राजनीति की आत्मकथा ( व्यंग्य - कथा ) डॉ लोक सेतिया
ये पुरातन काल की बात है , देखा तो नहीं ऐसा भी ज़माना हुआ करता था लोग वास्तव में आदमी जैसे कार्य किया करते थे । जनता खुशहाल थी शासक कभी चैन से नहीं रहते थे उनको खुद अपनी नहीं देश राज्य और समाज की फ़िक्र सताती थी । अच्छा शासक प्रशासक होना कदम कदम इक इम्तिहान से गुज़रना होता था और कोई भी तानाशाह अत्याचारी शासक कहलाना कभी नहीं चाहता था । राजा होकर भी जनता की सेवा अपना धर्म समझते थे कोई राजधर्म पढ़ाया समझाया जाता था जिस का पालन अपना सभी कुछ न्यौछावर कर भी करना ज़रूरी जाये , प्राणों से प्रिय था अपना कर्तव्य पालन करना । ऐसा करने में कोई सुख सुविधा नहीं मिलती थी दिन रात परिश्रम करते थे मगर इक अनुभूति आत्मिक शांति मिलती थी जिसे सभी ऐशो आराम से बढ़कर समझा जाता था अनमोल रत्न की तरह । सत्ता का सिंहासन फूलों की सेज नहीं हुआ करता था सर पर ताज होना शान नहीं उत्तरदायित्व की निशानी हुआ करता था । शासक अपना उत्तराधिकारी घोषित करने से पहले विचार करते थे जिसे ये उत्तरदायित्व सौंपना है वो कितना काबिल और देश राज्य जनता के प्रति सच्ची निष्ठा रखता है । समय करवटें बदलता रहा और शासक सत्ता और ताकत में अपना विवेक खोकर अहंकारी और क्रूर बनते गए । लेकिन कोई भी अन्यायी शासक अधिक काल तक शासन नहीं कर पाया और सभी का अंत आखिर होना ही था , जो बोया वही काटना पड़ता है यही युग युग का विश्व का इतिहास रहा है ।
राजा रजवाड़े जागीरदार नहीं रहे और दुनिया में तमाम तरह के शासनतंत्र स्थापित हुए और आखिर जनता ही देश राज्य की भाग्यविधाता है ऐसा स्वीकार करना ज़रूरी हो गया । हमारे देश में जिस लोकतंत्र को अपनाया गया उस में वक़्त के साथ बदलाव होते होते लोक कहीं खो गया और सिर्फ तंत्र ही बचा है जो निरंकुश है और निर्जीव संवेदना रहित किसी मशीन की तरह काम करता है और ऐसी प्रणाली है जो उनकी सुरक्षा करती है जो मशीनी लोकतंत्र के चालक हैं और जिस जनता की भलाई की खातिर बनाया गया था उस जनता को रौंदती है कुचलती है और ऐसा कर किसी खलनायक की तरह अट्हास करती है । यही मेरी पहचान है मुझे देश की राजनीति कहते हैं । होती होगी कभी देशसेवा जनकल्याण की राजनीति अब वो कहीं नहीं है जैसे कोई करंसी नोट चलन से बाहर हो जाता है तब उसकी कीमत रद्दी की आंकी जाती है कोई ख़रीदार नहीं होता बस कुछ सिरफिरे लोग निशानी की तरह संभाल कर रख लिया करते हैं । लेकिन राजनीति में ऐसा करना किसी अपराध से कम नहीं है छुपाकर रखने पर भी जान का जोख़िम बना रहता है सत्ताधरी उसकी चिता की राख तक को रहने नहीं देते हैं ।
राजनेता क्या हैं कैसे बनते हैं और चाहे किसी भी दल की हो राजनीति कैसे की जाती है , आपको लाखों राजनेताओं की कहानी जीवनी पढ़नी ज़रूरी नहीं है ये इक राजनेता की आत्मकथा है जो वास्तव में सभी की सही तस्वीर है । फ़रेबीलाल नाम रखते हैं असली का क्या करना है फरेब उनका चरित्र है , फ़रेबीलाल को कुछ भी पसंद नहीं था पढ़ना लिखना सोचना समझना और मेहनत करना तो बिल्कुल भी नहीं भाता था । फ़रेबीलाल बचपन से लूटकर छीनकर या मांगकर खाता था उसको ये महान कार्य लगता था और खुद को बड़ा नायक समझता अपने अभिनय पर गर्व करता लोग तालियां बजाते वो इतराता था । काश इक दिन वही दुनिया का मालिक भगवान बन जाये ऐसे सपने देखता और दिखलाता था , वो कोई नई दुनिया बनाएगा सभी को ख्वाबों से बहलाता था । नसीब ने उसको क्या से क्या बना दिया बड़ा शासक बनाकर सत्ता पर बिठा दिया , ज़हर को ज़हर का ईलाज समझ जनता ने ख़ुशी ख़ुशी निगल लिया जाने कैसे हज़्म हुआ किस तरह से पचा लिया । उसका ज़हर भी मिलावटी निकला मरने को खाया मगर मौत भी नहीं आई , वो आशिक़ था या कोई खूबसूरत हसीना थी महबूबा थी जो भी था निलका हरजाई । राजनेता बनकर शैतान बन गया है जैसे कोई देवता लगता था शैतान बन गया है , जो आया था अपने घर आसरा मांग कर अब मालिक समझता खुद को ऐसा मेहमान बन गया है । कभी भी किसी को घर लाओगे राजनीती का खिलाड़ी निकला तो बहुत पछताओगे ज़िंदगी बीत जाएगी सोचते रह जाओगे , अतिथि तुम कब जाओगे ।

1 टिप्पणी:
लोग जब वास्तव में आदमी जैसे कार्य👌👍....शासक वर्ग हमेशा जनता की भलाई की सोचता था👍👌...विभिन्न शासनतंत्र की बात करता लेख
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