बेताल सुनता , कहानी राजा सुनाता ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
शासक ने बेताल को बेबस कर चुपचाप उसकी कहानी सुन कर ताली बजाने को विवश कर ही लिया । हमेशा से बेताल अपनी शर्त मनवाता रहा इस बार बाज़ी पलट गई और राजा ने तौर तरीका बदल बेताल की पीठ पर खुद सवार हो गया था । राजा कहने लगा बेताल की कितनी कथाएं कहानियां दुनिया ने सुनकर भुला दीं पर कोई सबक नहीं सीखा आज भी राजतंत्र खत्म हुआ लोकराज स्थापित होने पर भी जनता खुद को किसी न किसी का गुलाम ही बनाये रखा । मूर्ख लोग गुलामी का भी लुत्फ़ उठाने लगे हैं पिंजरे में कैद ख़ुशी के गीत गाने लगे हैं । किसी भिखारी को ताज पहनकर खुद अपनी झोली फ़ैलाकर गंगा उलटी बहाने लगे हैं अपनी हस्ती खुद ही मिटाने लगे हैं सोशल मीडिया की चमक दमक की झूठी दुनिया को सच समझने लगे है क्या जाने किसलिए ज़ालिम को मसीहा समझ कर महिमा उसी की गाने लगे हैं । शासक कुछ भी जनता या समाज के कल्याण की खातिर नहीं करते हैं हमेशा अपनी तिजोरी भरते हैं मौज करते हैं लोग देखते हैं उनको बस आह भरते हैं । खुद सभी देशवासी शासक बनकर मनमानी करने की चाहत रखते हैं इसलिए झूठ का ही गुणगान करते हैं सच बोलने से डरते हैं । शासक बनते ही भूखे नंगे लोग भी बादशाह खुद को मानते हैं देश सेवा के नाम पर लूट खसौट करते हैं जनता को झूठे वादों से बहलाते हैं उसकी खैरात बांटते है अधिकार कभी नहीं देते खुद दानवीर कहलाने का ग़ज़ब ढाते हैं ।
चोर चोर मौसेरे भाई हैं सत्ता की रेवड़ियां संग संग खाते हैं देशवासी हमेशा गलती करते हैं जिन पर भरोसा करते हैं वही ज़ुल्म ढाते हैं लोग चिड़िया खेत चुग जाती है तब बाद में पछताते हैं । सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा गुनगुनाते हैं मगर अच्छा कुछ भी दिखाई देता ही नहीं झूठे ख्वाब सजाते हैं । मंदिर मस्जिद गिरजा गुरुद्वारा सभी लोग जाते हैं लेकिन भगवान कहीं नहीं मिलते आजकल इंसान भी कम नज़र आते हैं । जो लोग बबूल बीजते हैं सत्ता हासिल कर आम आदमी को चूसते हैं उसका सब निचोड़ कर पीते हैं बस गुठलियां गरीब को मिलती हैं शासक हंसी उड़ाते हैं ये तमाशा देख दिल बहलाते हैं । शासक देश विदेश जाकर भाईचारा बनाते हैं दोस्त देश दुश्मन देश कौन सब भूलकर लेन देन का ऐसा चक्र्व्यू रचाते हैं जिस में साधारण लोग बिना कुछ लिए कर्ज़दार बन कर जीवन भर किश्ते चुकाते हैं । आयात निर्यात के खेल में सत्ताधारी लोग अधिकारी उनके यार लोग गुलछर्रे उड़ाते हैं गरीब और गरीब अमीर और रईस बनकर देश का बंटाधार कर इतराते हैं समझते हैं हम बनाते हैं जब चाहे सरकार गिराते हैं । ख़ास वर्ग स्वार्थ की बेड़ियों में कोल्हू के बैल की तरह अपनी परिधि में घुमते रहते हैं कभी आंखों से पट्टी नहीं हटाते मतलब की बात समझते हैं आपको ये समझाते हैं , कविता सुनाते हैं लोग आम क्यों नहीं खाते हैं ।
गुठलियां नहीं , आम खाओ ( व्यंग्य कविता )
डॉ लोक सेतिया
गुठलियाँ खाना छोड़ करअब आम खाओ
देश के गरीबो
मान भी जाओ ।
देश की छवि बिगड़ी
तुम उसे बचाओ
भूख वाले आंकड़े
दुनिया से छुपाओ ।
डूबा हुआ क़र्ज़ में
देश भी है सारा
आमदनी नहीं तो
उधार ले कर खाओ ।
विदेशी निवेश को
कहीं से भी लाओ
इस गरीबी की
रेखा को बस मिटाओ ।
मान कर बात
चार्वाक ऋषि की
क़र्ज़ लेकर सब
घी पिये जाओ ।
अब नहीं आता
साफ पानी नल में
मिनरल वाटर पी कर
सब काम चलाओ ।
होना न होना
तुम्हारा एक समान
सारे जहां से अच्छा
गीत मिल के गाओ ।

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