मई 07, 2024

बोझ बन जाए जब कोई ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

   बोझ बन जाए जब कोई ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

फ़िल्म सफ़र की कहानी है जो हंसी मज़ाक़ की बात हक़ीक़त में इक अनहोनी घटना या दिल दहलाने वाला हादिसा बन गई है । नायक नायिका की लिखावट की नकल हूबहू कर इक ख़त उसकी मेज़ पर रखी किताब में छुपा देता है । बड़ा भाई पढ़ कर हैरान परेशान हो जाता है लिखा होता है कि मैं घर वालों के लिए इक बोझ बन गई हूं आदि आदि । नायिका पता लगा कर बताती है कि चित्रकार नायक ने कितनी मेहनत की है अपनी लेखनी को मेरी लिखावट बनाने में । हंसी मज़ाक की बात तब गंभीर बन जाती है जब नायिका उस खत को अपने विवाह होने के बाद भी अपनी अलमारी में संभाल कर रखे रहती है । इक दिन नायिका का पति उस को पढ़ कर समझता है कि उसकी पत्नी छुटकारा चाहती है और पागल प्रेमी ज़हर खा कर अपनी जान दे देता है । हालांकि फिल्मों में हर समस्या का कोई समाधान भी कहीं कोई सुझा दिया करता है जैसे साहिर लुधियानवी जी चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों गीत से अपने अपने रास्ते जाने का विकल्प ढूंढते हैं । 
 
देश की राजनीति सही मायने में किसी अनचाहे बोझ से कम नहीं है जिसे ढोते रहना जनता की नियति है ।  लेकिन उस से बढ़कर राजनैतिक दलों में कुछ लोग असहनीय और अनचाहा बोझ बन जाते हैं जिनको छोड़ना संभव नहीं होता क्योंकि उनके पास इक ऐसी चाबी रहती है जिस से कोई खज़ाना खुलता है खुल जा सिम सिम कहते ही । लेकिन परिवारवाद और जातिवाद धर्म के नाम पर राजनीति का विरोध करने वाले जब किसी को मसीहा समझने लगते हैं और व्यक्ति पूजा करने लगते हैं तब विकट हालात बन जाते हैं । कोई इकलौता व्यक्ति इतना भारी होने लगता है कि उसका बोझ उठाते उठाते सभी का कचूमर निकलने लगता है । ऐसे में निगलते बनता है न ही उगलते बनता है और तमाम लोग इक पहाड़ के नीचे दब कर घुट घुट कर मरने को अभिशप्त हो जाते हैं । ज़िंदगी जब मौत से बदतर होने लगती है तब पछतावा करने से कोई राहत नहीं मिलती है । हमने कब मांगा था कोई स्वर्ग जैसा खूबसूरत सपनों का संसार , आपने ही सुनहरे ख़्वाब दिखलाए थे जनता को , मगर मिला इक ऐसा जहां जिस में हर कोई हमेशा घबराया सहमा रहता है कि जाने कब आपकी तिरछी नज़र उसको जला कर ख़ाक कर दे ।  राजनीति में कब कौन नटवरलाल किस रूप में छलेगा कभी कोई भी नहीं समझ पाया है , इक ग़ज़ल पेश है आखिर में ।
 

खुदा बेशक नहीं सबको जहां की हर ख़ुशी देता ( ग़ज़ल ) 

              डॉ लोक सेतिया "तनहा"

खुदा बेशक नहीं सबको जहां की हर ख़ुशी देता
हो जीना मौत से बदतर , न इतनी बेबसी देता ।

मुहब्बत दे नहीं सकते अगर , नफरत नहीं करना
यही मांगा सभी से था , नहीं कोई यही देता ।

नहीं कोई भी मज़हब था , मगर करता इबादत था
बनाकर कश्तियां बच्चों को हर दिन कागज़ी देता ।

कहीं दिन तक अंधेरे और रातें तक कहीं रौशन
शिकायत बस यही करनी , सभी को रौशनी देता ।

हसीनों पर नहीं मरते , मुहब्बत वतन से करते
लुटा जां देश पर आते , वो ऐसी आशिकी देता ।

हमें इक बूंद मिल जाती , हमारी प्यास बुझ जाती
थी शीशे में बची जितनी , पिला हमको वही देता ।

कभी कांटा चुभे ऐसा , छलकने अश्क लग जाएं
चले आना यहां "तनहा" है फूलों सी नमी देता ।  
 

 

कोई टिप्पणी नहीं: