आप जनाब आप हैं हम क्या हैं ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
कुछ लोग पहली कतार में बैठते हैं , उनको पिछली कतार में बैठना मंज़ूर नहीं तो कुछ मंच पर विराजमान होते हैं उनको सामने बैठना पड़ता है मगर तब जब मुख्य अध्यक्ष या कुछ बेहद विशिष्ट सम्माननीय अथिति घोषित किया जाता है । भूलता नहीं भूलना भी नहीं चाहिए इक बार मुझे खुद जिन्होंने आमंत्रित किया जो कार्यक्रम का मंच संचालन भी कर रहे थे मुझे पहली कतार की पिछली कतार में खुद बिठाया और कुछ देर बाद मंच से ही कहा था कि उस कतार में केवल पत्रकार बैठ सकते हैं आप उठ जाएं और कोई दूसरी जगह तलाश करें । अभी तक मुझे समझ नहीं आया कि मेरी जगह कहां है या शायद कहीं भी नहीं है । महफिलें आपकी , और तन्हा हैं हम , यूं न पलड़े में हल्का हमें तोलिये । खैर पुरानी बातों को भुलाना आता है उचित है कि नहीं मगर मैंने उस घटना से सबक ज़रूर सीखा लेकिन दोस्त से संबंध कायम रखा शायद उनको भी अपनी गलती का एहसास हुआ तभी अगले दिन मेरे दरवाज़े के बाहर खड़े होकर कहा था भीतर आने की इजाज़त है । मैंने हमेशा दोस्तों को फिर से गले लगाया है ये तजुर्बा कितनी बार हुआ है । करीब चालीस साल पहले किसी मशहूर लेखक प्रकाशक के घर पर मिलने चला गया था , तब कोई फोन पर आने से पहले बताना संभव ही नहीं होता था । मिलकर इक ग़ज़ल लिखी थी उनको भी भेजी थी । कुछ साल बाद मोबाइल फोन पर उनसे बात हुई शायद उनको पहली मुलाक़ात भूल गई थी , मैंने फिर उनसे जाकर मिलना उचित नहीं समझा था , कहा था कभी मुमकिन हुआ तो मिलेंगे । पहले उस हादिसे पर लिखी ग़ज़ल फिर मालूम नहीं आगे क्या कहना है ।
अपने हो कर भी हम से वो अनजान थे ( ग़ज़ल )
डॉ लोक सेतिया "तनहा"
अपने हो कर भी हम से वो अनजान थेबिन बुलाये- से हम एक मेहमान थे ।
रख दिये इक कली के मसल कर सभी
फूल बनने के उसके जो अरमान थे ।
था तआरूफ तो कुछ और ही आपका
अपना क्या हम तो सिर्फ एक इंसान थे ।
हम समझ कर गये थे उन्हें आईना
वो तो अपनी ही सूरत पे कुर्बान थे ।
ग़म ज़माने के लिखते रहे उम्र भर
खुद जो एहसास-ए-ग़म से भी अनजान थे ।
आदमी नाम हमने उन्हें दे दिया
आदमी की जो सूरत में शैतान थे ।
महफिलों से निकाला बुला कर हमें
कद्रदानों के हम पर ये एहसान थे ।
मुझे सच नहीं पता कि मेरी जगह कहां है मैं कौन हूं लिखता हूं मेरी चाहत है विवशता भी है बिना लिखे कुछ बेचैनी रहती है । कभी कुछ लोग समझते हैं कितनी किताबें छपवाई हैं कितने ईनामात सम्मान पुरुस्कार मिले हैं किस किस तरह से शोध किया है प्रयोग किये हैं साहित्य को समर्पित किया है जीवन अपना । देश में कभी विदेशों में कभी बड़े बड़े आयोजनों में कितनी यात्राएं साहित्य अकादमी की सदस्यता उनके साथ जुडी हुई लंबी सूचि है जिस तरफ मैंने कभी इक कदम भी नहीं बढ़ाया । जाने की चाहत ही नहीं बल्कि बचता हूं कभी किसी ऐसे प्रलोभन का शिकार होकर भटक नहीं जाऊं । लेकिन अचानक किसी ने अपना परिचय दिया और इक किताब जिस में सिर्फ उनकी शख़्सियत का घोषित संक्षिप्त परिचय है । मेरे लिए उनका नाम भी लेना शायद अनुमति लेनी चाहिए कभी कोई कॉपीराइट का विषय नहीं बन जाये । अभी कुछ दिन पहले किसी ने अपना इक ग्रुप बनाया ताकि प्रदेश में रहने वाले लिखने वालों की जानकारी इक पुस्तक में शामिल की जा सके । किसी ने कुछ विचार प्रकट किये तो उन्होंने बड़ी ही तल्ख़ी से जैसे उनको नहीं सभी को डांट दिया अर्थात मेरी मर्ज़ी जो चाहे करूं किसी को कुछ बोलने का अधिकार नहीं , ऐसे लोग खुद को इतना बड़ा और महान मानते हैं कि किसी से सलीके से पेश नहीं आते ।
अच्छा है मैंने कभी ऐसा होना नहीं चाहा बड़ा साहित्यकार कथाकार इत्यादि इत्यादि । सच कहूं तो कितने ही ऐसे लोग हैं जिनकी प्रकाशित पुस्तकों की संख्या बड़ी है पाठकों की शायद कम ही होगी । अधिकांश मैंने उनके लेखन में किसी मकसद का अभाव अनुभव किया है सिर्फ़ लिखने को लिखना कागद कारे करना होता है । तब अजीब लगता है जब कोई खुद ही अपने आप को कोई ऐसा विशेषण देने का कार्य करता है जानते हुए भी कि उसका वास्तविक किरदार बिल्कुल भी मेल नहीं खाता है । हमने कितने महान रचनाकारों की बातें उनकी अनुपम कृतियों को लेकर जाना है समझने का प्रयास किया है लेकिन उन में किसी ने खुद को कुछ ऐसा मानकर प्रयास किया हो मनवाने का कभी नहीं सुना किसी से बल्कि विनम्रता पूर्वक खुद को हमेशा साहित्य का उपासक या छात्र ही बतलाते रहते थे ।
पुरानी नहीं साहिर लुधियानवी की ही बात है जिन्होंने कहा ' मैं पल दो पल का शायर हूं पल दो पल मेरी कहानी है , पल दो पल मेरी हस्ती है पल दो पल मेरी जवानी है । कल और आएंगे नग्मों की खिलती कलियां चुनने वाले , मुझसे बेहतर कहने वाले तुमसे बेहतर सुनने वाले । हर नस्ल इक फ़स्ल है धरती की , आज उगती है कल कटती है । जीवन वो महंगी मदिरा है जो कतरा क़तरा बटती है । सागर से उभरी लहर हूं मैं सागर में फिर खो जाऊंगा , मिट्टी की रूह का सपना हूं मिट्टी में फिर सो जाऊंगा । कल कोई मुझको याद करे क्यूं कोई मुझको याद करे , मसरूफ़ ज़माना मेरे लिए क्यों वक़्त अपना बरबाद करे । वो भी इक पल का किस्सा थे मैं भी इक पल का किस्सा हूं , कल तुमसे जुदा हो जाऊंगा गो आज तुम्हारा हिस्सा हूं । पल दो पल में कुछ कह पाया इतनी ही सआ'दत काफ़ी है , पल दो पल तुमने मुझको सुना इतनी ही इनायत काफ़ी है ।

1 टिप्पणी:
यादों से होता हुआ....मंच से होता हुआ ...साहित्य की बात करता..आलेख
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