अक्टूबर 12, 2025

POST : 2028 ग़ुलामी को बरकत समझने लगे ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया

    ग़ुलामी को बरकत समझने लगे ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया  

आज़ाद होकर भी मानसिकता ग़ुलामी की ही है , हम सभी अभी भी किसी न किसी को अपना आक़ा बना कर उसकी वंदना उसका गुणगान करने में सुखद अनुभूति का आभास करते हैं । खुद को बराबर नहीं जाने किस किस से कमतर समझते हैं । ग़ज़ब तमाशा हर जगह दिखाई देता है कुछ लोग ऊंचे सिंघासन पर अथवा किसी मंच पर आसीन होते हैं अधिकांश निचले पायदान पर उनका अभिनंदन करते है खड़े होकर तालियां बजाते हैं । बहुधा ऐसे बड़े लोगों को हमने ही बनाया होता है बल्कि उनका पालन पोषण सुख सुविधाएं सब हमारे दम पर कायम होता है । खुद अपने ही बनाये भगवानों से हम लोग डरते हैं सच बोलने से घबराते हैं झूठ की उपासना करते हैं ।  आधुनिक युग साहित्य कला संस्कृति जैसे अंधकार मिटाकर रौशनी दिखाने वाले शिखर सतंभ से विहीन कृत्रिम चमक दमक का काल है । सही मायने में उच्च कोटि का लेखन पढ़ने को नहीं मिलता है क्योंकि लिखा भी नहीं जा रहा और प्रकाशित भी नहीं हो रहा है । साहित्य को कितने खांचों में बांटकर जैसे परिभाषित किया जाने लगा है उस से साहित्य सृजन अपने मार्ग से भटक कर कोई आसान राह ढूंढने लगा है बिना विचारे कि मंज़िल क्या है । कहने को सामने अनगिनत लिखने वाले हैं कितने तो ऐसे हैं जिनकी घोषित सैंकड़ों पुस्तकें प्रकाशित हैं लेकिन तब भी ऐसे तमाम लोग कहते हैं और समझते हैं कि उनको वास्तविक ख्याति मान सम्मान हासिल नहीं हुआ है । कुछ भी ऐसा उनकी लेखनी से निकला नहीं जो समाज को सही मायने में सच्चाई से अवगत करवाता हो , बार बार वही पुरानी बातों को दोहराना पढ़ कर लगता है जैसे कहीं पहले सुना पढ़ा हुआ है । देश समाज को जागरुक करना समझाना कि वास्तविक स्वतंत्रता भौतिक नहीं मानसिक गुलामी से मुक्त होना होता है कोई नहीं लिख रहा है । 
 
शुरआत अपने घर से की है लेकिन सही मायने में हमारे देश समाज में हालत ऐसी है कि तमाम लोग खुद ग़ुलामी को भी बरकत समझने लगे हैं । कोई खुद से अमीर के सामने हाथ जोड़े है कोई किसी कुर्सी पर बैठे व्यक्ति के सामने सर झुकाए खड़ा है कोई अपने से बड़े पद पर आसीन अधिकारी की चाटुकारिता उसका हर उचित अनुचित आदेश सर झुकाकर मानता है निजि स्वार्थ को देख कर । मतलब ने अंधा ही नहीं किया बल्कि स्वाभिमान आत्मसम्मान को दांव पर लगा दिया है । देश को आज़ाद हुए 78 साल हो गए हैं लेकिन हम अभी भी सच बोलने का साहस नहीं जुटा सकते कि ये वो आज़ादी नहीं है जिस की कल्पना आज़ादी की लड़ाई लड़ने वालों ने की थी और जिस की खातिर जान हथेली पर रख कर अपना सभी कुछ समर्पित किया था । अपने स्वतंत्रता सेनानियों की कुर्बानियों की कीमत हमने समझी ही नहीं तभी कैसे कैसे खुदगर्ज़ लोगों को हमने अपना मसीहा समझ उनकी अनुचित और अन्यायपूर्ण भेदभाव बढ़ाने की नीतियों का भी समर्थन किया है खुद अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा कार्य करते हैं । लगता है हम सभी केवल खुद की खातिर सोचते हैं बाक़ी सभी को लेकर चिंता नहीं करते अन्यथा अधिकांश जनता की भूख बदहाली और असमानता हमारे लिए गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए था । 
 
देश की राजनीति सत्ता का खेल बनकर रह गई है जिस में कोई शकुनि हर बाज़ी जीत कर भरी सभा में चीरहरण की भूमिका बना रहा है । हमने रामायण से कुछ सीखा है न ही महाभारत से और गीता की व्याख्या करने को खुद को काबिल समझते हैं । कोई कृष्ण नहीं है कोई भी किरदार असली नहीं है सामने सभी कुछ समाता जा रहा है काल ग्रस्त कर रहा बचना किसी को नहीं है जानते नहीं अनजान हैं सभी खुद को अजर अमर मानकर मनमानी कर रहे हैं । इतिहास खुद को दोहराता है लेकिन शायद आधुनिक युग का इतिहास कोई लिखना चाहेगा भी तो लिख नहीं पाएगा क्योंकि खुद वही अपने आप को कटघरे में खड़ा पाएगा ।  आज सच लिखना भी होगा तो छापने को कौन तैयार होगा जब संपादक प्रकाशक सभी लिखने वाले को किसी बंधुआ मज़दूर से भी गया गुज़रा समझते हैं । जिस समाज में साहित्य लेखन से कोई पेट नहीं भर सकता सिर्फ छपने से ही संतोष करना पड़ता है उस देश में लेखन का स्तर कैसे बचेगा । अधिकांश लोग खुद लिखते खुद पैसे खर्च कर किताब छपवाते अपने जानकर लोगों को बांटते और आपस में इक दूजे को महान बताकर खुश रहते बिना पाठकवर्ग ऐसे लेखन से किसे क्या हासिल होगा । टेलीविज़न सिनेमा की बात क्या करें लगता है अच्छी कहानियों संगीत गीत का अकाल पड़ा है और भाषा की तो बात ही मत पूछो , दर्शक को क्या परोसा जा रहा है जिस से देख कर लोग निराश होने लगे हैं , विज्ञापनों की बैसाखियों के सहारे कितने समय तक ज़िंदा रह सकते हैं । टीवी सिनेमा खुद अंधकार बढ़ाने लगे हैं राग दरबारी गाने लगे हैं खुद बिकने लगे हैं अपनी कीमत बढ़ाने लगे हैं रसातल की तरफ कदम जाने लगे हैं खुद अपने आप से घबराने लगे हैं , झूठ को सच बनाने लगे हैं । 
 
 Sagar Voice on X: "अज्ञानता से भय पैदा होता है, भय से अंधविश्वास पैदा होता  है, अंधविश्वास से अंधभक्ति पैदा होती है, अंधभक्ति से व्यक्ति का विवेक ...

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