आसमान खुल गया उड़ना भूल गए ( अफ़साना लॉकडाउन )
डॉ लोक सेतिया
उनकी उड़ान आसमान को छूने से भी ऊंची है मगर आकाश पर अभी बसेरा नहीं बन सकता है। आपको दो कहानियां फिर से सुनानी हैं शायद उसके बाद आप को खुद ही अपनी वास्तविकता समझ आ जाएगी। उसके बाद इक कविता किसी जाने माने शायर की और फिर अंत में अपनी इक कविता भी शायद और साफ समझने को काफी होगी ।
एक बार किसी पहाड़ी घाटी में घूमते हुए इक महात्मा को नीचे गहराई से इक आवाज़ सुनाई दी मुझे आज़ाद करो। ढूंढते ढूंढते महात्मा पहुंचा तो देखा इक पंछी पिंजरे में बैठा है पिंजरा खुला हुआ है फिर भी बाहर नहीं निकल रहा और सहायता मांग रहा है। महात्मा ने भीतर हाथ डालकर उसे बाहर निकाला और आकाश में उड़ा दिया। लेकिन अगली सुबह महात्मा फिर विचरण करते उसी जगह पहुंचे तो वही आवाज़ दोबारा सुनी मुझे आज़ाद करो। अब महात्मा ने सोचा कहीं किसी ने फिर उसको पिंजरे में तो नहीं बंद कर दिया , मगर अजीब बात थी पिंजरा खुला हुआ था पंछी भीतर खुद ही बंद था , महात्मा को समझ गया उस पंछी को पिंजरे से लगाव हो गया है। अब इस बार महात्मा ने पंछी को बाहर निकाला ऊपर आसमान की ओर उड़ा दिया और साथ ही उसके पिंजरे को भी उठाकर नीचे बहते पानी में फैंक दिया ताकि वो वापस लौटे तो कोई पिंजरा ही नहीं दिखाई दे। पिंजरे में रहने की आदत हो जाती है तो खुले आकाश को छोड़ फिर चले आते हैं पिंजरे में ये समझते हैं कि यही सुरक्षित जगह है।
दूसरी कहानी किसी राजा के पास दो बाज़ थे दोनों को साथ साथ उड़ना सिखाया था पक्षियों की देखभाल करने वाले ने। इक दिन राजा ने देखना चाहा उनकी उड़ान कितनी ऊंची है। मगर जब प्रशिक्षक उनको उड़ाने को संकेत देते तो इक बाज़ बहुत ऊपर तक उड़ता रहता मगर दूसरा जिस पेड़ की शाख पर बैठा हुआ होता थोड़ा उड़ वापस उसी पर आकर बैठ जाता। राजा ने कितने जानकर लोगों को बुलवाया मगर कोई भी उसको ऊंची उड़ान भरवाने को नहीं सफल हो पाया। राजा ने मुनादी करवा दी अगर कोई उसको उड़ना सिखा देगा तो उसको बहुत धन हीरे जवाहरात दिए जाएंगे। इक दिन राजा ने देखा वो बाज़ भी पहले बाज़ की ही तरह ऊंची उड़ान भर रहा था। जब पता करवाया ये किस ने किया है तो इक किसान दरबार में आया , राजा ने पूछा अपने ये कैसे किया है। किसान ने कहा मैं कोई जानकर नहीं हूं मुझे तो कि उस बाज़ को अपनी पेड़ की शाख को छोड़ना नहीं चाहता है इसलिए मैंने उस शाख को ही काट दिया जिस पर उसका बसेरा था। और वो उड़ने लग गया उड़ना जानते हैं हम मगर अपने पिंजरे से अपनी पेड़ की शाख से अधिक लगाव होने से उड़ते ही नहीं।
तीसरी इक कविता है जो कैफ़ी आज़मी की लिखी हुई है। कुछ लोग इक अंधे कुंवे में कैद थे और अंदर से ज़ोर ज़ोर से आवाज़ देते रहते थे , हमें आज़ादी चाहिए , हमें रौशनी चाहिए। जब उनको अंधे कुंवे से बाहर निकाला गया तो बाहर की खुली हवा रौशनी को देख कर वो घबरा गए। और उन्होंने फिर उसी अंधे कुंवे में छलांग लगा दी। अंदर जाकर फिर से वही आवाज़ देने लगे , हमें आज़ादी चाहिए हमें रौशनी चाहिए। ये तीनों बातें लगता है वक़्त दोहरा सकता है जैसे इतिहास कहते हैं खुद को दोहराता है फिर से। अंत में मेरी दिल के करीब इक बहुत पहले की कविता है मुक्त छंद की उसको भी पढ़ना सुनना समझना।
तीसरी इक कविता है जो कैफ़ी आज़मी की लिखी हुई है। कुछ लोग इक अंधे कुंवे में कैद थे और अंदर से ज़ोर ज़ोर से आवाज़ देते रहते थे , हमें आज़ादी चाहिए , हमें रौशनी चाहिए। जब उनको अंधे कुंवे से बाहर निकाला गया तो बाहर की खुली हवा रौशनी को देख कर वो घबरा गए। और उन्होंने फिर उसी अंधे कुंवे में छलांग लगा दी। अंदर जाकर फिर से वही आवाज़ देने लगे , हमें आज़ादी चाहिए हमें रौशनी चाहिए। ये तीनों बातें लगता है वक़्त दोहरा सकता है जैसे इतिहास कहते हैं खुद को दोहराता है फिर से। अंत में मेरी दिल के करीब इक बहुत पहले की कविता है मुक्त छंद की उसको भी पढ़ना सुनना समझना।
कैद ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
कब से जाने बंद हूंएक कैद में मैं
छटपटा रहा हूँ
रिहाई के लिये।
रोक लेता है हर बार मुझे
एक अनजाना सा डर
लगता है कि जैसे
इक सुरक्षा कवच है
ये कैद भी मेरे लिये।
मगर जीने के लिए
निकलना ही होगा
कभी न कभी किसी तरह
अपनी कैद से मुझको।
कर पाता नहीं
लाख चाह कर भी
बाहर निकलने का
कोई भी मैं जतन ।
देखता रहता हूं
मैं केवल सपने
कि आएगा कभी मसीहा
कोई मुझे मुक्त कराने ,
खुद अपनी ही कैद से।
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