अक्टूबर 17, 2025

POST : 2030 ख़त्म नहीं होती अमीरों की गरीबी ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

       ख़त्म नहीं होती  अमीरों की गरीबी   ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया   

कभी बात हुआ करती थी गरीबी की रेखा को लेकर , सरकारी योजनाओं के गर्भ से अनचाही संतान पैदा हो ही जाती थी । सरकार आंकड़ों से खिलवाड़ कर उनकी गिनती घटाती रहती मगर हालात समझाते रहते संख्या बढ़ती जा रही है ।  गरीब लोग भूख बदहाली में भी ज़िंदगी बिता ही लेते हैं उलझन धनवान लोगों की है हर दिन उनको एहसास होता है अभी धन दौलत नाम शोहरत की हसरत अधूरी है । अख़बार समाचार चैनल से टीवी सीरियल और सिनेमा जगत तक देश में जनता की गरीबी की चर्चा नहीं करते हैं । अमीरी की प्रतियोगिता निरंतर जारी है आज उसकी कल किसी और की बारी है सबको लगी ऐसी बिमारी है दुनिया ख़त्म होने तक खेल तमाशा जारी है । गरीबी मिटाने की कोशिश सरकार की जारी है जो वास्तव में आंकड़ों की कलाकारी है बजट कहता है सबसे कर्ज़दार सरकार है उस की आमदनी से बढ़कर उधारी है सत्ता की ग़ज़ब लाचारी है बड़ी महंगी शासक वर्ग की दोस्ती यारी है , सियासत तलवार दोधारी है । हमने पढ़ा था कथाओं कहानियों में लोभ लालच की कोई सीमा नहीं होती आखिर दो ग़ज़ ज़मीन ही चाहिए फिर भी धनवान लोगों की लालसा अधिक पाने की हवस मिटती ही नहीं जितना भी अंबार लगा हो उनको थोड़ा लगता है , साधुजन कहते हैं ऐसे लोग सबसे दरिद्र होते हैं ।  गरीबी की रेखा किसी को मालूम नहीं क्या हुआ यूं भी गरीबी के मापदंड़ बदलते रहते हैं सरकारी सुविधा से अपनों को रेवड़ियां बांटते समय । गरीबी रेखा ज़मीन पर बनी हुई लकीर जैसी लगती थी लेकिन अमीरों ने आसमान में सतरंगी इंदरधनुष जैसी लक्ष्मणरेखा काल्पनिक लोक की बनाई हुई है और सभी को कैसे भी उस ऊंचाई को छूना है । 
 
जो जितना बड़ा कहलाता है उसको उतना ही नशा चढ़ता जाता है , सत्ता का ताकत का नाम का शोहरत का नशा विवेक को खत्म कर हर तरह से लूट कर छीनकर गैरकानूनी तरीके अपना कर रिश्वत भ्र्ष्टाचार से लेकर हिंसा डर दिखाकर पैसा जमा कर के भी चैन नहीं मिलता । ऐसे कितने धनवान हैं जिनको नहीं मालूम कि तमाम हथकंडे अपना कर एकत्र की पूंजी का करना क्या है , इंसान नहीं धनपशु बन गए हैं । दिखावे को धर्म करते हैं जबकि धार्मिकता उनमें बची ही नहीं जैसे आसानी से बिना परिश्रम किये धनवान बनते गए हैं । इक बात साफ है उनको किसी भगवान का कोई डर बिल्कुल नहीं है कितना ही अनुचित कार्य करते उनको कभी नहीं लगता है कि कभी कोई उनसे अच्छे बुरे कर्मों का हिसाब मांगेगा । उनका बही खाता लाभ हानि की परिभाषा समझता है पाप पुण्य की परवाह नहीं करता ।  हमको लगता है हमने लोकतंत्र को ज़िंदा रखा है जबकि हमको मालूम ही नहीं कि कब कैसे लोकतंत्र इक बेजान चीज़ बनकर रह गया है और शासन सत्ता प्रशासन सभी सरकारी तंत्र लोकतंत्र की पत्थर की प्रतिमा पर चढ़ कर नंगा नाच दिखा रहे हैं बिना किसी संकोच । कुछ साल पहले ही इक राजनेता घूस लेते पकड़े गए थे इक चैनल के स्टिंग ऑप्रेशन में उपदेश दे रहे थे खुदा कसम पैसा भगवान तो नहीं लेकिन भगवान से कम भी नहीं है । 
 
पैसा तब से या उस से भी पहले से दुनिया का भगवान बन गया है , इधर तो देशों की दोस्ती दुश्मनी सिर्फ और सिर्फ कारोबार को लेकर होने लगी है । शायद हमारे पूर्वजों ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि भारतवर्ष जैसे पुरातन परम्पराओं आदर्शों और ऊंचे नैतिक मूल्यों वाले समाज में पैसा इस हद तक महत्वपूर्ण बन जाएगा कि सभी पागलपन की हद तक उसके चाहने वाले बन जाएंगे । आदमी खुद अपनी कीमत लगवाने को बीच बाज़ार तमाशा बन खड़ा है खरीदार मोल चुकाए तो आत्मा तक का सौदा करने को राज़ी है । हर कदम पर ज़िंदगी मौत की बाज़ी है  हर शख़्स पलड़े पर तुलने को राज़ी है सियासत की ज़र्रानवाज़ी है । जो लोग बिक गए हैं बनकर खड़े खरीदार हैं शिकारी होने लगे खुद ही घायल ग़ज़ब किरदार हैं । इंसान अब भगवान को भी बेचने लगे हैं आखिर में इक पुरानी ग़ज़ल पेश है  । 
 

इंसान बेचते हैं , भगवान बेचते हैं ( ग़ज़ल ) 

डॉ लोक सेतिया "तनहा"

इंसान बेचते है   , भगवान बेचते हैं
कुछ लोग चुपके चुपके ईमान बेचते हैं ।

लो हम खरीद लाये इंसानियत वहीं से
हर दिन जहां शराफत शैतान बेचते हैं ।

अपने जिस्म को बेचा  उसने जिस्म की खातिर
कीमत मिली नहीं   पर नादान बेचते है ।

सब जोड़ तोड़ करके सरकार बन गई है
जम्हूरियत में ऐसे फरमान बेचते हैं ।

फूलों की बात करने वाले यहां सभी हैं
लेकिन सजा सजा कर गुलदान बेचते हैं ।

अब लोग खुद ही अपने दुश्मन बने हुए हैं
अपनी ही मौत का खुद सामान बेचते हैं ।

सत्ता का खेल क्या है उनसे मिले तो जाना
लाशें खरीद कर जो , शमशान बेचते हैं ।  
 
 10 कारण क्यों अमीर और अमीर होते जाते हैं (दिमाग हिला देने वाला सच) - न्यू  ट्रेडर यू


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