परदेसियों को है इक दिन जाना ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया
कोई हैरानी नहीं हुई जब अपने नगर से तीन महीने बाहर रहना पड़ा , जानता था किसी को मेरे होने नहीं होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है । दो चार लोगों ने फोन कर घर पर नहीं होने की बात पूछी किसी मकसद से अन्यथा भला क्यों कोई जान पहचान वाले की खबर रखता कब से दिखाई नहीं देने पर । मसरूफ़ ज़माना मेरे लिए क्यों वक़्त अपना बर्बाद करे , साहिर ने कहा था , कुछ लोग उनको याद करते हैं क्योंकि उन का कारोबार ही यही है अन्यथा कोई याराना नहीं यूट्यूब पर वीडियो बनाकर साहिर की रचनाओं को नहीं खुद अपनी चाहत पूरी करते हैं कमाई भी और कहने को शायरी से गायकी से मुहब्बत भी । कभी हम भी बाज़ार में बिक पाए तो चाहने वाले ढूंढ लेंगे । लेकिन बाहर से अपने शहर में लौटने पर कुछ भी बदला नहीं था वही पुराने लोग वही तौर तरीका वही औपचरिकताएं निरर्थक महसूस होती हुई । लेकिन किसी ने पूछा बड़े दिनों बाद नज़र आये हैं तो बताना पड़ा शहर से बाहर था । उनका अगला सवाल था किस देश में गए हुए थे , मैंने बताया कि किसी और देश में नहीं अपने ही मुल्क़ में किसी अन्य राज्य में किसी शहर में , लगता उनको निराशा हुई कि अपने देश में परदेसी बन लौटना भी बात है । हमने इस विषय पर शोध किया कुछ समझदार लोगों से चर्चा की और निष्कर्ष ये निकला कि हमारे लिए अपना देश ही रहने को उचित जगह है , विस्तार से नहीं संक्षेप में समझाते हैं ।
सबसे पहले विदेश जाने को कोई सरकारी अथवा किसी संगठन संस्था का आसरा चाहिए जो हम जैसे साधरण लोगों के लिए नहीं होता है । या कोई विदेशी किसी को नाम शोहरत से प्रभावित होकर आमंत्रित कर सकता है मगर अपना ऐसा कोई डंका नहीं बजता है गुमनाम अनाम लेखक जीवन भर खुद से अनजान रहते हैं कुछ अख़बार पत्रिकाओं को नाम पता मालूम होता है सिर्फ इतना संबंध लेखक प्रकाशक का संपादक का । कई देशों की यात्रा कर चुके हास्य कवि ने समझाया कि विदेश जाना क्या होता है , दो प्रकार के देश प्रमुख होते हैं पहले अच्छे माहौल वाले शानदार देश जिन में रहना बहुत महंगा पड़ता है । सालों की जमा की हुई पूंजी सफ़ेद काली कमाई कुछ दिन में खर्च कर हासिल होती हैं कुछ खूबसूरत तस्वीरें उन देशों की शानदार सतरंगी रंगीनियों की जो कभी हमको नसीब नहीं होती ये एहसास छुपाये रहती हैं । हंसती मुस्कुराती मगर उदासी निराशा छुपी रहती है जिन में , टीस रहती है काश हम उस देश में जन्म लेते । हास्य कवि जी ने कुछ ऐसे भी देशों में जाकर देखा जिनकी बदहाली हमारे देश से बढ़कर है , थोड़ा सुकून मिला कि अपना देश अभी कुछ छोटे छोटे देशों से बेहतर है ।
हमारे देश में स्वर्ग कभी जीते जी नहीं मिलता धर्मगुरु से सरकार तक स्वर्ग बनाने के ख़्वाब दिखलाते हैं मगर नर्क बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते यही हमारा नसीबा है । बबूल ही बबूल हैं कांटेदार जिन से मीठे आम खाने की उम्मीद लगाए बैठे हैं । सुनते थे पहले लोग गांव से शहर जाते तो लोग पूछते थे शहर कैसा है , अब कोई देश में किसी राज्य में किसी शहर में जाने की बात नहीं जानना चाहता सभी समझते हैं कुछ ख़ास अंतर नहीं है । आपने भी जाकर देखा होगा कितनी जगह चेहरे नये मिलते हैं तौर तरीके वही रहते हैं । तीन महीने में कुछ अनुभव हासिल हुए हैं लेकिन कौन पूछता है किसी को ये मनोरंजक नहीं लग सकती शायद किसी दिन कुछ यादों को खुद ही ताज़ा कर दिल बहलाना अच्छा होगा ।
सच तो ये है कि हमारे देश के बड़े बड़े राजनेता अनगिनत देशों की सैर पर हज़ारों करोड़ खर्च करते हैं और विदेशी शासकों कारोबारियों से संबंध बनाते हैं लेकिन हालात बदलते ही विदेशी शासक दोस्त दुश्मनी की सीमा लांघ जाते हैं । शासकों की दोस्ती पर कभी ऐतबार मत करना कब आपको नीचा दिखाने लग जाएं कोई ख़बर नहीं । ये लोग प्रवासी पंछी की तरह होते हैं , मौसम बदलते ही उडारी मार किसी और देश को चल देते हैं ।

1 टिप्पणी:
लोगों की नज़रंदाज़ करने की प्रवृति...काम से फोन करना..आदि आदि भावों को लिए अच्छा लेख
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