मई 29, 2024

मैं चला जाऊंगा ( जुदाई की घड़ी ) डॉ लोक सेतिया

     मैं चला जाऊंगा  ( जुदाई की घड़ी  ) डॉ लोक सेतिया 

   हम छोड़ चले हैं महफ़िल को । आप भी आज़मा कर देखना जब कोई संगी साथी नहीं हो अपना तब दर्द भरे नग्में ग़ज़ल गीत दिल को बड़ा सुकून देते हैं । उनकी हालत कुछ दिन से ऐसी ही है सभी अपने बेगाने लगते हैं दूर बड़ी दूर सब ठिकाने लगते हैं । सुबह शाम कुछ दिल की बात समझ कर गुनगुनाने लगते हैं । हम थे जिनके सहारे वो हुए न हमारे डूबी जब दिल की नैया सामने से किनारे । ऐसी बेचैनी हर किसी को कभी कभी महसूस हुआ करती है , परीक्षा से पहले परिणाम से पहले विवाह बंधन से पहले नाता टूटने के उपरांत , अन्य भी अवसर होते हैं जब हर कोई भरी महफ़िल में तन्हाई महसूस करता है कभी तन्हाईयों से घबरा कर महिफ़ल सजाता है मगर दिल फिर भी चैन नहीं पाता है । मिलने बिछुड़ने पाने पाकर खोने का अजब नाता है ये दुनिया है इक मेला है कोई आता है कोई चला जाता है । दिल क्या करे जब भी जीत हार हो जाए , जाने कब किसी का बंटाधार हो जाए जब कोई शिकारी खुद ही शिकार हो जाए । चांद तन्हा है आस्मां तन्हा , दिल मिला है कहां कहां तन्हा ।  बुझ गई आस छुप गया तारा , थरथराता रहा धुंवां तन्हा । ज़िंदगी क्या इसी को कहते हैं , ज़िस्म तन्हा है और जां तन्हा । 
 हम-सफ़र कोई गर मिले भी कहीं , दोनों चलते रहे यहां तन्हा । जलती-बुझती सी रौशनी के परे , सिमटा सिमटा सा इक मकां तन्हा । राह देखा करेगा सदियों तक , छोड़ जाएंगे ये जहां तन्हा ।  मीना कुमारी नाज़ की ग़ज़ल भी क्या ख़ूब है हर किसी को अपनी कहानी लगती है । 
 
इक ग़ज़ल लता जी की गाई हुई बहुत पुरानी है , चांद निकलेगा जिधर हम न उधर देखेंगे ,  जागते सोते तेरी राह-गुज़र देखेंगे । इश्क़ तो होंठों पे फ़रियाद न लाएगा कभी , देखने वाले मुहब्बत का जिगर देखेंगे । ज़िंदगी अपनी गुज़र जाएगी शाम ए ग़म में , वो कोई और ही होंगे जो सहर देखेंगे । फूल महकेंगे चमन झूम के लहराएगा , वो बहारों का समां हम न मगर देखेंगे । गीतकार राजिंदर कृष्ण जी हैं । ये बात कितनी सच है कितनी ख़्वाब जैसी मगर सुनी है कोई दिलरुबा दिल चुरा ले दिल के बदले दिल नज़राने में दे दे जिसको उसकी ख़ुशनसीबी से बढ़कर कुछ भी नहीं प्यार में हारना ही जीत होती है । बाक़ी दुनिया भटकती फिरती है हासिल कुछ नहीं आता है परेशानी ही परेशानी है हर खेल खेल है हार जीत बेमानी हैं हंसना रोना कुछ नहीं नादानी है ये सब फ़ानी है । जिस को किसी से भी मुहब्बत नहीं है जीने की मरने की फुर्सत नहीं है उसे क्या खबर आशिक़ी क्या है लोग कहते हैं जन्नत यही है । दिलजलों की चाहत क्या है सिर्फ अपनी ही है सब दुनिया में शोहरत इतनी सी ज़रूरत है । जीत ही लेंगे बाज़ी हम - तुम खेल अधूरा छूटे ना , कोई लुटेरा अपना सब लुटे ना , कुर्सी से दामन छूटे ना । ये दिल आया भी तो इक बेजान लकड़ी की कुर्सी पर जिस में कोई संवेदना नहीं कोई लगाव नहीं कभी किसी की कभी किसी और की उसी की कीमत है अन्य किसी का कोई भाव नहीं ।आपका क्या होगा कोई ठांव नहीं गांव नहीं किसी पीपल की छांव नहीं । 
 
 
कुर्सी का खेल है बनता बिगड़ता तालमेल है , आपके तिलों में नहीं तेल है समझ लो यही टेल है अर्थात अंत है किसी की बेल किसी की जेल है हाथ में किसी और के नकेल है । कौन पास है कौन फेल है उलझनों भरा हर इक खेल है गठबंधन की रीति है अपनी अपनी प्रीति है । सबको जो डरा रहा है खुद मन ही मन घबरा रहा है अवसर अवसर की बात है रूठों को मना रहा है सताया बहुत था लेकिन अब पछता रहा है । कुछ याद आ रहा है सब भूल जाओ छोड़ो घर लौट आओ समझा रहा है । चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों गीत से पीछा छुड़ा रहा है । ओ दूर के मुसाफ़िर हमको भी साथ ले ले , हम रह गए अकेले । कितने लाजवाब खूबसूरत गीत ऐसे उदासी में ख़ुद ब ख़ुद ज़हन में चले आते हैं । तेरी दुनिया से दूर चले हो के मज़बूर हमें याद रखना । चाहे मुहब्बत हो चाहे अदावत करम चाहे सितम भुलाने से भुलाए नहीं जाते हां भीतर के ज़ख़्म ज़माने को दिखलाए नहीं जाते , तुमने ढाया है सितम तो यही समझेंगे हम अपनी किस्मत ही कुछ ऐसी थी कि दिल टूट गया । तूने कितनों का दिल तोड़ा है बेदर्दी सबको बर्बाद कर के छोड़ा है बेदर्दी कौन करेगा झूठे तेरा ऐतबार खाईं हैं कसमें तूने हज़ार बार , बस अब नहीं बिल्कुल नहीं आपकी सरकार , गंगा बुला रही है जाना होगा जमुना के उस पार जिस जगह मिलती हैं समंदर से नदियां होता है ख़त्म सफ़र वही है खारे पानी का संसार सागर का नहीं होता कोई घर बार । 
 
ग़ालिब की याद आई है दुहाई है , निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन , बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले , हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि है ख्वाहिश पे दम निकले ,  बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले । घड़ी आ गई है विदाई की ऐसे में कोई गीत ज़रूरी है , नीला आकाश फ़िल्म का गीत है सुनते हैं । मैं चला जाऊंगा दो अश्क़ बहा लूं तो चलूं , आखिरी गीत मुहब्बत का सुना लूं तो चलूं । मैं चला जाऊंगा । आज वो दिन है कि तूने मुझे ठुकराया है , अपना अंजाम इन आंखों को नज़र आया है , वहशत ऐ दिल मैं ज़रा होश में आ लूं तो चलूं । मैं चला जाऊंगा । आज मैं गैर हूं कुछ दिन हुए मैं गैर न था , मेरी चाहत मेरी उल्फ़त से तुझे बैर न था । मैं हूं अब गैर यकीं दिल को दिला लूं तो चलूं । मैं चला जाऊंगा । राजा मेहंदी अली खान की कलम , मदन मोहन का संगीत , मुहम्मद रफ़ी की आवाज़ इस से बेहतर कोई गीत मिलना मुमकिन ही नहीं है ।
 
 
 
 क्या 'कुर्सी' जैसे राजनीतिक रणनीति खेल मतदाता जागरूकता पैदा कर सकते हैं?

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

सदाबहार गीतों से सजा, कुर्सी तक जाता लयात्मक आलेख👌👍