कौन भले कौन मंदे ( अफ़साना ए कुदरत ) डॉ लोक सेतिया
आपने जाने किस किस को खुदा भगवान मसीहा समझा हुआ था घोषित किया हुआ था। और जाने किस किस को अपनी ताकत दौलत शोहरत और किस किस का अहंकार है या रहा है। आज इक अनाम या बदनाम शब्द ने सबको अपने सामने बौना ही नहीं साबित कर दिया बल्कि सोचने को विवश कर दिया है कि मौत के सामने किसी की नहीं चलती है और जब मौत का डर सताता है तो कुछ भी और याद नहीं रहता है। दुनिया बनाने वाले ने किसी को बड़ा छोटा अच्छा बुरा नहीं बनाया था हमने ही कितनी तरह से इंसान को इंसान से और इंसानियत से अलग करने का अपराध किया है। हम भूल गए थे मौत से डरना चाहिए और ये भी कि सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है। मैली चादर ओढ़ के कैसे द्वार तुम्हारे आऊं। अपने अपने स्वार्थ में अंधे होकर हर किसी ने केवल खुदगर्ज़ी की सोच रखकर अपने लिए इतना जमा कर लिया कि बाकी के लिए छोड़ा नहीं कुछ भी। आपके ऊंचे ऊंचे महल और कितने ही साधन धन दौलत किसी काम के नहीं हैं जब कोई इक ऐसा शब्द आपके सामने खड़ा हो।
भारत में ही बताते हैं कि सौ लोगों के पास जितना है उसका दस बीस फीसदी बाकी करोड़ों को मिला है क्या ये अनुचित और अपराध नहीं है। चाहे किसी ने मंदिर मस्जिद गिरजाघर गुरूद्वारे के नाम पर या उपदेशक बनकर शहर शहर गांव गांव अपने डेरे अपने आलीशान बड़े बड़े भवन बना रखे हैं और उनकी कोई सीमा नहीं है और अधिक की चाह की या कोई उद्योगपति या कारोबारी या इधर तो समाज सुधारक से योग सिखाने से स्कूल कॉलेज में शिक्षा का व्यौपार करने या बड़े बड़े अस्पतालों में उपचार के नाम पर अधिक से अधिक धन संचय करने वाले लोग एवं राजनीति और सरकारी विभाग के अधिकारी से कलाजगत से टीवी अख़बार के लोग ये सभी अपने वास्तविक धर्म कर्म को छोड़ केवल इक अंधी दौड़ में शामिल हैं। और बड़ा और ऊंचा और अमीर और ताकतवर बन जाने के पागलपन में ये जानते हुए भी आखिर इंसान को दो ग़ज़ ज़मीन ही चाहिए या शायद वो भी नहीं बस राख बनकर बिखर जाना है। अर्थशास्त्र का सिद्धांत है कि किसी के अधिक तभी होता है जब किसी को कम मिलता है और अमीर बनने का तरीका किसी को गरीब बनाकर हासिल होता है। जब सबको अपनी काबलियत महनत का सही मूल्य मिले तब अमीर और अमीर गरीब और गरीब नहीं हो सकते हैं।
भारत में ही बताते हैं कि सौ लोगों के पास जितना है उसका दस बीस फीसदी बाकी करोड़ों को मिला है क्या ये अनुचित और अपराध नहीं है। चाहे किसी ने मंदिर मस्जिद गिरजाघर गुरूद्वारे के नाम पर या उपदेशक बनकर शहर शहर गांव गांव अपने डेरे अपने आलीशान बड़े बड़े भवन बना रखे हैं और उनकी कोई सीमा नहीं है और अधिक की चाह की या कोई उद्योगपति या कारोबारी या इधर तो समाज सुधारक से योग सिखाने से स्कूल कॉलेज में शिक्षा का व्यौपार करने या बड़े बड़े अस्पतालों में उपचार के नाम पर अधिक से अधिक धन संचय करने वाले लोग एवं राजनीति और सरकारी विभाग के अधिकारी से कलाजगत से टीवी अख़बार के लोग ये सभी अपने वास्तविक धर्म कर्म को छोड़ केवल इक अंधी दौड़ में शामिल हैं। और बड़ा और ऊंचा और अमीर और ताकतवर बन जाने के पागलपन में ये जानते हुए भी आखिर इंसान को दो ग़ज़ ज़मीन ही चाहिए या शायद वो भी नहीं बस राख बनकर बिखर जाना है। अर्थशास्त्र का सिद्धांत है कि किसी के अधिक तभी होता है जब किसी को कम मिलता है और अमीर बनने का तरीका किसी को गरीब बनाकर हासिल होता है। जब सबको अपनी काबलियत महनत का सही मूल्य मिले तब अमीर और अमीर गरीब और गरीब नहीं हो सकते हैं।
कभी आपने सोचा है हमने क्या किया है धरती को कुदरत को सुरक्षित नहीं रख सके बल्कि उसका अस्तित्व खतरे में डालते रहे हैं अपनी ज़रूरत और चाहत पूरी करने को। बड़े बड़े विनाशकारी हथियार बनाते रहे मगर बातें विश्व कल्याण की करने का आडंबर करते रहे। हर कोई आदमी से देश तक अपने से कमज़ोर को मिटाने की कोशिश करता रहा सबसे बड़ा ताकतवर होने को। चांद को छूना कितना ज़रूरी है क्या चांद पर जाओगे आज भागकर मौत से घबराकर। मौत इक हक़ीक़त है आनी ही है ये जानते हैं मगर फिर भी समझते रहे जैसे करोड़ों साल जीना है इतना सामान इकट्ठा किया है कुछ मुट्ठी भर लोगों ने क्या आज अपना सब कुछ दे कर इक पल भी जीवन खरीद सकते हैं। आज वैज्ञानिक करोड़ों रूपये खर्च कर गार्ड पार्टिकल की खोज कर समझते हैं हम शायद कोई अपनी दुनिया बना सकते हैं। नानक जी ने ये बात कितनी आसानी से समझाई थी कुछ शब्दों में।
अव्वल अल्लाह नूर उपाया , कुदरत दे सब बंदे।
एक नूर ते सब जग उपजेआ कौन भले कौन मंदे।
धर्म की महनत की कमाई मिलकर बांटकर खाना सबकी भलाई का सबक देकर आदमी को अंधविश्वास और भरमजाल से जागरूक करने का कार्य किया। ईश्वर को मानते थे सर्वेश्वरवादी थे रूढ़ियों कुसंस्कारों का विरोध किया और ईश्वर का साक्षात्कार बाह्य साधनों से नहीं वरन आंतरिक साधना से संभव है ये कहा। उनके दर्शन में वैराग्य तो है साथ ही तत्कालीन राजनीतिक धार्मिक और सामाजिक दशाओं पर भी नज़र डाली। संत साहित्य में शायद वही अकेले हैं जिन्होंने उस युग में भी नारी को बड़प्पन दिया है। हिंदू मुस्लिम या अन्य सभी को उपासना की अच्छे मार्ग पर चलने की बात की है। यहां सिख धर्म की बात नहीं है मगर ऐसे सभी साधु संतों की बात है जो समानता और आपसी मेल मिलाप की सीख देते रहे हैं।
पिछले कई सालों से नफरत की फसल बोने का काम करते रहे हैं लोग लोकलाज छोड़ किसी व्यक्ति को बदनाम करते रहे झूठ सच की मिलावट से। गांधी को आपने भी अपनाया कब उपयोग किया है समाधि पर फूल चढ़ाने से गांधीवादी नहीं हो जाते बल्कि गांधी को जाने कितनों ने मरने के बाद भी उनकी आत्मा को घायल किया है। अंतिम व्यक्ति की आंख का आंसू पौछना छोड़ आपने अपने बाणों से हर किसी को रुलाया भी और करोड़ों की मुश्किल बढ़ाई पर अपनी भूल नहीं स्वीकार की। ये किस धर्म की शिक्षा है कि जिस देश में करोड़ों लोग बेघर हैं भूखे हैं उनको जीने की बुनियादी ज़रूरत की चीज़ें नहीं मिलती सरकार या सत्ताधारी लोग अथवा धनवान अपने पैसे को आडंबर करने अपने ऐशो आराम करने ही नहीं उन लोगों की समाधियां और मूर्तियां बुत बनाने पर देश का धन सम्पदा बर्बाद करने का पाप करें। ऐसा करके उनको जीवित नहीं बार बार मरते हैं। अपने से पहले हुए राजनेताओं की गलतियां बुराईयां आपको दिखाई देती हैं मगर ये नहीं नज़र आया उनका योगदान भी रहा है देश समाज को बनाने में। औरों को छोटा साबित करने को आपने नफरत का ज़हर हर तरफ फैलने दिया या फैलाया है। नानक कबीर को छोड़ो आपने तो जेपी जैसे व्यक्ति या विनोबा भावे जैसे संत की भी विचारधारा को नहीं समझा है। मंदिर मस्जिद के झगड़े किसी देश समाज की भलाई नहीं कर सकते हैं आपसी बैर भेदभाव को बढ़ाना देशभक्ति कदापि नहीं है।
सत्ता पाने की खातिर कितना धन खर्च किया क्या क्या हथकंडे नहीं अपनाये और सत्ता का गलत उपयोग कर ही आपके दल को कोई नहीं जानता किस किस ढंग से इतना पैसा मिला कि दुनिया का सबसे अमीर राजनैतिक दल आपके दल को समझने लगे हैं। जिनको लगता है यही सब होना ताकतवर होना है उनको पिछले इतिहास को पढ़ना समझना होगा। भारतवर्ष की परंपरा उनको आदर्श मानने की रही है जिन्होंने अपना सब कुछ जनकल्याण पर खर्च किया न कि जिन्होंने अपने नाम अपनी आकांक्षाओं पर देश का धन बर्बाद किया। जिनको आपने खराब समझा समझाया और साबित करने की कोशिश की उन्होंने भी अपने आप पर बेतहाशा धन खर्च नहीं किया होगा। लोग औरों की की गलतियों से सबक लेते हैं उनको दोहराते नहीं तभी समझदार कहलाते हैं अन्यथा जो आज ज़िंदा नहीं उनकी आलोचना कर उनका क्या बिगाड़ लेंगे खुद को ही इक ऐसा व्यक्ति साबित कर सकते हैं जो ऊंचा होकर भी किसी को साया नहीं देता न ही उसके फल किसी को मिलते हैं। खजूर की तरह ऊंचे पेड़ जैसी मूर्तियां बनाना व्यर्थ है ये मिसाल जानते हैं। अच्छी अच्छी चिकनी चुपड़ी बातें करने से क्या हासिल जब भी कोई निष्पक्ष होकर विवेचना करेगा तो न केवल आपके गलत निर्णय की बात होगी बल्कि आपने जिन जिन संस्थाओं को अपने मतलब की खातिर नुकसान पहुंचाया उसकी भी चर्चा अवश्य की जाएगी।
आपके सामने उद्दाहरण है जब विपत्ति आई तो अमेरिका को उसके हथियार या लड़ाकू विमान नहीं काम आये और भारत से इक दवा की मांग करनी पड़ी। किसी भी अहंकारी का अहंकार हमेशा कायम नहीं रहता है। कहते हैं फलदार पेड़ झुकता है और इतना ही नहीं फलदार पेड़ को कोई पत्थर भी मारता है तो बदले में फल देता है। जिन जिनको भी कुदरत ने समय ने नसीब ने ये सब दिया है उनको कुदरत या ऊपर वाले का उपकार समझ इसका उपयोग औरों की भलाई को करना चाहिए। इतना सबक नहीं सीखा पढ़ा तो धर्म को नहीं जाना है इन लोगों ने मंदिर मस्जिद जाकर बेकार समय और साधन उपयोग किये हैं। मुझे फिर से कवि गंगभाट और रहीम जी की चर्चा याद आई है आखिर में उसकी बात करते हैं।
रहीम इक रियासत के नवाब थे जो अपने पास आने वाले लोगों की सहयता किया करते थे। इक दिन उनकी सभा में कवि गंगभाट ने देख कर उनसे इक दोहा पढ़कर सवाल किया :-
सीखियो कहां नवाब जू ऐसी देनी दैन , ज्यों ज्यों कर ऊंचों करें त्यों त्यों नीचो नैन।
अर्थात नवाब जी आपका ये क्या ढंग है कि जैसे ही किसी को कुछ देते हैं आपका हाथ आगे बढ़ता है ऊपर जाता है मगर तब आपकी आंखें झुकी हुए रहती हैं। रहीम ने उनको जवाब दिया था :-
देनहार कोऊ और है देत रहत दिन रैन , लोग भरम मोपे करें या ते नीचे नैन।
अर्थात देने वाला तो कोई और है जो रात दिन देता रहता है मगर लोग समझते हैं मैं दे रहा हूं यही सोचकर मुझे एहसास होता है और मेरी नज़र झुक जाती है।
अब जो भी राजनेता सरकार कुछ भी समाज पर खर्च करती है वास्तव में उनकी अपनी कमाई नहीं है देश की जनता का ही धन जनता को देना उपकार नहीं है बल्कि शायद इक अपराध ही है जिस देश में करोड़ों लोग गरीब बदहाल हैं उसके शासक खुद शानो शौकत पर अपने खुद पर इतना धन व्यर्थ खर्च करते हैं।
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