सितंबर 25, 2025

POST : 2026 गांव की मिट्टी से आधुनिक शहर तक ( अनगिनत रंग ) डॉ लोक सेतिया

 गांव की मिट्टी से आधुनिक शहर तक ( अनगिनत रंग ) डॉ लोक सेतिया  

ये हमारी उम्र की पीढ़ी ने देखा समझा गुज़ारा है जो हमसे पहले हुए उनको विज्ञान और भौतिकता की प्रगति का कहां पता होगा की आदमी कितने बदलाव का साक्षी बनने जा रहा है । जो आज की युवा पीड़ी है उसकी कल्पना भी वहां नहीं पहुंच पाएगी जहां से हमने उनके पूर्वजों ने शुरुआत की थी । और ये बदलाव गांव से शहर और शहर से महानगर या महानगर से विदेशी चमक दमक का ही नहीं है बल्कि उस से बढ़कर बदलती सोच और इंसानी संवेदनाओं से मशीनी तौर तरीकों का भी है । आपको भूखे पेट खुले आसमान की बारिश गर्मी सर्दी से शानदार पंचतारा जीवन शैली का अनुभव आधुनिक काल में एक साथ नहीं हो सकता है । आज आपके सामने भले गरीबों की दुनिया हो सकती है जिस से आप कोई संबंध नहीं रखना चाहते हों और आपकी मध्यम वर्ग की दुनिया जिस को महलों की तख्तों ताज़ों की दुनिया पाने की ख़्वाहिश है उस भीतर से बेहद खोखली दुनिया धनवान लोगों की मतलबी संवेदनारहित दुनिया , ज़िंदगी की वास्तविक पहचान इन से बिल्कुल अलग है । फ़िल्मी किताबी काल्पनिक नहीं वास्तविक दुनिया हमारी थी है और रहेगी जो कुछ विचित्र महसूस हो सकती है मगर विचित्र नहीं वही देश की सही तस्वीर है जिसे हमने भुला दिया है । आज हम जिस ऊंची इमारत पर खड़े हैं उसकी बुनियाद कितनी गहरी है मज़बूत है अथवा कमज़ोर है जिसको कोई आंधी कोई तेज़ हवा का झौंका हिला देता है जाने किस दिन क्षण भर में उसका निशान ही मिट जाए कोई तूफ़ान कोई सैलाब अगर आ गया तो । 
 
चलो बचपन से शुरआत करते हैं , गांव जिस में कोई सड़क नहीं बिजली नहीं सरकारी स्कूल भी है केवल पांचवी कक्षा तक की पढ़ाई कर सकते हैं । कभी खुले में कभी पेड़ों की छांव में अध्यापक पढ़ाते हैं कभी एक ही अध्यापक पहली से पांचवी तक की कक्षा को पढ़ाते थे । लकड़ी की तख़्ती पर किसी पेड़ की टहनी से तराशी हुई कलम और दवात में काली स्याही की पुड़िया पानी में मिलाकर बनाई स्याही से लिखने का अभ्यास । लेकिन गांव का वातावरण कितना प्यारा होता था कोई भी अनजान अजनबी नहीं होता था , मिलते तो कहते तुम फलाने के बेटे पोते भाई बहन लगते हो , जी हां चाचा जी बाबा जी बताते थे । खेलने को कोई मैदान नहीं था गली मोहल्ला हर घर अपना था किसी से पूछने की ज़रूरत नहीं थी । दिये की रौशनी या कोई लालटेन जलती थी मगर चांदनी रात को खुली छत पर कोई कहानी सुनते सुनते किसी सपनों की दुनिया में नींद में भी चेहरे पर मुस्कान रहती थी । पांचवी कक्षा के बाद छोटे से शहर में छह साल की पढ़ाई जिस में हिंदी पंजाबी अंग्रेजी भाषा को पढ़ना और उसके बाद नौंवीं कक्षा में विज्ञान गणित की राह चुनना सब जैसे भविष्य को निर्धारित करता गया । लेकिन हम गांव के घर से शहर में परिवार के किसी बड़े सदस्य की सुरक्षित देख रेख में शहरी वातावरण से तालमेल बिठाते हुए भी खेत खलियान से जुड़ाव रखते रहे । जिस गांव तक बस जाती उस से यात्रा कर आगे पांच मील का कच्चा रास्ता पैदल ही तय हो जाता था । कभी अगर साईकल मिलती तो आनंद लेते अन्यथा कदमों ने कभी थकना नहीं सीखा था , गांव पहुंचते ही गांव के बाहर वाले खेत भाग कर मिलने जाते पिता चाचा दादा ताया जी ही नहीं खेत में काम करने वाले सभी से कुछ रिश्ता हुआ करता था । कितना अपनापन है कि गांव से सालों साल बाहर रहकर भी किसी को देखते लगता की ये कोई अपने गांव का ही है पूछने पर मालूम होता किसी सहपाठी की संतान है जिस से शायद मिले तक नहीं । 
 
कॉलेज की बात बिल्कुल अलग है , मुझे आधी ज़िंदगी बिताने के बाद समझ आया कि उन पांच सालों में हमने सिर्फ किताबी पढ़ाई ही नहीं की बल्कि हमारा दिल दिमाग़ सोच समझ को कोई आकाश तभी मिला जिस से हम लोग जैसे हैं वैसे बन सके हैं । आपको सुनकर हैरानी होगी कि कॉलेज जीवन से हमने क्या क्या नहीं सीखा समझा और अपने भीतर समा लिया । सोचता हूं तो लगता है कि जैसे किसी बाग़ के पौधे को उखाड़ कर किसी ऐसे खुले मैदान में रोप दिया हो जिस में कोई माली नहीं कोई बाढ़ नहीं और मौसमों से गर्मी बारिश सर्दी से जूझना पड़ता है । ठोकर लगती है कोई उठाने को हाथ नहीं बढ़ाता खुद संभलना होता है । कभी कॉलेज कभी हॉस्टल कभी कितनी अन्य दुश्वारियां पता नहीं होता किस किस उलझन से निकलना होगा । कभी घर से पत्र नहीं आया अकेलापन कभी मनीऑर्डर नहीं पहुंचने पर खाली जेब ऐसी कितनी बातें लगती छोटी हैं लेकिन हालात से सामना करना सिखलाती हैं । सबसे महत्वपूर्ण दो बातें हैं पहली किसी से मिलते ही निकटता का एहसास और दूसरा कभी कोई समस्या होने पर सहयोगी सहपाठी मित्रों का परिवार के अन्य सदस्यों से बढ़कर अपनत्व । इक दोस्त का दुर्घटना में फ्रैक्चर होने के बाद कुछ महीने अपने माता पिता साथ गुज़ार कर आने पर बताना कि लगता है हाथ में बैसाखियां नहीं मानसिक रूप से विवशता का एहसास होने लगा है , दो दोस्तों का भरोसा दिलवाना कि हम हैं तो कभी ऐसा मत समझना । आज वो दोस्त नहीं है दुनिया में लेकिन हम दो दोस्तों ने उसको प्यार से सभी रिश्तों से बढ़कर अपनापन देकर उस निराशा से निकाला और कभी असहाय नहीं महसूस होने दिया , ये कॉलेज के मधुर संबंध से ही संभव था ।  
 
ज़िंदगी भटकाती नहीं रही बल्कि शायद नित नई मंज़िलें मुझे बुलाती रही हैं , 1974 से 1980 तक दिल्ली में रहना शायद मेरे भविष्य की आधारशिला जैसा था । सरिता पत्रिका का कॉलम अंतर्मन तक समाया जिस ने देश समाज को लेकर सक्रिय करने सोचने समझने की प्रेरणा दी , और 25 जून 1975 को लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी का रामलीला मैदान में जाकर भाषण सुन कर इक संकल्प लिया था निडर होकर अन्याय अत्याचार भ्र्ष्टाचार से टकराने का । लेकिन लेखन को तेज़ धार देने में जिस हिंदी अख़बार दैनिक जनसत्ता और उसके संपादक प्रभाष जोशी जी की प्रेरणा ने मज़बूती दी उनका महत्व कम नहीं है । अब अधिक विस्तार से बताना ज़रूरी नहीं है लेकिन लेखन कार्य में करीब 35 साल से निरंतर सक्रियता में कितनी समस्याएं बाधाएं और अड़चने सामने आती रहीं मगर अपने पांव डगमगाने नहीं दिए भले कीमत कुछ भी चुकानी पड़ी है । ये बात समझने में ज़िंदगी लग गई है कि हम लिखने वालों की दुनिया अपनी अलग ही होती है और अधिकांश आसपास की दुनिया को हम लोग कभी पसंद आते नहीं क्योंकि उनको समझ ही नहीं आता कोई क्यों ऐसे काम में लगा हुआ है जिस से मिलता कुछ भी नहीं चिंताओं को छोड़कर । लेकिन अब समझ आता है कि हमारी बात पढ़ने समझने वाले दुनिया भर में कितने लोग हैं जिनसे हमारा कोई नाता ही नहीं है । आधुनिक संसाधनों ने लिखने वालों को खुला आसमान दिया है किताबों को लोग सिमित संख्या में पढ़ते हैं जबकि ब्लॉग्स साइट्स पर आप को संसार पढ़ता है यही हमारी उपलब्धि है जिसे हासिल करने में निरंतर प्रयास करना होता है ।  
 
 10 सरल घर डिजाइन - भारत में सरल गांव घर डिजाइन
 

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

बचपन से बड़े और समझदार होने तक की यात्रा कराता बढ़िया आलेख...सच मे अभावों में गुजरा पहले का जीवन ही वास्तविक और भावयुक्त जीवन था