मई 26, 2020

ज़िंदगी को फ़नाह कर बैठे ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

    ज़िंदगी को फ़नाह कर बैठे  ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

     कैसे नादान लोग हैं ज़िंदगी से मौत का खेल खेलते हैं। मौत का कारोबार करते हैं मौत का सामान बना रखा है और उसी पर घमंड करते हैं इतराते हैं धमकाते हैं मौत का बाज़ार सजाते हैं। जंग का साज़ो-सामान जंगी जहाज़ हथियार बेच कर अर्थव्यस्था को मज़बूत बनाते हैं। ऐसे समझदार औरों के घर आग लगाते हैं और दूर से खड़े देखते हैं मंद मंद मुस्कुराते हैं। धंधे की भाषा समझते हैं मुनाफ़े वाली दोस्ती बनाते हैं जब तक फ़ायदा नज़र आये दोस्ती निभाते हैं मतलब निकलते ही पतली गली से निकल जाते हैं। उल्लू बनाते हैं कभी हाथ मिलाते हैं कभी हाथ मरोड़ जाते हैं। मौत का व्यौपार करने वाले दो चार नहीं हैं असंख्य लोग हैं जो सस्ते दाम मौत बेचते हैं ज़िंदगी नाम देकर। मौत का कारोबार करने वाले इंसानियत मानवाधिकार और बीच बचाव बिचौलिया का उपयोग कर मसीहाई भी करते हैं। तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना की तरह मगर क़ातिल भी खुद गवाही भी खुद और फैसला भी खुद करने वाले जब न्याय करने का काम करते हैं तो कमाल करते हैं। उनका इंसाफ यही होता है कि जिसका क़त्ल हुआ वही खुद अपना क़ातिल भी था। किनारे पर खड़े होकर डूबती हुई कश्तियों का तमाशा देखने वाले भी कभी मझधार में फंसते हैं तो नाखुदा को ही ख़ुदा कहते हैं।

    मौत का खेल सर्कस में भी दिखाया जाता था इक कुंवे में मोटरसाईकिल चलाने का नज़ारा लोग देखने को दिल थाम कर बैठते थे। मौत का सामान बेचने वालों में भी मुकाबला होता रहता है बस यही झगड़ा है। कहते हैं कि मुहब्बत और जंग में कुछ भी अनुचित नहीं होता है लेकिन अब मगरमच्छ आंसू बहा रहा है ये नो बॉल है जिस पर उसको बाहर होना पड़ा है। सभी खिलाड़ी जिसे नो बॉल साबित करने लगे हैं उस बॉल को किसने किधर डाला अभी रहस्य बना हुआ है ये बाउंसर है सर से ऊपर थी। कौन रोता है किसी और की खातिर ए दोस्त , सबको अपनी ही किसी बात  को-रोना-आया। अब आंसू कौन पौंछे सभी का अपना अपना कोई न कोई रोना है। कोई अंपायर नहीं जिसे सभी सरपंच समझते हों जिसका निर्णय अंतिम समझा जाये हर कोई किसी न किसी की तरफ का हो चुका है। ऊपरवाला कब से दुनिया को उसके हाल पर छोड़ चुका है , जैसे कोई पिता अपनी संतान से तंग आकर घोषणा कर देता है ये जो भी करेगा इसकी ज़िम्मेदारी होगी मेरा इस से कोई मतलब नहीं है ये औलाद मेरे कहने से बाहर है। जब लोग बाप बदलने लगे बाप को गधा गधे को बाप बनाने बताने लगे तो वो क्या करता। अब नहीं सुनता हमारी चीख पुकार उसे समझ आ गया है ये लोग मतलबी हैं मतलब निकलते बदल जाएंगे।

           कैक्टस आंगन में लगाने लगे थे जाने क्यों कांटे दिल लुभाने लगे थे। मिले न फूल तो कांटों से दोस्ती कर ली गीत गाने लगे थे फूलों से दामन बचाने लगे थे। फूल बाज़ार में बिकने लगे थे कलियों को भी मसलने के दिन आने लगे थे। कोई शायर कहने लगा था , " ज़िंदगी की तल्खियां अब कौन सी मंज़िल पे हैं , इस से अंदाज़ा लगा लो ज़हर महंगा हो गया। " ज़हर के दाम बढ़ने लगे तो लोग ज़हर का कारोबार करने लगे फिर इक दिन ये भी हुआ कि शायर हैरान होकर कहने लगा , " ज़िंदगी अब बता कहां जाएं , ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं।    " शायर कृष्ण बिहारी नूर नहीं जानते थे जो राहत इंदौरी कब के कह चुके थे। " मौत का ज़हर है फ़िज़ाओं में , अब कहां जा के सांस ली जाये। दोस्ती जब किसी से की जाये , दुश्मनों की भी राय ली जाये। " कुछ नासमझ लोग कवि शायर ज़िंदगी और दर्द की किताब लिए फिरते रहे लेकिन कोई ज़िंदगी का ख़रीदार नहीं मिला ज़िंदगी से सभी लोग दूर भागते रहे और मौत इतनी खूबसूरत लगती थी कि सभी उसी से रिश्ते निभाते रहे। मौत की कविता सबको पसंद आई हंसते मुस्कुराते गुनगुनाते रहे। मौत बेचते रहे मौत को घर बुलाते रहे ज़िंदगी से नज़रें चुराते रहे। सच कड़वा लगा नहीं अच्छा समझा झूठ का ज़हर पीते पिलाते रहे , झूठ को खुदा तक बनाते रहे।

 इक ऐसी आंधी चली सब ऊंचे ऊंचे पेड़ों के जंगल तिनकों की तरह उड़ने लगे। बचाओ बचाओ का हाहाकार चहुंओर सुनाई देने लगा है। आग ही आग धुंवा ही धुंवा दुनिया के आकाश पर मौत के बदल मंडरा रहे हैं। सभी अपने अपने निशाने साधने लगे हैं खुद को पीड़ित साबित करने और किसी को मुजरिम ठहराने लगे हैं। आजकल लोग चांद पर बस्ती बनाने लगे हैं सितारों का जहां बसाने के सपने दिखाने लगे हैं। खण्हर हो चुकी हैं विरासत की इमारतें उन्हें मिट्टी में मिलाने लगे हैं उनको पुरानी बुनियाद लगती बेकार है बिना बुनियाद के महल बनाने लगे हैं दरो - दीवार थरथराने लगे हैं। ज़मीं को छोड़ कर आसमान पर आशियाने सजाने लगे हैं हवा में बड़ी बड़ी बातें बनाने लगे हैं। बुलेट से तेज़ रेलगाड़ी लाने लगे हैं क्या क्या सपने दिखाने लगे हैं। अच्छे दिन के मतलब अब समझ आने लगे हैं। शायद भूल से या भुलावा देने को उल्टा कहा था , अच्छे दिन आने वाले हैं , कहना चाहिए था अच्छे दिन जाने वाले हैं। हर कोई आजकल कहता है वो कितने अच्छे दिन थे काश फिर से वापस आ जाएं। कोई लौटा से मेरे बीते हुए दिन , बीते हुए दिन वो मेरे प्यारे पल छिन्न। गुज़रा हुआ ज़माना आता नहीं दोबारा , हाफ़िज़ खुदा तुम्हारा। मगर अब खुदा हाफ़िज़ शब्द भी काम नहीं आता खुदा को खुदा नहीं समझा किस किस को खुदा बना डाला है। आखिर में इक पुरानी भूली हुई ग़ज़ल का मतला याद आया है।

        ज़िंदगी को फ़नाह कर बैठे  , हम ये कैसा गुनाह कर बैठे।

देख तेरे इंसान की हालत क्या हो गई भगवान , 
कितना बदल गया इंसान कितना बदल गया इंसान। 


                                   अब भी बात नहीं समझ आई।

कोई टिप्पणी नहीं: