अप्रैल 24, 2020

मौत का नहीं ऊपरवाले का डर ( चिंतन - मनन ) डॉ लोक सेतिया

  मौत का नहीं ऊपरवाले का डर ( चिंतन - मनन ) डॉ लोक सेतिया 

     लगता है अभी भी समझने की बात नहीं समझे हम दुनिया भर के लोग। घबराते हैं कहीं इस तरह से मौत से सामना नहीं हो जाए। जैसे कोरोना से बच गए तो मौत से सुरक्षित हो जाएंगे। सोचना चाहिए तो ये था कि इक दिन मौत से मुलाकात होनी है लेकिन जीवन को इस तरह जिया जाए कि मौत को देख कर शान से सर उठाकर जैसे जीते हैं मरने को भी तैयार हो जाते। सब जानते हैं मरना आखिर है ज़िंदगी का अंतिम पड़ाव मौत ही है कब कैसे अगल बात है। ये मौत का डर रहेगा हमेशा बेशक हम नासमझी में गफ़लत में रहें कि हमने जाने क्या क्या मनसूबे बना रखे हैं सौ साल की भी सीमा नहीं है अभी भी चाहत बाकी अधूरी ही होती है कि ये करना पाना शेष था। जाने कितना जीने का सामान जमा करते हैं जीने को अभी भी समझे नहीं कि क्या चाहिए। बस दो वक़्त खाना दो जोड़ी कपड़े और इक जगह सर छुपाने को जहां जीते जी चैन की नींद आ जाए। मरना होगा मर जाएंगे जीना है जब तक आदमी आदमी बनकर जी तो ले। मगर हम जीते भी हैं तो ज़िंदगी के बिना क्योंकि ज़िंदगी उसको कहते हैं जो किसी अच्छे मकसद से बिताई जाए। सच तो ये है कि आधुनकिता की दौड़ और सब कुछ हासिल करने की चाहत ने हमसे जीने का सुख और सलीका छीन लिया है। वास्तव में हम जीते नहीं हैं जीने का अभिनय करते हैं क्योंकि कथा कहानिओं में ही नहीं संगीत और तमाम तरह की बातों में संदेश कुछ और मिलता रहा है जिसको हमने समझ कर भी समझना नहीं चाहा कभी भी। 

अपने लिए जिए तो क्या जिए तू जी ए दिल ज़माने के लिए। जिओ तो ऐसे कि जैसे सब तुम्हारा है मरो तो ऐसे कि जैसा तुम्हारा कुछ भी नहीं। किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार जीना इसी का नाम है। जीना यही पल है इसी को ऐसे जीओ कि मौत आए तो मलाल नहीं हो कि अभी जिए भी नहीं। स्वर्ग नर्क मोक्ष की चिंता व्यर्थ की बात है चाहे ज़िंदगी थोड़ी हो या ज़्यादा जितनी है उसका इक इक लम्हा ऐसे बिताओ कि खुद को लगे बेकार साल दिन की गिनती नहीं बढ़ाई जीने का कोई मकसद रहा है दुनिया को और भी अच्छा और खूबसूरत बनाने का काम किया है। पर हमने तो मतलब की खातिर अंधे होकर पैसे को कभी नाम को कभी शोहरत को अपने जीने का उदेश्य समझ कर दुनिया को अपने स्वार्थ में और भी दिन पर दिन बर्बाद करने का ही काम किया है। कुदरत ने दुनिया केवल हमारे लिए नहीं बनाई थी सभी के लिए सब कुछ है यहां मगर हर किसी ने अपने लिए ज़रूरत से बढ़कर हासिल करने को कोई रास्ता नहीं छोड़ा अच्छा बुरा कोई भी। भौतिकता की हवस की बड़ी महंगी कीमत चुकाई है हमने अपने बाद आने वाली पीढ़ी को ऐसी विरासत देकर जाना चाहते हैं जिस में जीवन हर क्षण मौत से भी बदतर लगने लगे। अपने पिता बाप दादा की ज़मीन जायदाद धन दौलत को तो बढ़ाने को सब किया मगर जिस किसी ने दुनिया बनाई उस कुदरत को हमने कभी संवारा नहीं बल्कि उसको बर्बाद किया है। हवा पानी ही नहीं समाज में भी ज़हर घोलते रहे हैं हम नफरत ईर्ष्या और मतलब में अंधे होकर अपने पास इतना अधिक जमा किया जो कभी उपयोग नहीं करना है। और इस तरह औरों के लिए कुछ भी छोड़ना नहीं चाहते हैं। आज देख रहे हैं कितने हैं जिनको दो समय रोटी भी नसीब नहीं होती है कभी सोचा है हम कितने खुशनसीब हैं जिनके पास जीने को सभी कुछ है। फिर भी हमारी अधिक पाने की लालसा का कोई अंत नहीं है। 

आपको जो भी जैसे भी मिला अपने उसका सही उपयोग किया है या नहीं। सत्ता मिली शासक बने तो बनकर किया क्या देश समाज को जितना मिला उससे अधिक वापस लौटाया क्या नहीं किया तो अर्थ है आप ने कर्तव्य नहीं निभाया है। पढ़ लिख कर जो भी पद मिले उसको समाज और देश की भलाई के काम और ईमानदारी से महनत की कमाई खाने की बात भूलकर जमकर लूट खसौट की ऐश आराम की खातिर। जनता के सेवक बनकर जनता से कैसा व्यवहार किया आपने कभी शर्म नहीं आई जिन से सब मिलता है उन्हीं को अपमानित करते खुद को बड़ा समझते रहे। मालिक देश की जनता है हर नागरिक है जिनको सरकारी अधिकारी कर्मचारी इंसान भी नहीं समझते हैं। ये कोई ऊंचाई नहीं बड़ा होना नहीं है फलदार पेड़ झुकते हैं इतना तो आपको भी मालूम है। कभी ये समाज इक मिसाल होता था मिलकर साथ जितना है थोड़े में भी बांटकर ख़ुशी मिलती थी जैसे जैसे हमारी सोच बदलती गई हम न केवल मतलबी और संवेदनारहित बनते गए बल्कि हमने अपने इंसान होने की बात को ही त्याग दिया और हम आदमी से भेड़िये ही नहीं गिद्ध तक बन गए हैं। विकास के नाम पर विनाश का सामान जमा करते रहे हैं और किसी ज्वालामुखी के ऊपर बैठे हुए अपने अंजाम की राह देख रहे हैं। 

आज सोचो क्या हमको केवल सज़ा का डर हो तभी सही मार्ग चलना है। नियम कानून बदलते रहते हैं मगर अच्छाई क्या है बुराई क्या है हर कोई जानता है ऊपरवाले से या मौत के डर से नहीं खुद अपने विवेक से अपने भीतर की अंतरात्मा की आवाज़ को सुनकर सही और सभी के कल्याण के मार्ग पर नहीं चल सकते क्योंकि वास्तविक जीना यही होगा। छल कपट और दिखावा आडंबर झूठ के साथ अपने ज़मीर को मारकर जिए भी तो किसी निर्जीव पत्थर के बुत की तरह और बुत ज़िंदा लोगों के कभी नहीं बनते मुर्दा लोगों के ही बनवाते हैं। ये किसी एक वर्ग की बात नहीं है राजनेता अधिकारी या कारोबार करने वाले ही नहीं अन्य भी जो भी शिक्षक हैं डॉक्टर हैं या कोई भी काम खेल अभिनय से लेकर धर्म की बात करते हैं सभी को इस बात को समझना होगा कि उनको समाज से देश से जितना मिलता है उस से बढ़कर लौटते हैं तो वास्तविक योगदान करते हैं अन्यथा इक क़र्ज़ है उनपर अपने कर्तव्य को निभाने का इंसानियत का जिसे चुकाना ठीक उसी तरह ज़रूरी है जैसे दूध का क़र्ज़ जन्म देने वाली मां का नहीं चुकाया तो किसी स्वर्ग जन्नत में कोई स्थान नहीं मिलता मानते हैं। जिस भी धरती पर रहते हैं हवा में सांस लेते हैं जिस से जीवन पाते हैं उस माटी का क़र्ज़ सबसे पहले चुकाना ज़रूरी है। कोई ऊपरवाला देख रहा है या नहीं देख रहा इक है जो आपकी आत्मा है आपका ज़मीर है जिससे कुछ भी छिपा नहीं है। खुद अपने आप से नज़र मिला सकते हैं ये सोचना अवश्य।

           कोई माने या नहीं माने अधिकांश लोग ऐसे ही हैं आजकल दिखावे को अच्छे कर्म करने वाले भी कल तक कोई अवसर नहीं छोड़ते थे किसी से रिश्वत लेने या मनचाही कीमत ऊंचे दाम वसूलने से किसी भी ढंग से अपनी तिजोरी भरने के लिए। अब समय है जिनके पास कुछ भी नहीं है और इसका कारण है कि कुछ लोग हैं जिनके पास अंबार लगे हैं उन्हें ऐसे वंचित लोगों को कोई दान समझ कर नहीं उनका अधिकार है इस दुनिया पर बराबर का ये मानते हुए बांटना चाहिए। साथ नहीं जाना कुछ भी किसी ने लेकर। और ये कोई धर्म नहीं भूल सुधार है करना खुद अपने कल्याण के लिए भी अच्छा है।


कोई टिप्पणी नहीं: