मई 08, 2024

ख़ुद ही हमने फ़रेब खाए हैं ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

        ख़ुद ही हमने फ़रेब खाए हैं ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

                      ( विश्व गधा दिवस पर विशेष रचना )

गधों की औकात को कम नहीं आंकना कभी भी , गधों की बात दुनिया से अलग है । कौन किस को कैसे गधा बनाता है कब कौन किस गधे को बाप बनाता है इस रहस्य को कभी कोई नहीं समझ सका है । गधेपन का गुण होना हमेशा काम आता है गधा जब भी आलाप लगाता है ढेंचू ढेंचू का स्वर दूर तलक वादियों में पहुंच जाता है । सभी का बजता इक दिन बैंड बाजा है गधा सच समझो तो हमारे युग का राजा है जब से गधे ने शोहरत पाई है जिस तरफ देखते हैं बहार ही बहार आई है । आदमी गधे से बढ़कर नहीं है किस बात की जगहंसाई है गधा कौन है बड़ा भाई है गधे की लात जिस ने खाई है हक़ीक़त बस उसी को समझ आई है । सभी मूर्ख मिल कर कहकहे लगाते हैं गधे देख कर मुस्कुराते हैं क्या इस तरह दुनिया को ख़ुशी दिखलाते हैं , हंसने वालों के भी अश्क़ छलक जाते हैं । सरकार भी गधों की चिंता में दुबली होती है गधों की भीड़ जमा कर मगरमच्छ के आंसू रोती है , सरकारी गधों के बहुमत का ख़्याल रखती है । जवाब मांगते हैं लोग तो जवाब के बदले सवाल रखती है । किसी को पकवान मिलते हैं किसी का नसीब है आधी रोटी भी नसीब नहीं मिल भी जाए तो पानी की तरह अधपकी दाल मिलती है । ये दुनिया गधों का मेला है जानते हैं सभी बोझ जितना है उठाना है आदमी सोचता रहता है उसका अपना ही कुछ झमेला है । 
 
लोकतंत्र गधों की बारात होती है जिस में दूल्हा खामोश रहता है बड़ी अजब सुहागरात होती है । लोग चुन चुन कर उन्हीं को लाते हैं जिन से कितने फ़रेब खाते हैं । राजनीति का यही तमाशा है सबकी आशा झूठी है सच होती है जनता की हताशा है । गधों का नसीब होता है जो भी होता अजीब होता है जब गधा घोड़ी पर चढ़ कर निकलता है दिल मचलता है कुछ फिसलता है । हर गधे की कोई कहानी है उसकी नानी सभी की नानी है शाहंशाह कोई और होता है दुल्हन है जिसकी राजा जानी है । गधों का कोई घर नहीं होता और न कहीं कोई घाट मिलता है ये अजब फूल है जो मौसम के बगैर किसी रेगिस्तान में खिलता है । ऊंठ से उसका कोई नाता नहीं है कौन खिलाए पिलाए समझ आता नहीं । राजधानी में सभी बराबर हैं ऊंठ घोड़ा गधा खच्चर मिल लगाते रहते हैं चक्कर पे चक्कर अपना हिस्सा सभी की चाहत है पेट भरता नहीं क्या मुसीबत है । लो फिर से चुनाव आये हैं हथकंडे सभी आज़माए हैं मिल कर बदलने चले हैं मिजाज़ अपना इक नया इंक़लाब लाये हैं ।  
 
सबने अपना अपना प्रधान चुना है गधों का भी अपना लीडर है गधों की सियासत शानदार है उस से भी लाजवाब उनकी विरासत है । गधों की अपनी सरकार बने दिल की सभी की यही हसरत है , गधों का वोट-बैंक बनाना है धोबी पछाड़ का अर्थ समझाना है । गधों की एकता ज़रूरी है थोड़ी सी इक मगर मज़बूरी है उनका कोई इक ठिकाना नहीं होता कोई अपना बेगाना नहीं होता उनकी चतुराई का कोई भी पैमाना नहीं होता ।  गधों का गधापन उसकी विशेषता होती है इंसानियत देख कर हैरान है आदमी गधे से बढ़कर गधापन कर सकता है सभी का अजब अरमान है लोग गधों की परस्तिश करते हैं गधे को प्रणाम करते हैं कोई दुलत्ती मार सकता है इसी से डरते हैं । राजनीति  में कितने गधे हैं आंकड़ों का हिसाब कोई नहीं हर किसी का बाप है गधा मगर खुद गधे का किसी भी बाप कोई नहीं ।
 

 

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

👌👍 बहुत बढ़िया लेख