जीत-हार ग़ज़ब इश्तिहार ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
पहली पहली बार नखरे हज़ार नैया डूबी भवसागर पार , उनको नहीं कुछ भी स्वीकार चाहे जीत हो चाहे हो हार बनवा लिए हैं दो इश्तिहार किसी की भी नहीं होती सरकार , ख़ाली है सारा संसार । तैयारी रखनी पड़ती है जाने कब बधाई देनी पड़ती है कब शोक जताना पड़ता है । आना जाना पड़ता है निभाना नहीं चाहते मगर रिश्ता निभाना पड़ता है । चूड़ियां मंगलसूत्र भला इनसे उनका क्या वास्ता जिधर नहीं जाना क्यों पूछना उस का रास्ता भगवान का वास्ता इक बार सच सच बताओ करण जोहर बना रहे इटेलियन पास्ता बस यही नहीं समझ आता उस में टमाटो सॉस डालते हैं कि नहीं । कॉफी विद करण के हैं जो मेहमान उनकी निराली है शान ऊंची दुकान फीके पकवान । फिर भी खूब है उनकी बढ़ाई अपने मुंह मिट्ठू मियां उन जैसा कहां कोई हरजाई खाई जमकर दूध मलाई ज़िंदगी दर दर ठोकर खा बिताई लेकिन किस्मत जब राजनीति में लाई तब जाकर कहानी समझ आई किस्मत मेहरबान गधा पहलवान कहावत झूठी नहीं मेरे भाई । टीवी पर उनका भाषण दिखलाना है या साक्षात्कार प्रसारित करना है प्रचार सचिव की दुविधा बड़ी है , जाँनिसार अख़्तर की ग़ज़ल याद आई है ।
इन्क़लाबों की घड़ी है , हर नहीं हां से बड़ी है ।
ज़िन्दगी हाथ पसारे , आज रस्ते पे खड़ी है ।
कभी ऐसा भी लगा है , ज़िन्दगी बंद घड़ी है ।
कितनी लाशों पे अभी तक , एक चादर सी पड़ी है ।
( इन्क़लाबों = परिवर्तन )
( जाँनिसार अख़्तर जी की ग़ज़ल )
आख़िर साहस कर पूछना पड़ा जनाब आपको किस बात का डर है , इधर उधर देखा कोई नहीं सुनने वाला तब करीब आकर कान में फ़ुसफ़ुसा कर बोले बस सीधे सवालात का डर है । कहीं कोई काली घटाएं नहीं मगर मुझे जाने क्यों बेमौसमी बरसात का डर है । कुछ भी नहीं बदलने वाला आने वाले हैं जो उन हालात का डर है । मुझे तपती दुपरही में अंधियारा सूरज परछाई से हारा अटल जी की कविता पढ़ कर लगने लगा किसी चांदनी रात का डर है । दुश्मनों की हर चाल समझता हूं दोस्तों की दोस्ती से घबराता है मन जिनको भी अपना बनाते हैं लोग ज़ख़्म उन्हीं से पाते हैं लोग राजनीति का मिजाज़ अजब है वक़्त से पहले बदल जाते हैं लोग , मेरी वफ़ाओं को बार बार आज़माते हैं लोग और मुझी पर बेवफ़ाई की तोहमत लगाते हैं लोग । मेरा अधूरा इक अरमान है मुझ से बड़ा क्योंकर कोई विधान है जो है नाम वाला वही तो बदनाम है । आगाज़ था सुहाना क्यों दिखाई देता आखिर बुराई का होता खराब अंजाम है । हाथ में किसी और के मयक़दा है सुराही वही मेरा ही ख़ाली जाम है । आपने पी है क्या कहना पड़ा उनकी बहकी बहकी बातों से लगने लगा थोड़ा संकोच कर बोले तुमने चखी है कभी , नहीं तौबा तौबा मैंने कहा । हंस कर बोले घबराओ नहीं सभी कहते हैं ग़म में भी पीते हैं ख़ुशी में भी पीते हैं , अपनी किस्मत कैसी है हरदम रहते रीते के रीते हैं । सत्ता भी क्या चीज़ है कहते थे सुनते थे सोने में धतूरे से सौ गुणा नशा होता है लेकिन ये राज़ कोई नहीं जानता सत्ता का नशा उन सभी से बढ़कर होता है कितना चढ़ा कोई नहीं समझ पाता और जब उतरता है तब ख़ुमार को समझना और भी कठिन होता है । मेरे शहर में कोई है जो हर बार चुनाव घोषित होते ही सड़क पर कभी रोते रोते हंसता है कभी हंसते हंसते रोता है । ये रिश्ता बड़ा ज़ालिम होता है सब कुछ पाकर ही कोई खुद को खोता है यही कहलाता राजनैतिक समझौता है । अपनी तिजोरी का हर सिक्का ही खोटा है उसको नहीं पता ये भी सच होता है । अभी दुविधा है कुछ दिन का इंतिज़ार है चलो कुछ रंग बदलते हैं किसी शायरी की महफ़िल में चलते हैं । जाँनिसार अख़्तर की इक और ग़ज़ल पढ़ते हैं ।
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