झूठ सच से बड़ा हो गया ( विश्वगुरु होने का सच ) डॉ लोक सेतिया
कल शाम को इक पोस्ट लिखी थी हमारे देश के हालात को लेकर मगर फिर विचार किया उसको पढ़कर हो सकता है अभी भी जो विश्वास बचा है वो भी नहीं रहे इसलिए उसको ही नहीं और भी कुछ बातों को अपनी फेसबुक से हटवा दिया था। जाने क्यों लगा कि आज जब विश्व कठिन दौर से गुज़र रहा है और लगने लगा है अधिकांश लोग सही दिशा को जाते हुए नज़र आते हैं शायद नंगा सच दिखाने का उचित समय नहीं है। मगर रत भर इसी को लेकर चिंतन करता रहा और निर्णय किया कि सच का सामना करने का साहस होना ही चाहिए और झूठ का जितना भी शोर करें सच नहीं बन जाता है। शायद दो साल होने को हैं जब 30 जून 2018 को झूठ के देवता के मंदिर शीर्षक से व्यंग्य रचना लिखी थी। जहां गीता रामायण कुरान बाईबल से लोग सबक नहीं सीख पाए वहां मेरे या किसी के सच लिखने या झूठ का पर्दा फाश करने की कोशिश से भला क्या हो सकता है। मगर आज जब हर कोई डरा हुआ है मौत सामने खड़ी है लगता है उस समय भी हम लोग झूठ ही झूठ बोलते जा रहे हैं तो फिर सच कब बोलेंगे या समझेंगे। किसी पर आक्षेप आरोप नहीं कोई
विरोध नहीं और किसी को नीचा दिखाना नहीं चाहता बस बिना घटनाओं की चर्चा इक बोध कथा की तरह इशारे में वास्तविकता बताने का कठिन कार्य करने की कोशिश है। अपनी बहुत पुरानी ग़ज़ल से बात शुरू करता हूं।फिर वही हादिसा हो गया ,
झूठ सच से बड़ा हो गया।
अब तो मंदिर ही भगवान से ,
कद में कितना बड़ा हो गया।
कश्तियां डूबने लग गई ,
नाखुदाओ ये क्या हो गया।
सच था पूछा ,बताया उसे ,
किसलिये फिर खफ़ा हो गया।
साथ रहने की खा कर कसम ,
यार फिर से जुदा हो गया।
राज़ खुलने लगे जब कई ,
ज़ख्म फिर इक नया हो गया।
हाल अपना , बतायें किसे ,
जो हुआ , बस हुआ , हो गया।
देख हैरान "तनहा" हुआ ,
एक पत्थर खुदा हो गया।
किस किस की बात की जाए जब जिधर भी देखते हैं हर कोई झूठ को सच बनाने को लगा है। सरकार जो सच है बताती नहीं छुपाती है और जो नहीं हुआ जो किया नहीं करते हैं का दावा करती है। नज़र आता है बाहर से सब ठीक है मगर भीतर सब खोखला है कोई भरोसा नहीं कब क्या अंजाम हो। बहुत शोर मचाया पिछली सरकारों ने कुछ नहीं किया कभी ये नहीं बताया खुद आपने क्या कर दिखाया है। इक महामारी से देश क्या दुनिया परेशान है और आप आंकड़ों से बहला रहे हैं कहते हैं जो वास्तविकता नहीं है दिखाने को बहुत मगर असलियत में कुछ नहीं क्या ऐसे सामना करते हैं समस्या का। अपनी गलती का दोष किसी और को गुनहगार बनाकर बच नहीं सकते हैं। हमने सभी ने मिलकर ताली थाली बजाई दिया जलाया क्या वास्तव में जिस मकसद से करना था वो मकसद हासिल हुआ भी। जिनका आभार व्यक्त करना था फिर कितनी जगह उन्हीं से आपराधिक आचरण नहीं किया कितने लोगों ने वो किसी और देश समाज से नहीं हैं। और एकता हम साथ साथ साथ हैं का दिया जलाने वाले एकता का अर्थ भी जानते हैं। हर कोई किसी न किसी को लेकर अपने अंदर की नफरत को दर्शाता लगता है और जो सबक पढ़ाने वाले हैं खुद वही अमल नहीं करते हैं।
हम आदी हैं घर की चमक बाहरी दिखावे को और भीतर कितनी गंदगी कालीन के नीचे छिपी रहती है। ज़रा सी बात को बढ़ा चढ़ा कर खुद को महान विश्वगुरु कहने की नासमझी करते हैं अपना गुणगान करना कोई अकलमंदी की बात नहीं होती है।
इक बोधकथा है किसी नगर में इक राक्षस से सभी डरे हुए थे और किसी ने उपाय बताया कि अगर इक अंधेरी रात को नगर के हर घर का वासी बाहर जो कुंवा है उस में इक इक बाल्टी दूध डालेगा तो राक्षस का अंत हो जाएगा। मेरा मकसद अंधविश्वास को बढ़ावा देना कदापि नहीं है समझने को उद्दारहण लिया है। इक बुढ़िया ने सोचा कि मुझे दूध की कमी है अगर मैं नहीं डालती तब भी बाकी सभी डालेंगे और कुंवा भर जाएगा किसी को खबर नहीं होगी कि मैंने नहीं डाला दूध और बाल्टी भर पानी डाल आई थी। अगली सुबह सबने जाकर देखा तो कुंवे में इक बूंद भी दूध की नहीं थी पानी भरा था क्योंकि जो बात उस बुढ़िया को सूझी वही सबने किया था। हम सब लोग यही करते हैं ये समझते हैं और हैं करने को हमने नहीं किया तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। बूंद बूंद से समंदर भरता है और थोड़ा थोड़ा हर कोई बेईमानी करता है तो सब व्यर्थ जाता है।
अब बात किस किस ने नहीं किया यही , धर्म वालों ने धर्म की नहीं आडंबर की राह दिखाई और धर्म को इक कारोबार बनाकर वास्तव में धर्म का अंत ही कर दिया। सामाजिक संस्थाओं ने कब से समाज सेवा को इक सीढ़ी बना लिया अपने अपने मकसद की खातिर। राजनेताओं और सरकारों ने जनता की सेवा के नाम पर खुद अपने आप पर बेतहाशा धन आंबटित किया बर्बाद किया ऐशो आराम पर खर्च करने का गुनाह किया है। न्यायपालिका से सवैंधानिक संस्थाओं तक ने निजि स्वार्थ और अपने लोभ लालच या डरकर कर्तव्य को भुलाने का कार्य किया है। बड़े बड़े पद मिलने पर अधिकारी देश समाज को बेहतर बनाने की बात भूलकर धन दौलत और नाम शोहरत की दौड़ में शामिल होते रहे तभी ऐसा हुआ जिनको आदर सम्मान तमगे मिले बाद में उन्हीं को अनुचित आपराधिक कार्य करते पाया गया। देश की संसद राज्यों की विधानसभाएं जैसे अपराधी और बाहुबली गुंडागर्दी करने वालों का अड्डा बन गईं हैं। किसी भी राजनैतिक दल को चुनाव जीतने की खातिर अपराध को बढ़ावा देते कोई संकोच नहीं हुआ। अंजाम हर देश उस मोड़ पर है जहां कोई राह नहीं सूझती है।
सत्यमेव जयते का वाक्य लिखा हुआ है मगर सत्य का पक्ष कोई नहीं लेता है हर कोई दरबारी बनकर झूठ का साथी बन बहुत कुछ पाना चाहता है कोई देश समाज को देना कुछ भी नहीं चाहता है। टीवी मीडिया अख़बार लिखने वाले कलम के सिपाही कला संगीत के उपासक समाज की वास्तविकता को उजागर करने का फ़र्ज़ भूलकर धन वैभव तमगे या किसी तरह से अपनी शोहरत को भुनाकर सांसद बनने या कोई एनजीओ बनाकर अपने मकसद पूरे करते हैं। झूठ को सच साबित करते हैं झूठ का गुणगान करते हैं बिकते हैं या चाटुकार बन जाते हैं। सच का झंडाबरदार होने का दम भरने वाले सच को कत्ल करते हैं। तीस साल पुरानी इक ग़ज़ल फिर से याद आती है।
इक आईना उनको भी हम दे आये,
हम लोगों की जो तस्वीर बनाते हैं।
बदकिस्मत होते हैं हकीकत में वो लोग,
कहते हैं जो हम तकदीर बनाते हैं।
सबसे बड़े मुफलिस होते हैं लोग वही,
ईमान बेच कर जो जागीर बनाते हैं।
देख तो लेते हैं लेकिन अंधों की तरह,
इक तिनके को वो शमशीर बनाते हैं।
कातिल भी हो जाये बरी , वो इस खातिर,
बढ़कर एक से एक नजीर बनाते हैं।
मुफ्त हुए बदनाम वो कैसो लैला भी,
रांझे फिर हर मोड़ पे हीर बनाते हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें