वार्तालाप करते हैं निष्कर्ष नहीं ढूंढते ( बहस जारी है ) डॉ लोक सेतिया
दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल से शुरूआत करते हैं :-
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ ,
आज कल दिल्ली में है ज़ेर-ए - बहस ये मुद्दआ ।
मौत ने तो धर दबोचा एक चीते की तरह ,
ज़िंदगी ने जब छुआ तो फ़ासला रख कर छुआ ।
गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नहीं ,
पेट भर कर गलियां दो आह भर कर बद्ददुआ ।
क्या वजह है प्यास ज़्यादा तेज़ लगती है यहां ,
लोग कहते हैं कि पहले इस जगह पर था कुंवां ।
आप दस्ताने पहनकर छू रहे हैं आग को ,
आपके भी खून का रंग हो गया है सांवला ।
इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो ,
जब तलक खिलते नहीं ये कोयले देंगे धुंवा ।
दोस्त , अपने मुल्क़ की क़िस्मत पे रंजीदा न हो ,
उनके हाथों में है पिंजरा , उनके पिंजरे में सुआ ।
इस शहर में वो कोई बरात हो या वारदात ,
अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियां ।
इस में कोई दो राय नहीं कि बातचीत से हर समस्या का समाधान खोजा जा सकता है । लेकिन तब जब चर्चा करने वाले संजीदा विषय पर हास परिहास नहीं करें साथ ही बात का जवाब बात से दिया जाए । लेकिन यहां तो अजब कमाल के देशवासी हैं हम , जब भी जहां कहीं भी अवसर मिलता है हम बहस करने लगते हैं मगर कभी किसी नतीजे तक नहीं पहुंचते हैं । कभी कभी तो बहस से लगता है बस अब सब समझ आने वाला है जो भी मसला है सुलझने वाला है । हर समस्या सुलझने वाली है हर प्रश्न का हल निकलने वाला है । कभी होता रहा होगा आपसी बातचीत से किसी भी विषय अथवा किसी विवाद को सुलझाना आपसी सहमति से । ये दौर अलग है इस देश में हर कोई सब कुछ जानता है समझाता है समझदार होने का दम भरता है बस समझता कोई नहीं । कुछ अजीब सी ज़िद है जो हम मानते हैं बस वही सही है किसी दूसरे के मत से प्रभावित होना मतलब अपनी हार पराजय स्वीकार करना कोई तैयार नहीं । आजकल हमने उन्हीं को आदर्श बना लिया है जो शानदार भाषण देते हैं हम सब कुछ बदलने वाले हैं लेकिन अपना चेहरा नहीं बदलते जो आईना उनको असली सूरत दिखलाता है उस को चकनाचूर करते हैं । सार्वजनिक सभाओं में इकतरफ़ा संवाद होता है कोई जो मंच पर नहीं है सामने भीड़ में शामिल है उसे बोलने की अनुमति नहीं है सिर्फ मंच से बोलने वाले की कही बात का समर्थन करने तालियां बजाने का अधिकार है , क्या समझा नहीं समझा चर्चा बेकार है । राजनीति जनता के लिए दोधारी इक तलवार है घायल करती हर बार है अजब ये लोकतंत्र का संसार है जिसको समझ आ गया ठगना जनता को उसका बेड़ा पार है आपकी ख़ातिर टूटी नैया है इक मांझी की आस है जिस के पास पतवार है सामने आगे पीछे हर तरफ मझधार ही मझधार है ।
ये न सोचो इस में अपनी हार है कि जीत है , आपको पसंद है कोई पुराना गीत है , कौन पर सुनता सुनाता वो मधुर संगीत है आजकल हर तरफ इक शोर है भावनापूर्ण गीत लगता कितना बोर है । अपनी अपनी डफ़ली है और अपना अपना राग है , भाग भाग भाग इक यही गुणा भाग है बेनतीजा हर चर्चा हर संवाद है । शब्द क्या हैं अर्थ हीन इक सुलगती आग है । हर सुबह हर शाम इक नज़ारा दिखाई देता है , कुछ लोग मिलते हैं अजब उनकी महफ़िल का रिवाज़ है सभ्यता से अलग गाली और अश्लील भाषा कहते हैं दोस्ती है समझो तो खत्म शिष्टाचार है । अब कौन कैसे कहे क्यों होता भाषा पर अत्याचार है क्या यही शिक्षा है यही सभ्य संस्कार है हर बात का मतलब यही कुछ नहीं बात ही बेकार है । मिल बैठ कर हमने कोई सार्थक विषय समझा नहीं बस जिस तरफ की थी आंधी चलने लगे हम भी वहीं , हां यही नहीं यही कुछ है नहीं कुछ भी नहीं । कोई नहीं कुछ सोचता कोई नहीं कुछ बोलता क्या कर रहे घंटों तलक खाया पिया कुछ नहीं गलास तोडा बारह आना । कुछ नहीं समझा कुछ नहीं जाना किस बात की थी चर्चा बस था इक बहाना , आना जाना कितना अजब है ये आधुनिक अपना ज़माना । इस में वो बहस शामिल नहीं है जो टीवी चैनल वाले अपनी मर्ज़ी से जब चाहें किसी भी विषय पर जिनको चाहते हैं उनको चर्चा में शामिल कर अपना वर्चस्व अपना धंधा अपना टीआरपी आदि बढ़ाने को रोज़ करने का चलन बना आपका समय बर्बाद और आपकी सोच को प्रभावित कर जैसे चाहें बदलने का प्रयास करते हैं । सोशल मीडिया पर फेसबुक पर भी निर्रथक बहस जारी है जाने कब से लगी ये बिमारी है ।
1 टिप्पणी:
सटीक
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