मई 16, 2024

POST : 1820 हंसने की चाह ने रुलाया है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

         हंसने की चाह ने रुलाया है  ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

लोग हर मोड़ पे रुक रुक के संभलते क्यूं  हैं , इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यूं हैं । राहत इंदौरी जी की ग़ज़ल है , सरकार भला डर डर कर चलती है सत्ता की रेलगाड़ी तो हवाओं से तेज़ भागती है । इतना क्या कोई डरावना सपना देखा आधी रात को जिस से जागने के बाद भी निकलना कठिन हो गया है । सौ तरह के डर होते हैं साधारण आदमी के , शासक को सत्ता खोने का अकेला डर रहता है । इतनी गारंटी की बात है जादुई आंकड़ा भी आपने निर्धारित किया हुआ है फिर घबराना किसलिए ।  घबराना बेकार  टकराना है उनसे  जो विरोधी सामने खड़े हैं , उनसे सामना करिये , बिना कारण किसी शायर की नज़्म से नींद उड़ना , किसी गीत से दिल की धड़कन बढ़ना , निशानी है कहीं रक्तचाप बढ़ गया हो तो डॉक्टर से दवा मिलती है । साठ साल की उम्र में अधिकांश खाते हैं । अब किसी कमेडियन से भी डरना क्या शोभा देता है बल्कि आपके संसदीय क्षेत्र की जनता को हंसने मुस्कुराने का अवसर मिलता उनको वंचित करना ठीक नहीं है । जनाब अपने भीतर के सभी डरों को भगाओ अगर नहीं कर पाओ तो डर को छुपाओ सामने मत लाओ अपनी छाती का नाप बताया था फिर से दोहराओ । 
 
चुनाव कितना अलग होता जनाब भावुक होकर अश्कों की बारिश कर रहे हैं ऐसे में कोई जग को हंसाने वाला जनता को कहकहे लगवा रहा होता , शायद इसी विचित्र दृश्य का भय रहा होगा तभी सब तौर तरीके आज़मा उसको खेल के मैदान से ही बाहर कर दिया गया । शायरी कविता में दर्द बड़े काम आते हैं और ग़ज़ल तो लिखी ही अश्कों से जाती है । ग़ालिब कहते हैं रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं काईल  , जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है । आंसुओं की दास्तां लिखते लिखते कथाकार की कलम उदास हो जाती है । आशिक़ के अश्क़ों पर कितने बेमिसाल शेर हैं शायरी में अश्क़ का रुतबा बड़ा ऊंचा है मैंने भी कभी लिखा था  बस ज़रा सा मुस्कुराए तो ये आंसू आ गए वर्ना तुमसे तो कहना ये अफ़साना न था । ये राजनीति है जनाब यहां एक एक आंसू का हिसाब रखते हैं गिन गिन कर बदला लेते हैं । कोई कलाकार पेंटिग बना सकता है बादशाह के इंसाफ के तराज़ू के पलड़े पर कितनी लाशें एक पलड़े पर मगर झुका हुआ पलड़ा होता है जिस पलड़े पर किसी का इक आंसू गिर गया है । महिलाओं को अच्छी तरह मालूम है ये हथियार कभी नाकाम नहीं होता है उनका रोना किसी को जीवन भर रुला सकता है जब कोई तरकीब नहीं काम आती है आज़मा सकता है । बड़े लोगों की बड़ी बड़ी बातें कौन समझ पाया है इक नज़्म मेरी से कोशिश करते हैं । याद रखना राजनेताओं की आंख के आंसू जब निकलते हैं तो ग़ज़ब ढाते हैं ।
 

          बड़े लोग ( नज़्म ) 

बड़े लोग बड़े छोटे होते हैं
कहते हैं कुछ
समझ आता है और

आ मत जाना
इनकी बातों में
मतलब इनके बड़े खोटे होते हैं ।

इन्हें पहचान लो
ठीक से आज
कल तुम्हें ये
नहीं पहचानेंगे

किधर जाएं ये
खबर क्या है
बिन पैंदे के ये लोटे होते हैं ।

दुश्मनी से
बुरी दोस्ती इनकी
आ गए हैं
तो खुदा खैर करे

ये वो हैं जो
क़त्ल करने के बाद
कब्र पे आ के रोते होते हैं ।  
 
 
 

डरते हैं सभी और कौन है जो हर पल किसी न किसी डर का शिकार नहीं होता , शायर राजेश रेड्डी जी की ग़ज़ल है :-

 
 
यहां हर शख़्स , हर पल , हादिसा होने से डरता है ,
खिलौना है जो मिट्टी का ,  फ़ना होने से डरता है ।

मेरे दिल के किसी कोने में , इक मासूम -सा बच्चा ,
बड़ों की देख कर दुनिया , बड़ा होने से डरता है ।

न बस में ज़िन्दगी इसके , न क़ाबू मौत पर इसका ,
मगर इन्सान , फिर भी कब , ख़ुदा होने से डरता है ।

अज़ब ये ज़िन्दगी की क़ैद है , दुनिया का हर इन्सां
रिहाई मांगता है , और रिहा होने से डरता है ।
 

 


1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

बढ़िया आलेख...प्यारी नज़्म.. अच्छी ग़ज़ल...

डर के आगे जीत है... जो डर गया सो मर गया😊