नसीब में जो नहीं ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
नहीं मिला बस कोई इक शख़्स
जो चाहता समझना मुझे भी ।
खुशनसीब होते हैं दुनिया में वो
जिनकी बात अच्छी लगती है ।
मेरे नसीब में नहीं रहा कोई भी
सुनता समझता कोई बात मेरी ।
खुद कहना भी अपनी बात को
खुद समझना भी अपनी बात ।
बदनसीबी नहीं तो क्या है भला
बस यही चाहा यही नहीं मिला ।
इक सन्नाटा कोई आवाज़ नहीं
जाने ये कैसी है ज़िंदगी मेरी ।
इतनी लंबी ख़ामोशी जैसे कोई
सदियों से भटकता रहे वीराने में ।
न कोई आहट न कोई चाहत ही
इक मकसद बेमकसद सा है जैसे ।
सबका नसीब अपने जैसा न हो
कुछ नहीं लिखा इस किताब में ।
1 टिप्पणी:
बहुत खूब👌👍
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