बात कोरोने की है फिर भी ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
ये सोचने विचारने समझने या मतलब क्या है की बात नहीं है। आपने कितनी पुरानी फिल्मों में हंसाने वाले
किरदार देखे हैं उनकी बातें हरकतें देख कर सब हंसते थे। जोकर फिल्म राजकपूर की असफल होकर भी बेमिसाल थी। ऐसे कुछ दृश्य मुझे याद आते हैं। हंसते ज़ख्म में नशे में चूर सब बस्ती वाले बारात बनकर निकलते हैं और पुलिस थाने में भी सभी इक वाक्य दोहराते हैं। तेरा धोबन से वास्ता क्या है। ख़ामोशी फिल्म में नायक पागल है और नायिका उसका ईलाज अपने डॉक्टर के आदेश पर इक अनुसंधान करते हुए उसकी महबूबा बनकर करती है। ये उपचार सफल रहता है जाने क्यों ऐसे पागलखाने बनाये नहीं गये। मगर उस फिल्म में नायक का दोस्त उसका हाल चाल देखने आता है और सभी पागल पागलपन की हरकतें कर रहे होते हैं और उसको स्वयं डॉक्टर भी पागलखाने का रोगी लगता है। थोड़ा थोड़ा पागलपन हम सभी में होता ही है तभी हम किसी की बात को बिना सोचे विचारे मानते ही नहीं औरों को भी समझाते हैं। विषय को गंभीर होने से बचाना है इसलिए कोई चिंतन की सोचने की बात नहीं करनी और बेसिर पैर की हांकनी है।घर से चले थे हम तो ख़ुशी की तलाश में , ख़ुशी की तलाश में। ग़म राह में खड़े थे वही साथ हो लिए।
खुद दिल से दिल की बात कही और रो दिए। अच्छे दिन लाने को निकले थे गले पड़ गए खराब दिन।
अब नसीब में जिसके जो लिखा था वो तेरी महफ़िल में काम आया , किसी के हिस्से में प्यास आई किसी के हिस्से में जाम आया। अब आपको इन गीतों की पैरोडी बनानी है टीवी पर एंकर आपको अपनी समस्या का यही समाधान बता रही है। गोविंदा को याद करो कृष्ण नहीं अभिनेता गोविंदा उनकी हर फिल्म हिट रहती थी जबकि उस में तार्किक कोई बात नहीं होती थी फूहड़ हास्य पर हम कहकहे लगाते हैं। अपने वास्तविक हास्य कलाकार भी देखे तो होंगे जिनकी बात गुदगुदाती भी थी मगर कोई संदेश भी छुपा रहता था। अपने चार्ल्स चैपलिन का नाम सुना होगा 1889 में 16 अप्रैल को जन्म लंदन में 25 दिसंबर 1977 को स्विट्ज़रलैंड में निधन हुआ और ऐसे ही किशोर कुमार अभिनेता निर्माता निर्देशक भारत में हुए हैं। उन्होने जब महमूद से मिलकर पड़ोसन फिल्म बनाई तो अभिनेता सुनील दत्त को हैरानी होती थी जब उनसे अजीब अजीब ऊट पटांग हरकतें करने को निर्देशक कहते थे। मगर फिल्म बेहद सफल रही और अभी तक इक लाजवाब समझी जाती है।
हमारे समाज में सफलता को मापदंड समझा जाता है और गुरु दत्त जैसे फ़िल्मकार की लाजवाब फिल्म प्यासा कागज़ के फूल लोग नहीं देखते मगर चौदवीं का चांद देखते हैं। जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहां हैं आपको हैरानी होगी देश की बदहाली को दर्शाने वाले इस गीत पर रोक लगाई गई थी मगर बाद में अदालत ने ऐसा करने को अनुचित करार दिया था। आज विषम हालात पर विचार करने और भविष्य की चिंता करने की जगह हम मिलकर ऐसे कार्य करने की बात करने वाले हैं जिनका हासिल केवल वास्तविकता से नज़र चुराना घबराकर भागना है। अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएंगे , मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएंगे। अपने भूलभुलियां के बारे में सुना होगा जिस में भीतर जाने वाले को भटकाने को व्यूह रचना की तरह रास्ते बनाये गए होते हैं जिस तरफ बाहर निकलने को जाओ घूम फिर कर किसी और दिशा में अंदर ही पहुंच जाते हैं। कोई जो दावा करता है हमको निकलने की राह समझा सकता है वास्तव में खुद कभी ऐसी उलझनों में रहा ही नहीं होता है। कल्पना से बिना विषय की गंभीरता को जाने सबको अतिविश्वास से कई उपाय सुझाता है और नासमझ उसकी कही बात को कोई छुपी हुई शक्ति या भविष्यवाणी की तरह मानकर जो बताया अमल करते हैं। जाने कितनी बार उसने कितने कार्य यही कहते हुए किये कि ऐसा करने से अमुक समस्या का नाम तक नहीं रहेगा लेकिन कोई भी समस्या हल हुई नहीं। गरीबी बेरोज़गारी से किसानों की हालत अच्छी होने की जगह और खराब हुई है। खास बात ये है कि उस ने कभी अपनी किसी योजना की नाकामी को स्वीकार नहीं किया है। अब जाने किस आधार पर अंधेरे रौशनी का नया खेल खेलने की बात कही है सभी से। उनके बताये समय पर घर की सभी रौशनियां बंद कर उनके अनुसार बताये मिंटों तक दिया टॉर्च मोमबत्ती या फोन की सर्च लाइट से उजाला करना है। हमारे देश में लोग विश्वास अंधविश्वास के बीच अधर में लटके रहते हैं और ऐसे में डरते हैं घबराते हैं कि ये नहीं किया तो जाने क्या होगा और क्या सही ढंग से नहीं हुआ तो कोई चिंता की बात नहीं होगी। नौ मिंट बाद दिया जलता रहने देना है कि बुझाना है और लोग दिया जलाकर बुझाना उचित नहीं समझते हैं। पहले अंधकार बढ़ाना घर भर की रौशनी बंद करना फिर कुछ मिंट को ये सब करना क्या कोई जादू टोटका या कोई लाल किताब का उपाय है। मगर समस्या उनकी है जो अखंड ज्योति जलाने की बात करते हैं। नहीं ये फ़िल्मी पारो और देवदास की बात नहीं है देश भर में कितनी जगह अखंड ज्योति जलती रहती है। कहीं ये केवल इक नया कीर्तिमान या इतिहास रचने की बात ही तो नहीं है क्योंकि खुद को विश्व इतिहास में महान कहलाने को बाकी कोई भी कार्य सफल हुए लगे नहीं हैं। मगर इतिहास की कथाओं में ऐसे निर्णय करने वाले शासक भी हुए हैं पहले भी।
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