मई 06, 2024

मन के हारे हार है मन के जीते जीत ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया

   मन के हारे हार है मन के जीते जीत ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया 

वक़्त है अभी भी कोई श्रीकृष्ण जैसा सारथी तलाश कर लो , मन की बात कोई किसी को नहीं समझाता ख़ुद अपने अंतर्मन को टटोल कर देख लो । हार क्या है जीत क्या है सत्ता की झूठी प्रीत की रीत यही है जीवन का संगीत यही है राम नाम जपना मनमीत वही है । प्यार में और जंग में सब जायज़ नहीं होता है हेरा फेरी तो हर्गिज़ नहीं । देखो क्या लाया था कुछ भी नहीं और अब कितना कुछ तिजोरी में भरा है चाहो तो जैसे मौज मस्ती से शासन किया ज़िंदगी भर वही शान ठाठ बाठ से रहने को कोई कमी नहीं है । कुछ लोग तो ऐसे भी हुए हैं जो सत्ता नहीं रही तो बगल में इक चारपाई उठा कुरुक्षेत्र जा कर बस गए । जिसने ज़िंदगी भर झोली फैलाई हो उस को चिंता क्या इस देश में कोई दरवाज़े से ख़ाली नहीं जाए ऐसा नियम अभी भी है । मैं समझ गया क्या सोच रहे हो , नहीं मैं जले पर नमक नहीं छिड़कना चाहता बल्कि पहले से भविष्य की योजना बनाने की राय देना चाहता हूं । बस इक मुश्किल है कोई तो ऐसा अपना बना लिया होता जिस के कांधे पर अपना सर रख का जी भर रोने से जी हल्का हो जाता । ऐतबार करोगे किसी ने बुरी तरह से पराजय मिलने पर उसी के कांधे पर सर रख कर अपना दर्द सांझा किया था जिस के कारण पराजित हुए थे । तभी कहते हैं कि दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाईश रहे जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों । अचानक नींद खुली ख़्वाब से जागे तो बेचैनी हुई कि सोते समय किसी और भगवान से विनती की थी ये भगवान कैसे बिन बुलाए सपने में चले आये । 
 
ये अकेलापन भी कभी कभी इक कमी महसूस करवाता है , जिनकी धर्मपत्नी संग रहती है आधी रात को जगाकर कुछ नहीं तो शतरंज की बाज़ी खेल लेते हैं या कोई इधर उधर की बात से दिल बहलाते हैं । हां पत्नी कोई छोटी मुसीबत तो नहीं होती फिर भी बड़ी बड़ी परेशानी का कोई हल ज़रूर बताती है बड़े सियाने लोग कहते थे । समझदार महिला कभी घर परिवार को बिखरने नहीं देती , कहने को सारा जहां हमारा कह लो लेकिन घर बिना घरवाली बनता नहीं है । उम्र बढ़ती है तब हमसफ़र साथी की ज़रूरत और भी अधिक पड़ती है लोग रूठों को मना लिया करते हैं । नहीं अब लौट कर घर वापस जाने को रास्ता ही नहीं छोड़ा है खुद ही कितने कांटें कितने अवरोध दुनिया को रोकने को खड़े किए अब कठिन है कोई साफ़ सीधा रास्ता मिलना । पहली बार धर्म उपदेशक की बात सच लगने लगी है कि किसी दिन सभी धन दौलत पास होगा लेकिन सुकून नहीं मिलेगा । ज़माने भर को नौटंकी से उलझा सकते हैं ख़ुद अपने आप को तमाशा बनते नहीं देखा जा सकता है । ऊपर जाना उतना कठिन नहीं था जितना ऊंचाई से नीचे आते हुए फ़िसलन का डर होता है । भूल गया था बचपन की कहानी जिस में भले वक़्त में ख़राब दिन आने की बात ध्यान रखते हुए हर कदम देख कर रखते हैं । कभी फूलों का कोई गुलशन खिलाया होता तो हर तरफ धूल की आंधी कहीं रेगिस्तान कहीं कंटीली तारें देख इतना अफ़सोस नहीं होता । सबको जीतने का नुस्खा बताते रहे कभी उनसे भी कोई सबक सीखने की कोशिश करते जो हार कर भी हार नहीं मानते थे । अनुभव की बात बड़ी महत्वपूर्ण होती है ये कितनी किताबों में बताई जाती रही है । भगवान राम भी अपने दुश्मन को पराजित कर जब अंतिम सांस ले रहा होता है तब भाई को कोई सबक सीखने को कहते हैं , तभी ये भी रहस्य समझ आता है कि जिस से कुछ समझना सीखना होता है उसके पैरों की तरफ बैठते हैं सिरहाने नहीं । 

कुछ नहीं सूझा किस को कैसे बताएं लगता है सत्ता खोने का भय क्यों तड़पाता है जिसे पाने की चाहत में धूनी रमाई देर से समझे कि उस ने नहीं कभी किसी से वफ़ा निभाई । मझधार में नैया डोलने लगी है मिलन से पहले कैसी जुदाई सच कहते हैं जाके पैर न फ़टी बिवाई सो क्या जाने पीर पराई । माई री मैं कासे कहूं पीर अपने जिया की माई री , कुछ और कभी मन को भाया ही नहीं बस इतना सा ख़्वाब था सब से बड़ा कहलाना ।  सब कुछ खुद पाना कुछ ऐसे चोरी चोरी चुपके चुपके सबका दिल चुराना मगर लाख कोशिश करने पर भी नहीं किसी के भी हाथ आना । गुज़रा हुआ ज़माना दोबारा नहीं आएगा कोई जोगी गली गली वही गीत गाता नज़र आएगा , खोएगा सो पाएगा । खोना क्या है पाना क्या है दुनिया इक झूठा है अफ़साना क्या , पाना था तो कुछ कठिन नहीं था जब खोने की घड़ी करीब आई तो दिल कहता है ये दिल तुम बिन कहीं लगता नहीं हम क्या करें । अपना समझ बैठे जिसे चार दिन का बसेरा था किराये का घर था भूल हुई लगता बस मेरा था ।
 

 

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

Wahh सत्ता जाने का डर ...तड़पाता है.. बढ़िया आलेख