चोट खाए हैं ज़िंदगी । 
 
हम खिज़ाओं के दौर में , फूल लाए हैं ज़िंदगी । 
 
कौन दुश्मन है दोस्त भी , आज़माएं हैं ज़िंदगी । 
 
छा रही हर तरफ ख़िज़ा , गुल खिलाए हैं ज़िंदगी । 
 
छोड़ सारा जहान घर , लौट आए हैं ज़िंदगी । 
 
दर्द के गीत शाम - सुब्ह , गुनगुनाए हैं ज़िंदगी ।   
 
 Jayen To Jayen Kahan - indianslyrics.com

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

अपनी अपनी ढफली अपना अपना राग की तर्ज़ पर लोग अपने जैसे लोगों में व्यस्त रहे हैं।