अक्टूबर 04, 2016

POST : 529 हम सभी देश भक्त हैं ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

           हम सभी देश भक्त हैं ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

        देशभक्ति किसे कहते हैं शायद उसकी कोई परिभाषा कभी रही होगी , तब जब कुछ लोग देश को गुलामी से मुक्त करवाने की खातिर अपना तन मन धन सब कुछ देश की आज़ादी पर कुर्बान किया करते थे। जब देश आज़ाद हो गया तब भला उस पुरानी देशभक्ति की क्या ज़रूरत थी। बस देशभक्त कहलाने को नारे लगाना ही काफी था। फिर भी कुछ साल तक लोग थोड़ा तो लिहाज़ करते ही थे कि कुछ ऐसा नहीं करें जो लोग नफरत करने लगें कि देश के प्रति निष्ठा तक शक के घेरे में आ जाये। तब  तक नेता हों या प्रशासन के अधिकारी कुछ लाज रखते थे अपने पद की , इतने ऊंचे ओहदे पर बैठ इतना नीचे नहीं गिरना। आत्मसम्मान की कीमत धन दौलत से कहीं बड़ी समझी जाती थी। कहते हैं हम तरक्की कर आये हैं , कहीं से कहीं आ पहुचें हैं। आज देखते हैं कौन कौन क्या करता है और देशभक्त भी खुद को मानता है।

         बीस साल पहले मंत्री मुख्यमंत्री हो तो उसे भाई बंधु शहर में जहां कहीं भी किसी सरकारी विभाग की जगह या ज़मीन पड़ी हो या कोई पार्क अथवा मैदान हो उसको कब्ज़ाकर अपनी संपति घोषित कर लिया करते थे , और उसके बाद सत्ता का दुरूपयोग कर उसको अधिकृत भी करवा लिया करते थे। अधिकारी लोग भी हर काम के बदले घूस लेने लगे थे। आज़ादी का मतलब यही सभी को समझ आया था कि आपका देश है और जितना अंग्रेज़ नहीं लूट सके उतना खुद ही लूटना है। बस राजनीति और अफसरशाही में इक सहमति बन गई थी चोर चोर मौसेरे भाई वाली , मगर तब भी अपने अपकर्मों पर शर्म कभी  कभी आती अवश्य थी। उसके बाद जैसे जैसे परिवारवाद और जातिवाद राजनीति का आधार बना तो भ्र्ष्टाचार ही सत्ता की नींव बन गया।  सारा खेल ही पैसे की राजनीति का बन गया। चुनाव धन बल और बाहुबल से लड़ा और जीता जाने लगा। नैतिकता  को सब दलों ने ताक पर रख दिया और सत्ता की खातिर उन से हाथ मिला लिया जिन के विरुद्ध जनता के पास गये थे। जनता को ठगना राजनीति का अनिवार्य पाठ हो गया।

                  अब आज की बात , नेता ही नहीं प्रशासन के अधिकारी भी खुद अपराध कराते हैं , विभाग की भूमि या प्लॉट्स पर कब्ज़ा करवाना और बाद में कब्ज़ा करने वाले को मालिकाना हक देना उनका पसंद का काम बन गया है। बड़े अफ्सर क्या क्लर्क तक करोड़पति बन गये हैं। अवैध धंधे आजकल पुलिस की अनुमति या सहमति अथवा सहयोग से चलते हैं , किस की मज़ाल है उनको रोके। आप जाकर किसी सरकारी विभाग में देखो सब जनता को लूटने में लगे हुए मिलेंगे। मगर यही झंडा फहराते हैं और देश प्रेम पर भाषण भी देते हैं। जो खुले आम रिश्वत लेते रहे वही बाद में देश सेवा और ईमानदारी के लिये राष्ट्रपति जी से सम्मानित भी होते हैं। देशभक्ति का प्रमाणपत्र और तमगे इन सभी के पास रखे हुए हैं , इनके घर में ड्राइंगरूम की दीवार पर सजी हुई है देशभक्ति।

POST : 528 उनका साहित्य , मेरी बातें ( सवाल कठिन है ) डॉ लोक सेतिया

      उनका साहित्य , मेरी बातें ( सवाल कठिन है ) डॉ लोक सेतिया

    कोई ऐसी बात तो नहीं की जो अनुचित कही जा सके , फिर भी मुझे अच्छी नहीं लगी उनकी बात , शायद मुझे उनसे आपेक्षा नहीं थी कि वो भी उसी तरह की ही बात करेंगे जैसी सभी दुनिया वाले करते हैं । बहुत नाम सुनता रहा हूं उनका , बहुत बड़े साहित्यकार हैं । मैंने उनसे साहित्य पर ही बात करने को संपर्क किया था , ये उनको भी मालूम भी था , फिर भी किसलिये वो साहित्य की बातों से इत्तर और ही बातें करना चाहते थे । मैं कहता रहा उनकी रचनाओं की बात और वो अनसुना करते रहे मेरे हर सवाल को , और मुझे से पूछते रहे मेरी ज़मीन जायदाद और आमदनी की बात । मेरे लिये जिन बातों का कोई महत्व नहीं था , उनको वही ज़रूरी लगती थीं । सच मैं नहीं समझ पाया उनकी बातों का मतलब । उम्र भर मिलता रहा हूं ऐसे लोगों से जो मुझे छोटा साबित करने को बिना पूछे मुझे बताया करते थे कि उनकी आमदनी कितनी अधिक है , क्या क्या बना लिया उन्होंने पैसा कमा कमा कर । फिर कहते आप खूब हैं जो कितनी कम आय में गुज़र बसर कर के भी खुश रहते हैं । उनको मेरी थोड़ी आमदनी से मतलब नहीं था , उस के बावजूद खुश रहने से परेशानी थी । मुझे पता है अधिकतर लोग एक ख़ुशी हासिल करते हैं ऐसी बातें कर के । शायद कहीं न कहीं वो हीन भावना के शिकार होते हैं और जिनको समझते हैं हमसे छोटे हैं उनसे ये बातें करते हैं अपनी हीन भावना को दूर करने को । लेकिन आज तक न वो अपनी हीन भावना मिटा पाये न ही मुझे हीन भावना का शिकार ही कर पाये हैं । उल्टा मुझे यही लगता है कि ये सब धन दौलत पाकर भी उनको वो ख़ुशी नहीं मिली है जो मेरे पास है बिना धन दौलत के । तभी मैं कभी दुनिया वालों से कोई मुकाबला करना चाहता ही नहीं । मुझे उनके मापदंड समझ ही नहीं आये  , खुद अपने बनाये मापदंडों से अपने को बड़ा साबित करने की कोशिश ही करते रहते हैं । मैं जो हूं जैसा हूं उसी को स्वीकार कर चैन से रहता हूं , आदमी को कितनी ज़मीन चाहिये , दो गज़ , उस कहानी को कभी भूला नहीं। कोई कह सकता है मैं तरक्की करना ही नहीं चाहता , मुझे परवाह नहीं उनकी बातों की , किसी की बातों से मैं जो नहीं करना है वो नहीं कर सकता दुनिया की दौड़ में तरक्की हासिल करने को ।

             आज मुझे इक लेखक एक साहित्यकार से वही बातें सुन समझ नहीं आया क्या चाहते हैं वो । क्या उनको मुझ से साहित्य की बात करना इसलिये पसंद नहीं था क्योंकि मुझे वो छोटा समझते हैं लेखन में । बेशक मैंने आज तक इक पुस्तक भी नहीं छपवाई है तो क्या इसी से मेरा आंकलन करते हैं । मुझे न लेखक कहलाना है न साहित्यकार कहलाने को लिखता हूं , मगर फिर भी नियमित लिखता रहता हूं अपने देश समाज की वास्तविकता को । क्या ये महत्वपूर्ण नहीं हो सकता । अब केवल उनकी और मेरी बात को छोड़ सभी की बात करते हैं।  लेखक हैं लिखते हैं , कविता कहानी , लगता है सभी के दुःख-दर्द को महसूस करते हैं , सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है । मगर जब अपने आस पास लोगों को परेशान देखते हैं तब हमारे अंदर का दर्द कहां छुप जाता है , तब औरों की परेशानी या दुःख क्यों हमें परेशान नहीं करती और हम संवेदना रहित और पाषाण हृदय बन जाते हैं । ये देख कर मैं सोचता हूं जो कविता जो कहानी हमने लिखी , अगर वो खुद हम में संवेदना मानवीय दुःख दर्द के प्रति नहीं जागृत कर पाई तो क्या उसको सफल मान सकते हैं । सैकड़ों किताबें लिख कर भी क्या होगा , कोई क्या सोचता है कभी । साहित्य का ध्येय क्या है । 

 

अक्टूबर 03, 2016

POST : 527 हे राम ( महात्मा गांधी से धर्म तक ) इक पक्ष ये भी - डॉ लोक सेतिया

      हे राम ( महात्मा गांधी से धर्म तक ) इक पक्ष ये भी 

                                   - डॉ लोक सेतिया

     2 अक्टूबर को गांधी जी को याद किया गया , मगर किस को , हाड़ मांस के इंसान को। उस को नहीं जो इक विचार है सोच है , उसको भुला दिया गया कभी का। हमने इक रिवायत सी बना ली है हर दिन को किसी तरह मनाने की , बिना मकसद ही। शायद भटक गये हैं , समझ नहीं पा रहे किधर जाना था , किधर आ गये हैं , और आगे किस तरफ जाना है। धर्म राजनीति समाज सभी जगह बस औपचारिकता निभा रहे हैं लोग।

          बार बार होता है यही , कुछ ख़ास दिन किसी देवी देवता की उपासना की धूम मची रहती है। तब जिधर भी देखते हैं वही दोहराया जाता दिखाई देता है , जैसे आजकल नवरात्रे हैं तो जय माता दी की आवाज़ गूंजती रहती सुबह शाम हर शहर हर गांव हर गली। जगराता होता है रात रात भर माता के भजन उसकी आरती सुनाई देती रहती है। ऐसे साल भर में भगवान और देवी देवताओं की भक्ति उनकी पूजा अर्चना पर करोड़ों रूपये खर्च किये जाते हैं। जब से मैंने होश संभाला है ऐसी बातें जिनको धर्म बताया जाता है बढ़ती ही गई हैं , लेकिन जो मुझे समझ आया है , अधर्म और पाप कम नहीं हुआ अपितु और भी अधिक होता जा रहा है। इक डॉक्टर होने के नाते मैं सोचता हूं अगर मेरी लिखी दवा से सुधार होने की जगह रोगी का रोग और बढ़ता जा रहा है तो ऐसी दवा को बंद करना ही उचित होगा। क्यों धर्म के पैरोकार बने लोग ऐसा धर्म को लेकर नहीं सोचते , क्या उनका मकसद वास्तव में धर्म को स्थपित करना बढ़ावा देना है , या उनको मात्र धर्म नाम से अपना कारोबार ही चलाना है। सोचना उन्हीं को है। मुझे तो इतना ही लगता है कि जितना धन लोग धार्मिक आयोजनों पर खर्च करते हैं उतना अगर धर्म कर्म पर खर्च करते तो मुमकिन है अधिक अच्छा होता। एक बात शायद हमें याद ही नहीं है कि दान धर्म पूजा आदि बताया गया है सभी ग्रंथों में कि हक हलाल की मेहनत की नेक कमाई से किया जाना चाहिये। किसी से लूट कर छीन कर या एकत्र कर के कदापि नहीं।

             नरेंद्र मोदी जी जब प्रधानमंत्री बने तभी इक मंदिर में विदेश में गये थे पूजा अर्चना करने को। तब वे एक करोड़ मूल्य की 2 5 0 0 किलो चंदन की लकड़ी दान में दे आये थे , क्या ये धर्म था। यकीनन ये पैसा देश की तिजोरी से खर्च किया गया था , जनता की बुनियादी ज़रूरतों की खातिर बजट नहीं होता है , नेताओं की इच्छाओं की खातिर सब हाज़िर है। ये लोकतंत्र का राजधर्म नहीं है। कैसी विडंबना है कि इस मुल्क में गरीब जनता किसी लावारिस लाश की तरह है जिसको जलाने को बजट में प्रावधान नहीं है , मगर नेताओं की चिता जलाने  को चंदन की चिता सजाई जाती है। ये कैसा जनतन्त्र है जिस में नेताओं की समाधियों के लिये कई कई एकड़ भूमि है मगर जनता की छत के लिये नहीं। इक राष्ट्रपति के आवास के रखरखाव पर ही करोड़ों रूपये हर महीने खर्च होते हैं , जितने पैसे से रोज़ हज़ारों लोग रोटी खा सकते हैं। कल महात्मा गांधी का जन्म दिन सरकार ने जाने कितना धन खर्च कर मनाया , क्या ये गांधी जी की विचारधारा से मेल खाता है। जो आदमी लोगों को नंगे बदन देख तय करता है कि उसने उम्र भर एक वस्त्र धोती ही डालनी है , उसकी विचारधारा का ये उपहास सरकार नेता और लोग कब तक करते रहेंगे।

                     सरकार का अर्थ ही जनता की सेवा के नाम पर धन की खुली लूट है बर्बादी है। अगर सरकारें फज़ूल खर्च नहीं करती तो देश में आज भूख और गरीबी नहीं होती। गांधी की समाधि पर फूल चढ़ाने से आप गांधीवादी नहीं हो जाते , आपको सोचना होगा गांधी जी क्या चाहते थे। उन्हीं का कहना था कि इस भारत देश में इतना कुछ तो है जो सभी की ज़रूरतों को पूरा कर सके मगर इतना नहीं है जो किसी की भी धन सत्ता की हवस को भूख को पूरा कर पाये। आज वास्तव में गांधी जी को हर दिन कत्ल किया जाता है , उनके नाम पर आडंबर के के , और उनकी सोच को दरकिनार कर के । 

 

अक्टूबर 02, 2016

POST : 526 किस दिशा में जा रहा है समाज ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

 किस दिशा में जा रहा है समाज ( आलेख )  डॉ लोक सेतिया

              कहां से शुरू करूं आप ही बताओ , अपने से , आप से , उन से जिनको सभी समझते हैं कि वो राह दिखाते हैं औरों को , या जिनकी हर बात का अनुसरण करते लोग , अथवा जो इन सभी से अधिक जानकार खुद को मानते हैं। सवाल बहुत सीधा है जीवन क्या है और किसको जीना कहते हैं। अख़बार पत्रिका टीवी चैनेल भी सभी को ध्यान से देखने पर लगता है जैसे बस दो ही उद्देश्य हैं इंसानों की खातिर। पैसा और मनोरंजन। आप अगर सोशल मीडिया पर हैं तब भी आपको सिर्फ समय बिताना है मौज मस्ती की बातों से। अगर कोई समझता है कि वहां लोग संजीदा बातों को पढ़ते हैं और संवेदनशील बनते है तो आपको वास्तविकता और बनावट में अंतर करना नहीं आता है। समझ नहीं आता करोड़ों लोग क्या हासिल करते हैं पूरा दिन फेसबुक या व्हाट्सऐप पर रह कर। टीवी अख़बार कभी लोगों को जानकारी देने और जागरुक करने का ध्येय लेकर चलते थे , आज विज्ञापनों की आय के मोह में ऐसे अंधे हुए हैं कि उचित और अनुचित की परिभाषा तक बदल ली है उन्होंने। क्या हंसना ही ज़िंदगी का मकसद होना चाहिए , टीवी शो सिनेमा से पत्रकारिता तक उलझे हैं बेहूदा बातों पर हंसने को सही बताते हुए जबकि ऐसी बातों पर कभी सोचा जाये तो रोना आना चाहिए। खेद है कि हर जगह इक बीमार मानसिकता हावी नज़र आती है जिस में औरत और मर्द में एक ही रिश्ता दिखाई देता है , वासना का। लोग बेशर्मी से इज़हार करते हैं टीवी पर अपनी गंदी सोच की कुत्सिक भावनाओं का। कॉमेडी शो से समाचार के चैनल तक सभी अपनी गरिमा को भुला चुके हैं। कभी कभी किसी कार्यक्रम में भावुकता भी दिखाई देती है और आंसू भी पल भर को , मगर तभी मंच संचालन करने वाला प्रयास करता है उसको भुला फिर से हा - हा का शोर शुरू करने का। क्या भावुकता और किसी के दुःख दर्द को समझ संवेदनशील होना ऐसी बात है जो नहीं हो तो बेहतर है। सोचा जाये तो पता चलता है यही आज अधिक ज़रूरी है , ऐसा इंसान बनना जो केवल अपने लिये मौज मस्ती और हंसी ही नहीं चाहे बल्कि समाज और बाकी लोगों की भी चिंता करे।

             टीवी पर धर्म के बारे बताते हैं वो लोग जिनको खुद अपना धर्म तक याद नहीं , पत्रकारिता क्या है , खबर किसको कहते हैं , और इक शब्द होता है पीत पत्रकारिता जिसको आज कोई बोलना तक नहीं चाहता क्योंकि पत्रकारिता इस कदर पीलियाग्रस्त हो चुकी है कि उसका ईलाज तक असंभव हो गया है। अंधविश्वास को बढ़ावा देना अपने आर्थिक फायदे की खातिर क्या यही पत्रकारिता का ध्येय है। लोगों को क्या ज्ञान देना चाहते हैं , उनकी समस्या किसी तालाब पर स्नान करने से , कोई जादू टोना , तथाकथित ज्योतिषीय उपाय से हल होगी अथवा खुद अपने प्रयास से। भाग्यवादी बना कर आप किसी का भला नहीं कर सकते हैं।  विडंबना की बात है आज विज्ञान के युग में और जब हमारे पास साधन हैं लोगों तक सभी तरह की जानकारी पहुंचाने को तब हम उनका सदुपयोग नहीं कर उल्टा दुरूपयोग करते हैं। आधुनिक सुविधाओं का सही उपयोग कम अनुचित उपयोग अधिक होने लगा है। निजि स्वतंत्रता के नाम पर क्या समाज को गलत मार्ग पर जाते देखना सही होगा।
                      अपराध हैं कि बढ़ रहे हैं , खासकर महिलाओं से अनाचार की घटनाओं में जैसे कोई रोक लगती दिखाई ही नहीं देती। संगीत का नाम पर , टीवी सीरियल या सिनेमा के मनोरंजन की आड़ में समाज को विशेषकर युवा वर्ग को भ्रमित किया जा रहा है और उनकी समझ को प्रदूषित। सब से खेदजनक बात ये है कि सरकार , धर्म की बातें करने वाले भी फ़िल्मी और टीवी मनोरंजन वालों की तरह देश की सत्तर प्रतिशत जनता को भूल गये हैं जिनको चमक दमक और आडंबर नहीं वास्तविक बातों से मतलब है। शिक्षा रोज़गार गरीबी छत और रोटी पानी ईलाज की समस्या। इन सभी के पास देश की बहुमत आबादी के वास्ते खोखली बातों के सिवा कुछ भी नहीं। ऐसे में साहित्य रचने वालों को तो सोचना होगा , किन की बात कहनी है लेखन में , या उनको भी अपने खुद के नाम शोहरत और ईनाम पुरुस्कार की दौड़ में ही समय बिताना है ताकि आखिर में समझ आये कि रौशनी की बातें करते करते भी अंधकार को ही बढ़ावा देते रहे हैं तमाम उम्र।

        विषय गंभीर है और इस पर चरचा भी कभी खत्म नहीं हो सकती , मगर आज यहीं विराम देते हैं। 

 

सितंबर 30, 2016

POST : 525 अपमानित होती देश की जनता ( बेहद खेद की बात ) डॉ लोक सेतिया

     अपमानित होती देश की जनता ( बेहद खेद की बात ) 

                                  डॉ लोक सेतिया

 यूं तो हमेशा से साधनविहीन लोगों को अपमानित किया जाता रहा है , इक शायर का शेर कुछ इसी तरह है :-

                      " या हादिसा भी हुआ इक फ़ाक़ाकश के साथ ,

                       लताड़ उसको मिली भीख मांगने के लिये  "

    मगर लोकतंत्र में जनता भले गरीब भी हो उसका अपमान करना खुद संविधान को अपमानित करना है। शायद आपको इस में बुराई नहीं लगती हो कि सरकार जब स्वच्छता अभियान की बात करे तो जनता को ही कटघरे में खड़ा करती हो कि आप गंदगी करते हैं तभी गंदगी है। गंदगी नहीं हो इसका प्रबंध सरकार को करने की ज़रूरत ही नहीं शायद। भाषण देना बहुत सरल है मगर जिस तरह इस देश की जनता जीती है उसकी कल्पना भी ये नेता अफ्सर नहीं कर सकते। जब सब कुछ अपने आप मिल जाता हो तब ये नहीं समझ सकते कि जिनको कुछ भी नहीं मिलता उनका जीवन कैसा होता है। इधर सरकारी प्रचार विज्ञापनों में ऐसा ही किया जाने लगा है , ये दिखाया जाता है कि मूर्ख लोग हैं जो खुले में शौच करते हैं। पूछना जाकर उन महिलाओं से जो झौपड़ी में रहती हैं क्या खुश हैं खुले में शौच को जाकर। आप कागजों पर दिखा सकते हैं घर घर शौचालय बनवा दिया वास्तव में नहीं दिखा सकते। कितनी खेदजनक बात है सरकार जो स्वयं सामान्य सुविधा सुरक्षा की जीने की बुनियादी ज़रूरतों की सभी को दे पाने में विफल रही है आज़ादी के 6 9 साल बाद भी , और इस पर कभी शर्मसार नहीं होती वो जनता को शर्मसार करने की बात करती है। वाह मीडिया वालो आपको भी ऐसे विज्ञापन गलत नहीं लगते न ही किसी नेता के भाषण में ऐसी बातें जो गरीबों को हिकारत से देखने और अपमानित करने का काम करती हैं अनुचित लगता है।

          देश की सत्तर प्रतिशत आबादी जिन गांवों में रहती है या गंदी बस्तियों में , उन को साफ पीने का पानी तक उपलब्ध  नहीं करवा पाने वाली सरकारें , आदर्श नगर और सुंदर शहरों की बात करती हैं।  क्या ये इक भद्दा उपहास नहीं है जनता के साथ।  लेकिन अब सरकारों ने अपना कर्तव्य समझना छोड़ दिया है , कि सभी को आवास , शिक्षा , स्वास्थ्य सेवा , और रोज़गार के अवसर देना उसकी प्राथमिकता होनी चाहिये। हां कितना अधिक कर वसूल सकते हैं और जनता के धन को कैसे अपने ऐशो-आराम पर या झूठे गुणगान के विज्ञापनों पर बर्बाद कर सकते हैं ये प्राथमिकता दिखाई देती है।

               अगर कोई नेता , चाहे उसको कितना भी जनसमर्थन हासिल हो , देश की जनता को अपमानित करना सही समझता है तो फिर उसको लोकतंत्र की परिभाषा ही नहीं , संविधान की भावना ही नहीं , मानव धर्म को भी पढ़ना समझना और अपनाना होगा , अन्यथा उसको किसी भी तरह महान नहीं कहा जा सकता।

 

सितंबर 28, 2016

POST : 524 सार्थक जीवन या निरर्थक जीवन ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया

      सार्थक जीवन या निरर्थक जीवन ( चिंतन )  डॉ लोक सेतिया

      बहुत दिन से इक खलबली सी है दिलो-दिमाग़ में खुद अपने ही बारे में , मुझे क्या करना था क्या नहीं करना था , क्या किया अभी तक क्या नहीं किया , सोचता हूं ज़िंदगी के इतने लंबे सफर में मुझे कहां जाना था और मैं कहां पर आ गया हूं , अभी किधर को जाना है। बहुत कठिन है समझ पाना वास्तव में जीवन की सार्थकता क्या है। आज सोचता हूं लोग बहुत कुछ सोचते हैं समझते हैं और मानते भी हैं कि हमने क्या क्या किया है क्या हासिल कर लिया है अपने प्रयास से , लेकिन शायद ये कभी नहीं सोचते कि उन सब की सार्थकता क्या है। जैसे कुछ उदाहरण देखते हैं। कोई समझता है वह देशभक्त है , मगर देशभक्ति की परिभाषा क्या है , क्या आप अपने देश को अपना सर्वस्व अर्पित कर सकते हैं। तन मन धन सभी कुछ। नहीं कर सकते तो फिर कैसे देशभक्त हैं , केवल देशभक्त होने का आडंबर करते हैं। अगर कोई धर्म प्रचारक या साधु महात्मा बना फिरता है तो उसको सोचना होगा कि उसके प्रयास से धर्म का क्या भला हुआ है , क्या उसके समझने से लोग सच्चे इंसान बन गये हैं , लोभ लालच झूठ पाप मोह माया के जाल से मुक्त हुए हैं। लेकिन अगर आप सोचते हैं कि आपके लाखों अनुयाई हैं सैंकड़ों मठ आश्रम हैं धन संपति है तो आपको खुद ही धर्म का ज्ञान तक नहीं है। अगर आप शिक्षक हैं तो क्या आपकी शिक्षा से छात्र ज्ञानवान बने हैं , उनकी अज्ञानता का अंधेरा मिटा है , अगर ऐसा कुछ नहीं तो आपने मात्र किताबों को रटा खुद भी और रटाया है औरों को भी , जिस का कोई अर्थ ही नहीं है। अगर आप चिकित्सक है तो आपकी चिकित्सया क्या सफल रही लोगों को स्वथ्य करने में या कहीं आप रोगों की चिंता अधिक करते हैं रोगियों की काम , और आप रोगमुक्त समाज बनाना ही नहीं चाहते अपने स्वार्थ की खातिर। अगर आप जनसेवक हैं अफ्सर हैं या सरकारी कर्मचारी तो आपने क्या जनता की परेशानियों को दूर किया है या फिर अपने अहंकार और अधिकारों के मद में विपरीत कार्य ही करते रहे हैं , क्या आपने अपना फ़र्ज़ निभाया है देश और समाज के प्रति। अगर आप नेता हैं और आपको सत्ता का अवसर मिला है तो क्या आपने देश की आम जनता की ज़िंदगी को कुछ आसान बनाया है या उसकी मुश्किलें और भी बढ़ाई हैं। देश की वास्तविक दशा क्या सुधरी है सभी के लिये अथवा मात्र आंकड़े ही दिखाते रहे हैं और जो सब से नीचे हैं उनके बारे आपने सोचा तक नहीं समझ भी नहीं सके उनकी भलाई क्या है। अगर आप पत्रकारिता करते हैं तो आपने कितना सच का पक्ष लिया है कितना झूठ को बढ़ावा दिया है , क्या आप वास्तव में जनहित में सच को उजागर करते हैं , निष्पक्ष हैं निडर हैं। लेकिन अगर आप झूठ को सच साबित करते हैं , धन बल और ताकत के मोह जाल में उलझे हुए है और आपका मकसद अधिक पैसा किसी भी तरह कमाना है खुद अपनी प्रगति की खातिर तब आप जो भी करते हैं कम से कम पत्रकारिता तो हर्गिज़ नहीं करते हैं। अब अगर आप लेखक हैं तो आपके लेखन का ध्येय क्या है , खुद अपने लिये नाम शोहरत हासिल करना , ईनाम पुरुस्कार पाना या समाज को सच्चाई की राह दिखलाना बिना निजि स्वार्थ के। अगर इक ऐसे समाज की कल्पना को सार्थक करना आपका मकसद नहीं है जिस में न्याय हो अत्याचार का नाम तक नहीं हो , जिस में मानवता हो हैवानियत का निशान तक नहीं हो , जिस में प्यार हो भाईचारा हो नफरत की कहीं बात तक भी नहीं हो , और आपके लेखन से ऐसा कुछ भी सार्थक नहीं हो सकता तब आपका लिखना किसी काम का नहीं है। कहने को बहुत है मगर केवल बातें करने से क्या होगा , आओ हम सभी सोचें हम जीवन में जो भी करते हैं या आगे करना है वो कितना सार्थक है।  दुनिया किस को क्या समझती है वो महत्व नहीं रखता , महत्वपूर्ण है कि खुद हम क्या समझते हैं , हमारी आत्मा हमारा ज़मीर क्या कहता है। 
 

सितंबर 26, 2016

POST : 523 Part 4 हिलती हुई दीवारें ( मेरी चर्चित कहानी ) भाग चार { ऑनर किल्लिंग पर } डॉ लोक सेतिया

       हिलती हुई दीवारें ( मेरी चर्चित कहानी ) भाग चार- अंतिम 

                             { ऑनर किल्लिंग पर } डॉ लोक सेतिया

                                   हिलती हुई दीवारें ( आखिरी भाग  )          
   
 लाजो ने प्यार से जगाया था भावना को और जगाकर कहा था , बेटी अब तुम कोई चिंता कोई डर अपने मन में न रखो , अब तुम अकेली नहीं हो , मैं तुम्हारी मां तुम्हारे साथ हूं  और ढाल बनकर तुम्हारी सुरक्षा करूंगी हर पल हर कदम। बस यही समझ लो कल इक घनी अंधेरी काली रात थी जो समाप्त हो चुकी है , आज की भौर लाई है तुम्हारे जीवन में नया उजाला नई रौशनी। और लाजो अपनी बेटी का हाथ थामे उसको नीचे घर के आंगन में वहां लाई थी जहां सभी बाकी सदस्य बैठे चाय पी रहे थे। और भावना का हाथ थम उन सभी को सामने जाकर खड़ी हो गई थी अपना सर ऊंचा किये जैसा शायद कभी किया नहीं था आज तक। सब समझ गये थे कि लाजो कुछ कहना चाहती है , और समझ रहे थे कि उसने भावना को समझा लिया है। मगर जो कुछ लाजो ने कहा था उसकी उम्मीद किसी को भी नहीं थी। लाजो ने जैसे एलान किया था , मैंने अपनी बेटी से सब कुछ जान लिया है और मुझे उस पर पूरा यकीन भी है। वह समझदार है परिपक्व भी है और अब इस काबिल हो चुकी है कि उचित अनुचित , सही और गलत में अंतर कर सके। मुझे लगता है कि हम किसी रिश्ते को सिर्फ इसलिये गलत नहीं मान सकते क्योंकि वो भावना की पसंद है , न ही कोई रिश्ता इसी लिये सही नहीं हो जाता क्योंकि वो हमने तय किया है। सवाल किसी के अहम का नहीं है , ये हमारी बेटी के जीवन का प्रश्न है , और अपनी बेटी की ख़ुशी को समझना हमारा कर्तव्य है। आज अपने अहम को दरकिनार कर हमें समझना होगा कि भावना की भलाई किस में है। मैं चाहती हूं कि हम सभी शांति से बातचीत करें आपस में और इक दूजे की भावनाओं का आदर करें। इसलिये हमें इक बार जाकर विवेक और उस के परिवार से मिलना चाहिये और अगर हमें उनमें वास्तव में कोई कमी नज़र आये तो हम भावना को समझा सकते हैं। और अगर कुछ भी ऐसा नहीं है तो हमें अपनी बेटी की बात को स्वीकार करना चाहिये। सब से पहले आज एक बात सभी समझ लें कि आज के बाद मेरे साथ , भावना के साथ अथवा परिवार की किसी महिला के साथ मार पीट , हिंसा कदापि सहन नहीं की जायेगी। जिस तरह से बेबाकी से लाजो ने ये बातें कहीं उसको सुन कर बलबीर सहित सभी दंग रह गये थे , ये रूप किसी ने पहले नहीं देखा था। एक ही रात में ऐसा बदलाव चकित करने की बात थी , फिर यहां तो वो नज़र आ रहा था जिसकी कल्पना तक किसी ने नहीं की थी। पूरे आत्मविश्वास से बुलंद आवाज़ में निडरता पूर्वक अपना पक्ष रख कर लाजो ने सभी को सकते में डाल दिया था , और किसी से भी जवाब देते नहीं  बन रहा था।

              थोड़ी देर में बलबीर उठ खड़ा हुआ था , और लाजो की तरफ देख कर बोला था , ये क्या हो गया है तुम्हें , जो तुम सारे समाज को चुनौती देने जैसे बातें कर रही हो। ऐसा कर के तुम कहीं की नहीं रह जाओगी। वास्तव में लाजो ने बलबीर को भीतर से हिला कर रख दिया था , और उसको लगने लगा था कि उसका शासन और मनमानी अब और नहीं चल सकेगी। फिर भी वो अपनी बेचैनी और घबराहट को छिपाने का प्रयास कर रहा था , ताकि सभी को मानसिक तौर से अपने अधीन रख सके। लाजो बलबीर की बात सुन कर ज़रा भी नहीं घबराई थी और उसी लहज़े में जवाब देते बोली थी , आज मुझे क्या मिला या क्या खोया है की बात नहीं करनी मुझे , मुझे बस भावना की बात करनी है।  उसकी शिक्षा को बीच में नहीं रोक सकता कोई भी , ये उसका अधिकार है अपना भविष्य बनाने का , जो किसी भी कारण वंचित नहीं किया जा सकता। मैं उसको हॉस्टल छोड़ने जा रही हूं और मुझे रोकने का प्रयास मत करना कोई भी।  कोई मां जब दुर्गा बन जाती है तो अपनी बेटी की खातिर सब कर गुज़रती है , आज मैं इक तूफान बन चुकी हूं जो रोकने वालों को तिनके की तरह हवा में उड़ा देता है। ये मत समझना कि मैं आप पर निर्भर हूं  मैं खुद आत्मनिर्भर हो सकती हूं  लेकिन आपने अभी शायद दूर तक नहीं सोचा है। अपनी बेटी या पत्नी को जान से मारने वाले को कौन अपनी बेटी देगा , हमें मार कर खुद आपका जीना भी दुश्वार हो जायेगा ये सोचना। अपने दोनों बेटों का ब्याह नहीं कर सकोगे ऐसा अपराध करने के बाद।  कैसी विडंबना है कि जो खुद अपराध करना चाहते हैं वही न्यायधीश बन कर फरमान जारी करते हैं। लेकिन हम मां बेटी फैसला कर चुकी हैं कि भले जो भी अंजाम हो अन्याय की इस अदालत के सामने हम अपना सर नहीं झुकायेंगी।

              तभी दरवाज़े की घंटी बजी थी , लाजो किवाड़ खोलने जाने लगी तो बलबीर ने उसको रोक दिया था , मैं देखता हूं इतनी सुबह कौन आया है। तुम दोनों चुप चाप कमरे के अंदर चली जाओ और ये ख्याल दिल से निकाल दो कि हम तुम्हें इस तरह कहीं भी जाने देंगे।  मुझे ऐसे ठोकर लगाकर नहीं जा सकती हो तुम। लाजो ने बलबीर की बात का कोई जवाब नहीं दिया था। घर की घंटी फिर से बजी थी और कोई बाहर से ऊंची आवाज़ में बोला था बलबीर दरवाज़ा खोलो। जैसे ही बलबीर ने किवाड़ खोला था कई लोग एक साथ भीतर आ गये थे , पुलिस , प्रशासनिक अधिकारी , महिला संगठन , मानवाधिकार कार्यकर्ता आदि। बलबीर और बाकी परिवार के सदस्य आवाक रह गये थे। आते ही अधिकारी ने पूछा था लाजो कौन है , और उनकी बेटी भावना कहां है। लाजो और भावना सामने आ गई थीं और कहा था हम दोनों हैं जिन्होंने आपसे यहां आने की गुहार लगाई थी।
हमने ही फोन किया था मीडिया को आप सभी को भी सूचित करने को , परिवार के लोग भावना को जान से मारना चाहते हैं और मुझे भी इनसे जान का खतरा है , लाजो ने बताया था। हम अपनी मर्ज़ी से घर को छोड़ कर जाना चाहती हैं , हम स्वतंत्र नागरिक हैं और अपनी इच्छा से जीने का हक हमें है। आप इन लोगों को समझा दें ताकि ये हम से अनुचित व्यवहार नहीं करें। 

           प्रशासन के अधिकारी और पुलिस अफ्सर ने परिवार के सभी सदस्यों को ताकीद कर दी थी कि आप लाजो और भावना की ज़िंदगी में कोई दखल नहीं दे सकते , हमारा दायित्व है उनको सुरक्षा देना और किसी को भी अपने मनमाने नियम बनाकर दूसरे पर थोपने का अधिकार नहीं है।  आप क़ानून को अपने हाथ में नहीं ले सकते हैं।  ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उस रूढ़ीवादी घर की सारी दीवारें खोखली होकर हिलने लगी हों और कभी भी गिर सकती हों।  लाजो और भावना इक दूसरे का हाथ मज़बूती से थाम कर घर से बाहर जाने लगी तो सभी खामोश देखते रह गये थे।  कोई उनको रोकने का साहस नहीं कर सका था , वो दोनों चली गईं थी और उनके जाने के बाद अधिकारी लोग भी। घर के बाकी सदस्य स्तब्ध खड़े घर के खुले दरवाज़े को देख रहे थे।
         
                                      समाप्त
       
इस कहानी का ध्येय यही है , खुद महिलाओं को आना होगा आगे साहस पूर्वक कदम उठाकर।  

सितंबर 25, 2016

POST : 522 Part 3 हिलती हुई दीवारें ( मेरी चर्चित कहानी ) भाग तीसरा { ऑनर किल्लिंग पर } डॉ लोक सेतिया

     हिलती हुई दीवारें ( मेरी चर्चित कहानी ) भाग तीसरा 

                            { ऑनर किल्लिंग पर } डॉ लोक सेतिया                              

                                   हिलती हुई दीवारें ( अंक तीसरा  )    
                                
    भावना के पिता से पापा की  हुई बातचीत विवेक ने फोन पर भावना को बता दी थी जिस को सुन कर भावना परेशान होकर रोने लगी थी। विवेक अब क्या होगा , रोते रोते इतना ही बोल सकी थी। विवेक ने दिलासा दिलाया था तुम घबराओ मत सब ठीक हो जायेगा , अभी शायद अचानक सुनकर उनकी ऐसी प्रतिक्रिया सामने आई है। तुम प्यार से आदर से अपनी ख़ुशी की बात कहोगी तो वो अवश्य समझेंगे बेटी की बात को। मगर भावना को किसी अनहोनी का अंदेशा होने लगा था जो विवेक को नहीं बता सकती थी क्योंकि खुद उसको नहीं मालूम था कल क्या होने वाला है। अगले दिन सुबह ही उसके पिता और दोनों भाई हॉस्टल आये थे और उसको ज़बरदस्ती घर को लेकर चल पड़े थे। किसी ने कोई बात नहीं की थी न ही कोई सवाल ही पूछा था , बस सब सामान उठा कर चल दिये थे।  उन सब के चेहरों पर इक कठोरता और तनाव साफ झलक रहा था जो भावना को भीतर तक डरा रहा था। घर पहुंचते ही जैसे इक पहाड़ टूट पड़ा था , मार पीट , बुरा भला कहना जाने क्या क्या हो गया था। सभी की निगाहों में नफरत ही नफरत थी भावना के लिये जैसे उसने कोई अक्षम्य अपराध कर दिया हो , मोबाइल छीन लिया गया था , ताने मारे जा रहे थे कि तुम वहां पढ़ाई करने गई थी या परिवार की इज्ज़त से खिलवाड़ करने को।  ऐसा लग रहा था  जैसे इक चिड़िया के पर कटकर उसको पिंजरे में कैद कर दिया गया हो। जाने क्या बात थी जो उसको ऐसे में भी कमज़ोर नहीं होने दे रही थी बल्कि और भी मज़बूत हो गई थी अपने इरादे में।  उसने सोच लिया था अपने प्यार की इस परीक्षा में उसने हर बात सहकर भी विचलित नहीं होना है , अडिग रहना है। शायद सच्चा प्रेम ही ये शक्ति प्रदान करता है।

                                     भावना को घर में सब से ऊपर की मंज़िल पर बने इक कमरे में कैद सा कर दिया था , कोई उस से बात तक नहीं करता था। रात तक कुछ भी खाने पीने को नहीं मिला था न ही भावना ने मांगा ही था।  रात को मां उसके लिये खाना लाई थी जो उसने चुप चाप खा लिया था।  लाजो को बेटी के चेहरे पर इक दृढ़ संकल्प दिखाई दिया था जो किसी आने वाले तूफ़ान का ईशारा करता लगा था।  भावना कहीं घर से भागने का प्रयास न करे इस डर से बलबीर ने लाजो को भावना के साथ ही सोने को कह दिया था।  मां बेटी दोनों ही किसी गहरी चिंता में डूबी हुई थीं इसलिये नींद कोसों दूर थी उसकी आंखों से।  लाजो ने प्रयास किया था भावना को समझाने का कि पिता ने तुम्हारे लिये इक लड़का पसंद किया है उस से चुप चाप विवाह कर लो।  माना लड़का पढ़ा लिखा नहीं है फिर भी हमारी तरह ज़मींदार परिवार है धन दौलत की कोई कमी नहीं है , हर सुख सुविधा मिलेगी तुम्हें वहां जाकर।  भावना ख़ामोशी से मां की बात सुनती रही थी , एक शब्द नहीं बोली थी , बस कुछ सोचती रही थी। थोड़ी देर रुक कर भावना बोली थी , " मां मेरा वादा है मैं बिना आपकी सहमति या आज्ञा के कोई कदम नहीं उठाऊंगी , आपको मेरे बेटी होने पर कभी शर्मसार नहीं होना पड़ेगा।  बस एक बार सिर्फ एक बार आज मेरी बात मेरी मां बनकर सुन लो , समझ लो कि तुम्हारी बेटी की भलाई किस में है।  मां मैं चाहती हूं कि अज तुम मुझे ही नहीं खुद अपने आप को भी ठीक से पहचान लो।  मुझे पता है तुमने पूरी उम्र कैसे दुःख सहकर अपमानित होकर रोते हुई बिताई है। मैंने हर दिन तुम्हारे दर्द को समझा है महसूस भी किया है , और चाहती हूं किसी तरह तुम्हारे दुखों का अंत कर तुम्हें ख़ुशी भरा जीवन दे सकूं मैं , मेरी मां।  मां तुम मेरा यकीन रखना तुम्हारी ये बेटी कभी भी तुम्हारे लिये कोई परेशानी नहीं खड़ी करेगी।  मेरी कोई ख़ुशी कोई चाहत कोई स्वार्थ इतना मेरे लिये इतना महत्वपूर्ण नहीं हो सकता जिस की खातिर मैं तुम्हारे दुःख दर्द और बढ़ा दूं।  फिर भी मेरी बात सुन कर इक बार विवेक के परिवार से मिल लोगी तो अच्छा होगा , बहुत ही सभ्य लोग हैं , इक दूजे को सम्मान देते हैं , प्यार से साथ साथ रहते हैं , सवतंत्र हैं किसी बंधन की कैद में कोई नहीं है।  मां कभी सोचा है तुमने , तुम भी इक इंसान हो , तुम्हारा भी कुछ स्वाभिमान होना चाहिए , सम्मान मिलना चाहिए। क्या क्या नहीं करती तुम दिन रात घर की खातिर , कोई कभी तो समझे तुम भी महत्वपूर्ण हो। तुम्हारी अपनी भी कोई सोच समझ है , पसंद नापसंद है , सही और गलत समझने का अपना निर्णय है।  कुछ कर दिखाने की काबलियत तुम में भी है।  तुम कोई पशु नहीं जिसको खरीद लाये और बांध दिया है खूंटे से , बचपन से देखती रही हूं तुम्हें पिता जी की अनुचित बातें सहते भी और उनकी हर बात को मानते भी।  क्या तुम कभी वास्तव में खुश रही हो , क्या हर दिन हर पल तुम इक डर इक दहशत में नहीं रहती रही हो।  क्या ऐसे जीने की कभी कल्पना की थी तुमने या करोगी मेरे लिये भी। 

                          भावना की बातें सुन लाजो को अपना बचपन याद आ गया था , जब उसकी मां लाजो को  प्यार से गोदी में लिटाकर समझाती थी कितनी बातें।  कैसे हर समस्या का समाधान साहस पूर्वक किया जा सकता है , कैसे प्यार से आपस में मिलकर रहना सब को अपना बनाना होता है।  लाजो को लगा जैसे आज भावना उसकी मां बन गई है जबकि आज उसको ज़रूरत है मां की।  तब लाजो की नम आंखों को अपने हाथों से पौंछ के भावना ने कहा था  , मां अब रोना नहीं है , मुझे अपने पैरों पर खड़ा होने दो , मैं तुम्हारी सभी परेशानियों का अंत कर दूंगी।  मां अब भले जो भी हो , हम कभी ऐसे मर मर कर नहीं जिएंगी।  मैंने सुन लिया था शाम को छत पर जो मेरे पिता जी ने तुम्हें कहा था कि अगर मैं उनकी पसंद की जगह शादी के लिये नहीं मानी तो तुम्हें मुझे ज़हर देना होगा।  मुझे मालूम है तुम ऐसा नहीं कर सकोगी , कोई भी मां नहीं कर सकती है ऐसा घिनोना कार्य।  हां कुछ कायर लोग विवश करते हैं ऐसा करने को।  अपने झूठे मान सम्मान की खातिर , अपने अहंकार की खातिर , महिलाओं को बलिवेदी पर चढ़ाना चाहते हैं , खुद अपनी आबरू की खातिर अपनी जान कभी नहीं लेते।  मां कितने ढोंगी हैं समाज के लोग , मीरा और राधा के मंदिर बनाते हैं , उनकी पूजा करते हैं और प्यार को अपराध बता कत्ल करते हैं।  अखिर कब तलक परम्पराओं के नाम पर महिलाओं पर अन्याय अत्याचार होगा उनका शोषण किया जाता रहेगा।  क्या हमने पूछा है हर युग में नारी ही अग्निपरीक्षा क्यों दे , आज तुम्हें इस अग्निपरीक्षा से नहीं गुज़रना पड़ेगा।  अगर तुम्हें लगेगा कि मुझे जीने का अधिकार नहीं है तो तुम ज़हर नहीं पिलाओगी , मैं खुद अपने हाथ से पी लूंगी ज़हर।  आज मैं अपने प्यार का अपने जीवन का हर निर्णय तुम पर छोड़ती हूं , मगर बस इतना चाहती हूं कि वो निर्णय तुम अपने विवेक से अपनी समझ से लो न कि किसी और द्वारा थोपे हुए निर्णय को बिना सोचे स्वीकार करो।  लाजो ने भावना को बाहों में भर लिया था , एक अश्रुधारा बह रही थी दोनों की आंखों से।  यूं ही लेटे लेटे दोनों जाने कब सो गईं थी। लाजो की नींद खुली तो उसे खिड़की से सुबह का उगता हुआ सूरज दिखाई दे रहा था , जो शायद इक संदेशा दे रहा था , नये उजाले का , नये जीवन का।

    
            (  जारी है  हिलती हुई दीवारें  ,  अगले अंतिम  अंक  में )

POST : 521 Part 2 हिलती हुई दीवारें ( मेरी सब से लोकप्रिय कहानी ) भाग दूसरा { ऑनर किल्लिंग पर } डॉ लोक सेतिया

  हिलती हुई दीवारें ( मेरी सब से लोकप्रिय कहानी ) भाग दूसरा

                           { ऑनर किल्लिंग पर } डॉ लोक सेतिया

                                       ( पिछले अंक से आगे )
                                     
               भावना ने स्नातक की शिक्षा में अच्छे अंक प्राप्त किये थे और उच्च शिक्षा से पूर्व की परीक्षा में भी अच्छा रैंक पाकर बड़े शहर के अच्छे कॉलेज में प्रवेश हासिल कर लिया था जबकि उसके दोनों भाई हमेशा मुश्किल से उत्तीर्ण होकर भी संतुष्ट हो जाते थे। दोनों आगे पढ़ाई करने में रुचि ही नहीं रखते थे। भावना को हॉस्टल में कमरा मिल गया था और वो मन लगा कर पूरी मेहनत करने लगी थी ताकि भविष्य में कुछ बन सके और अपना ही नहीं अपने गांव तक का नाम रौशन कर सके। कॉलेज में सहपाठी रंजना से उसकी मित्रता हो गई थी और दोनों काफी घुल मिल गई थी। रंजना का बड़ा भाई विवेक कई बार उसको छोड़ने आया करता था कॉलेज में और कभी कभी भावना से हाय हेल्लो नमस्ते हो जाती थी। हालांकि भावना अंतर्मुखी स्वभाव की सीधी सादी लड़की थी जो बहुत कम बातें करती थी और रंजना और उसका भाई विवेक सभी से खुलकर बातें करने वाले मिलनसार लोग थे , फिर भी उनसे भावना का तालमेल बन गया था। भावना और रंजना में घनिष्ठता हो गई थी और आपस में दोनों अपनी हर बात बिना झिझक बताने लगी थी। रंजना के पापा का अच्छा कारोबार था और विवेक किसी कंपनी में अच्छे पद पर जॉब करता था , खुश रहना मस्ती करना उसकी आदत थी और शहरी आम लड़कों की तरह बेपरवाह न होकर संवेदनशील था। पापा मम्मी जब भी शादी की बात करते तो वो कहता था जब कोई लड़की पसंद आई तो खुद ही लेकर मिलवा देगा उन से। औपचारिक मुलाकातों में ही विवेक और भावना कब इक दूजे को पसंद करने लगे दोनों को पता ही नहीं चला था , शुरू में थोड़ा संकोच से विवेक भावना को उसके मोबाइल पर फ़ोन करता , कभी रंजना का फोन बिज़ी होने पर तो कभी कॉलेज नहीं आ सकने का संदेशा देने को भावना को रंजना को बताने के बहाने से।  धीरे धीरे जान पहचान इक गहरे मधुर संबंध में बदल गई थी , एक दो बार भावना रंजना और विवेक सिनेमा गये थे साथ साथ और कभी किसी रेस्टोरेंट में खाना भी साथ खा लेते  थे।  जब उन दोनों को विश्वास हो गया कि हमें उम्र भर साथ रहना है तब भावना ने ही रंजना  से ये बात बताई थी , विवेक ने ही भावना से रंजना को बताने को कहा था ताकि ये जान सके कि उसकी क्या राय है। रंजना को भी कुछ कुछ आभास पहले से होने लगा था मगर भावना के मुंह से विवेक से प्यार की बार जान कर उसको और भी अच्छा लगा था। उसको भावना बहुत समझदार और काबिल लड़की लगती थी जो उसके भाई के लिये अच्छी जीवन साथी बन सकती थी। रंजना ने तभी घर जाकर मम्मी  को भावना और विवेक के प्यार की बात बता दी थी ,  उनको भी भावना का स्वभाव अच्छा लगता था जब भी रंजना के साथ मिली थी भावना उनको। विवेक के पिता को धर्मपत्नी ने बताया था भावना के बारे कि मधुर स्वभाव की अच्छे संस्कारों की सुशील लड़की है जो बड़ों का आदर सम्मान करना भली तरह जानती है। और उन्होंने हामी भर दी थी और विवेक से कहा था भावना से भी कहो अपने माता पिता से बात करे ताकि हम उनसे मिलकर रिश्ते की बात कर सकें।

                         जब विवेक ने बताया कि उसके माता पिता भावना के माता पिता से शादी की बात करना चाहते हैं तब वो खामोश हो गई थी। प्यार के रंगीन सपने देखते समय भावना इस वास्तविकता को भूल गई थी कि उसके पिता और परिवार के लोग बेहद रूढ़ीवादी मान्यताओं में जकड़े संकुचित सोच के लोग हैं जो किसी लड़की को अपनी मर्ज़ी से प्यार करने और शादी करने की स्वीकृति प्रदान नहीं करने वाले।  जब विवेक ने भावना से ख़ामोशी का कारण पूछा था तब भावना ने बताया था कि उसके समाज और परिवार में बेटियों को अपनी पसंद बताने का कोई अधिकार नहीं दिया जाता है , और अगर उसने ऐसा कुछ किया तो न जाने परिवार के लोग कैसा सलूक करेंगे उसके साथ। भावना ने बताया था विवेक को कि आज तक उसने अपने मन की बात किसी से की नहीं है , न कभी किसी ने जानना चाही है कि उसके दिल में क्या है। इतना तय है कि वो जब भी विवाह करेगी विवेक से ही करेगी अन्यथा किसी से भी नहीं करेगी।  विवेक ने भावना को तसल्ली दी थी कि हम हर हाल में साथ निभायेंगे तुम चिंता मत करो , भावना से उसके घर का पता और फोन नंबर ले लिया था ताकि उसके पिता से विवेक के पापा बात कर सकें। 

              रविवार का दिन था , विवेक के पापा ने भावना के पिता को फोन कर बात की थी। अपना परिचय दिया था , विवेक के बारे भी सब बता दिया था और रंजना से मित्रता और भावना को पसंद करने की बात कही थी और पूछा था कब कैसे मिल सकते हैं आगे की बात करने को।  जैसा भावना के पिता का स्वभाव था उन्होंने तल्खी से सवाल किया था आप किस काम के लिये हमसे मिलना चाहते हैं।  विवेक के पापा ने भावना और विवेक के एक दूसरे को पसंद करने की बात बताकर कहा था कि मिलकर उनका रिश्ता तय करना चाहते हैं। इस बात से बलबीर आग बबूला हो गया था और विवेक के पापा से गुस्से में बोला था हमें आपसे नहीं मिलना है न ही ऐसे रिश्ता करना हम कभी स्वीकार करेंगे , आप बेटे को समझ दें कि भविष्य में भावना से मिलने का प्रयास नहीं करे इसमें उसकी भलाई है , खुद अपनी बेटी को भी हम रोक देंगे।

                            अभी कहानी जारी है बाकी अगले अंक में

POST : 520 Part 1 हिलती हुई दीवारें ( मेरी सब से लोकप्रिय कहानी ) भाग पहला { ऑनर किल्लिंग पर } डॉ लोक सेतिया

    हिलती हुई दीवारें ( मेरी सब से लोकप्रिय कहानी )  भाग पहला

                           { ऑनर किल्लिंग पर }  डॉ लोक सेतिया 

 भावना को तड़पता देख कर भी भावशून्य लग रही थी लाजो , जैसे उसका अपनी ही बेटी से कोई संबंध ही ना हो। आधी रात का सन्नाटा और घर के ऊपर की मंज़िल पर अकेले कमरे में वे दोनों। खुद लाजो ने ही तो ज़हर पिलाया है अपनी बेटी को। उसके पति बलबीर ने शाम को उसको आदेश दिया था , घर की इज्ज़त बचाने के नाम पर बेटी को जान से मार देने का। और अगर लाजो ने ऐसा नहीं किया तो वह मां बेटी दोनों को तड़पा तड़पा कर मरेगा बलबीर ने ये भी कहा था। लाजो जानती है अपने पति के स्वभाव को वो कुछ भी कर सकता है। ज़हर पिलाने के बाद लाजो इंतज़ार कर रही थी भावना के मरने का ताकि उसकी मौत के बाद वो खुद जाकर बलबीर और बाकी सभी सदस्यों को बता सके कि उसने वह कर दिया है जो करने का आदेश उसको दिया गया था। तड़प तड़प आखिरी सांसें गिनती भावना ने अपनी मां को इशारे से अपने पास बुलाया था , बेहद मुश्किल से धीमी धीमी आवाज़ में उसने कहा था , " मां तुमने मुझे ज़हर दिया है ना , कोई बात नहीं , अच्छा ही है , तुमने ही तो मुझे जन्म दिया था , तुम मेरी जान ले लो ये भी तुम्हें अधिकार है। मां तुम इस के लिये दुखी मत होना। मैंने शाम को ही सुन ली थी वो सारी बातें जो पिता जी ने तुमको कही थी छत पर बुलाकर। इसलिये रात को सोने से पहले ज़हर मिला दूध पीने से पहले मैंने सब कुछ बता दिया था और सोच लिया था कि अगर मुझे जन्म देने वाली मां को भी लगता हो कि मुझे इस जहां में ज़िंदा रहने का कोई हक नहीं है तो मुझे जी कर क्या करना है। मां तुम्हारे हाथ से ज़हर पी कर मरना तो मुझे एक सौगात लग रहा है। मुझे नहीं जीना इस समाज में तुम्हारी तरह हर दिन इक नई मौत मरते हुए। मां मेरी बात ध्यान पूर्वक सुन लो , मैंने अलमारी में अपने कपड़ों के नीचे इक पत्र लिख कर रख छोड़ा है , जिस में लिखा है कि मैं अपनी मर्ज़ी से आत्महत्या कर रही हूं। तुम वो पत्र पुलिस वालों को दे देना , और कभी किसी को ये मत बताना कि तुमने मुझे ज़हर पिलाया है दूध में मिलाकर , वरना दुनिया की बेटियों का भरोसा उठ जायेगा मां पर से "।

                          अचानक लाजो की नींद खुल गई थी , उस भयानक सपने से डरकर जाग गई थी लाजो , अपनी धड़कन उसको ज़ोर ज़ोर से सुनाई पड़ रही थी और पूरा बदन पसीने से तर हो गया था। अपनी दिमाग़ की नसें लाजो को फटती फड़फड़ाती सी लग रही थीं। भावना उसकी बगल में सोई पड़ी थी , बाहर से आ रही हल्की रौशनी में उसका प्यारा सा चेहरा मुरझाया हुआ लग रहा था। शायद बेटी भी कोई ऐसा बुरा सपना देख रही हो सोच कर लाजों की आंखों में आंसू भर आये थे। प्यार से ममता भरा हाथ उसने बेटी के माथे  पर रख दिया था और सहलाती रही थी। रात को बहुत देर तक भावना मां को दिल की हर बात बताती रही थी , और बेटी की अपनत्व भरी बातों ने लाजो को भीतर तक झकझोर कर रख दिया था। आज लाजो को एहसास हुआ था कि उसने बेटी के साथ अकारण कठोर व्यवहार  किया है आज तक , कभी प्यार से ममता भरी बातें की ही नहीं। आज उसको अपनी सोच पर ग्लानि हो रही थी कि क्यों भावना के जन्म लेने पर उसको लगा था कि उसकी कोख से बेटी जन्म ही नहीं लेती। अपना सारा प्यार सारी ममता लाजो अपने दोनों बेटों पर ही न्यौछावर करती रही है , आज तक कभी समझा ही नहीं कि बेटी को भी प्यार दुलार और अपनत्त्व की उतनी ही ज़रूरत है। शायद ऐसा उस समाज और उस परिवेश के कारण हुआ जिस में खुद लाजो पली बढ़ी थी। लेकिन आज भावना ने मन की सारी गांठे खोल कर रख दी थीं , बचपन से लेकर जवानी तक के सभी एहसास अपनी मां को बता दिये थे , जिनको सुन कर समझ कर दिल में महसूस कर के लाजो के मन में बेटी के लिये ममता का सागर छलक आया था। आज पहली बार लाजो को समझ आया था कि इस पूरे समाज में पूरी दुनिया में इक बेटी ही है जो अपनी मां की पीड़ा को उसके दर्द को समझ सकती है और चाहती भी है जैसे भी हो सके अपनी मां का आंचल खुशियों से भर दे। लाजो ने आज जाना था कि मां के लिये जो भाव कोई बेटी महसूस कर सकती है वो बेटे कभी नहीं कर सकते। आज पहली बार बेटी की मां होने पर लाजो को गर्व और प्रसन्नता की अनुभूति हुई थी वह भी ऐसे समय जब जब उसका सारा परिवार , पूरा समाज ही बेटी की जान का दुश्मन बन चुका है। मगर आज इक मां ने भी ठान लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाये वो अपनी बेटी पर कोई आंच नहीं आने देगी। बेटी की ख़ुशी उसके भविष्य उसके अधिकार के लिये वो अपनी जान तक की परवाह नहीं करेगी। समय आ गया है इक मां के अपनी बेटी के प्रति कर्तव्य निभाने और ममता की लाज रखने का।

           (   अभी जारी है कहानी बाकी अगले अंक में  )

सितंबर 23, 2016

POST : 519 कौन किसको समझे समझाये ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

कौन किसको समझे समझाये  ( कविता )  डॉ लोक सेतिया

आखिर
आज जान ही लिया मैंने
बेकार है
प्रयास करना भी ।

यूं ही
अभी तलक मैंने
घुट घुट कर
ज़िंदगी बिताई
इस कोशिश में
कि कभी न कभी
मुझे समझेंगे
सभी दुनिया वाले ।

शायद
अब खुद को खुद मैं ही
समझ सकूंगा
अच्छी तरह से
अपनी नज़र से
औरों की नज़रों को देख कर नहीं ।

दुनिया
बुरा समझे मुझे , चाहे भला
नहीं पड़ेगा कोई अंतर उस से
मैं जो हूं , जैसा भी हूं
रहूंगा वही ही हमेशा
किसलिये खुद को
गलत समझूं
खुद अपनी
वास्तविकता को भुला कर ।

नहीं अब और नहीं
समझाना किसी को भी
क्या हूं मैं
क्या नहीं हूं मैं ।

यूं भी किसको है ज़रूरत
फुर्सत भी किसे है यहां
दूसरे को समझने की
खुद अपने को ही
नहीं पहचानते जो
वही बतलाते हैं
औरों को उनकी पहचान ।

चलो यही बेहतर है
वो मुझसे उनसे मैं
रहें बनकर हमेशा ही
अजनबी अनजान ।
 

 

सितंबर 21, 2016

POST : 518 इक पाती अपने परमात्मा के नाम ( फरियाद ) डॉ लोक सेतिया

 इक पाती अपने परमात्मा के नाम ( फरियाद ) डॉ लोक सेतिया

         क्या संबोधन दूं  नहीं जानता , विनती कहूं या फरियाद नहीं मालूम ये भी , इतना जनता हूं शिकायत नहीं कर सकता , मुझे किसी से भी गिला शिकवा शिकायत करने का कोई अधिकार ही नहीं है , बहुत की है शिकायतें उम्र भर हर किसी से , बिना एक भी शब्द बोले ही , साहस ही नहीं है मुझ में अपनी बात कहने का , इस तरह डर डर कर जिया हूं हमेशा , लोग जाते हैं मंदिर मस्जिद गिरजा गुरूद्वारे , मैं भी जाकर देखा है बहुत बार , सच कहता हूं अक्सर लगता भी रहा है , तुम हो वहीं कहीं मेरे आस पास ही , जब भी परेशानी में तुम्हारे सामने जाकर रोया हूं मैं , बस इक सुकून सा मिलता लगा है , तब मेरे अविश्वास और आस्था में आस्था भारी रही है , लेकिन फिर भी सोचता ज़रूर हूं , क्या वास्तव में तुम समझते हो सभी के दुःख-दर्द , कभी कभी लगता है शायद मेरी कमज़ोरी रही है , भरोसा रखना कि तुम ज़रूर कभी न कभी , मुझ पर दया करोगे रहम करोगे , और मुझे बेबसी भरा जीवन जीने से , अगर निजात नहीं भी दिल सको तो कम से कम , मुझे मुक्त ही कर दोगे ऐसे मौत से बदतर जीने से , मंदिर और गुरूद्वारे जाकर लगता है , कितना शोर है वहां पर तुम्हारे गुणगान का , तुम खुश होते होगे देख भक्तों की भीड़ , नहीं सुनाई देती होगी मुझे जैसे बदनसीब की विनती , मेरी प्रार्थना में छुपा दर्द नहीं समझ सके हो कभी भी , मुझे नहीं मालूम तुमने मुझे दी है सज़ा , इस जन्म के बुरे कर्मों की जो शायद , मुझ से हुए भी हालात की विवशता के कारण , या फिर कोई हिसाब पिछले जन्म का बाकी था , जो चुकाना ही पड़ता है सब को , मगर फिर भी हमेशा इक उम्मीद रही है , शायद किसी दिन तुमको समझ आ ही जाये , हम जैसे बेबस लोगों की बेबसी पर तरस , सुना तो है दयालु हो कृपालु हो तुम , क्षमा भी करते हो जब कोई पश्चाताप करता  है , मुझे नहीं आया कभी शायद मनाना तुझे , मेरी आस्था में भी रही है कुछ न कुछ तो कमी  , आज सोचा लिखता हूं इक पाती तेरे नाम भी , अक्सर लिखता रहता हूं मैं हर किसी को पत्र , लोग कहते हैं मुझे बहुत अच्छी तरह आता है ये , और तो मुझे कुछ भी नहीं आया आज तक , हर काम में असफल ही रहा हूं मैं , हो सकता है ये पाती पढ़कर ही तुम भी , जान सको मेरे दिल का हाल , मगर कठिनाई है अभी भी , मुझे नहीं पता किस पते पर कैसे भेजूं ये खत मैं , कोई डाकघर का पता है न कोई   ई-मेल  ही , खुद ही पढ़ना तुम अगर मिले कभी फुर्सत तो , जवाब तो नहीं दोगे इतना तो जनता हूं  , हां लेकिन आना तो है मुझे शायद जल्दी ही , पास तुम्हारे इक न इक दिन तो , तब इतना तो बताना क्या मेरा पत्र पढ़कर भी , तुझे नहीं आया था मुझ पर ज़रा सा भी रहम , नहीं भगवान कुछ भी हो तुम बेरहम तो नहीं हो सकते , बहुत कुछ लिख दिया है आज , लिखने का अधिकार है भी या नहीं , सोचे बिना ही क्योंकि सुना है , दाता से कर सकते हो मन की हर बात , स्वीकार करे चाहे नहीं भी करे , तब भी सभी को फरियाद करने का अधिकार तो है , बस मुझे नहीं मालूम क्या हासिल होता है  इस से , मगर इक कसक थी मन में किसी दिन तुमसे ये बातें कहने की , पहली बार भी और शायद आखिरी बार भी , लिखी है ये पाती मैंने खुदा परमात्मा ईश्वर अल्लाह वाहेगुरु तुझ को , जनता हूं ये तरीका नहीं है दुनिया वालों का , तुझ से अपनी बात करने का , मुझे नहीं मालूम कैसे करते अर्चना अरदास विनती प्रार्थना , जो हो जाती मंज़ूर भी तुझको।  

 

सितंबर 19, 2016

POST : 517 देखना अपने समाज को दर्पण के सामने ( कड़वा सच ) डॉ लोक सेतिया

     देखना अपने समाज को दर्पण के सामने (  कड़वा सच )  

                                  डॉ लोक सेतिया 

    आप जब कुछ नहीं कर सकते तब परेशान ही हो सकते हैं देख देख कर वो सब जो गलत है अनुचित है मगर जिसको सही और उचित समझा जा रहा है। अगर आप विवेकशील हैं चिंतन करते हैं खुद अपने बारे ही नहीं समाज और देश के बारे में भी तब आप अन्य लोगों की तरह ऐसा बोल पल्ला नहीं झाड़ सकते कि मुझे क्या।

       और लोग आपको सनकी या पागल कहते हैं और मूर्ख समझते हैं जो अपना हित छोड़ जनहित की बात पर परेशान रहता है। मगर आप चाहो भी तो खुद को बदल नहीं सकते , जब देखते हैं आस पास अनुचित और गैर कानूनी काम हो रहे हैं मगर न पुलिस अपना कर्तव्य निभाना चाहती है न प्रशासन न ही सरकार का कोई विभाग शिकायत करने पर कोई करवाई ही करता है अपितु गुण्डे बदमाश आपराधिक तत्व आपको धमकाते हैं और आपका जीना हराम कर देते हैं क्योंकि आपके पास धन बल या बाहु बल नहीं है। तब लगता है इस समाज में सभ्य और शरीफ नागरिक को जीने की आज़ादी नहीं है। हर नेता बड़ी बड़ी बातें करता है कष्ट निवारण समिति जैसे आडंबर रचाता है मगर जनता को मिलता नहीं न्याय कहीं भी। मात्र उलझाया जाता है , सभाओं के नाम पर , क्या पुलिस या प्रशासन को नज़र नहीं आता जो जो गलत होता सभी को दिखाई देता है।

जब अपराधी के विरुद्ध या कानून तोड़ने वाले के खिलाफ कोई कदम उठाना पड़ता है तब उसको जिसने प्रशासन को सूचित किया होता है अनुचित कार्य होने के बारे उसी को परेशानी में डाला जाता है गलत करने वालों के सामने लाकर खड़ा कर के।  तब जताते हैं अगर ये मूर्ख शिकायत नहीं करता तो सरकार या प्रशासन आपको कदापि नहीं रोकती , क्यों अधिकारी और नेता देश और समाज को ऐसा बना रहने देना चाहते हैं , जैसा कभी नहीं होना चाहिये। इस के बावजूद इनको देश भक्त और जनसेवक कहलाने का भी शौक है , क्या देशभक्ति की परिभाषा यही है। लगता है जैसे हर कोई दूसरों को लूट रहा है , व्योपार के नाम पर , शिक्षा के नाम पर , स्वास्थ्य सेवा के नाम पर या जनता की सेवा का दावा कर के। नैतिकता कहीं बची दिखती नहीं , पैसा सभी का भगवान हो गया है। गैर कानूनी काम जितनी आसानी से यहां किये जा सकते हैं उचित कार्य करना उतना ही कठिन होता जा रहा है। मालूम नहीं ये कैसा विकास है जो विनाश अधिक लाता जाता है।

                   नेता और प्रशासन के लोग इतने बेशर्म हो चुके हैं कि उनको देश की जनता की गरीबी भूख और बदहाली नज़र ही नहीं आती है। झूठे विज्ञापनों पर करोड़ों रूपये बर्बाद किये जा रहे सालों से किस लिये , केवल मीडिया को खुश रखने को , क्या इस से बड़ा कोई घोटाला हुआ है आज तक , हिसाब लगाना कभी। यही धन अगर गरीबों को मूलभूत सुविधायें देने पर खर्च किया जाता तो आज कोई बेघर नहीं होता। नानक जी आज होते तो तमाम धनवान लोगों की रोटी को निचोड़ दिखाते लहू की नदियां बहती नज़र आती। कौन कौन कैसे कमाई कर रहा है  किस किस का खून चूस कर। महात्मा गांधी की समाधि पर माथा टेकने से आप गांधीवादी नहीं हो जाते , याद करें गांधी जी ने कहा था इस देश के पास सभी की ज़रूरत पूरी करने को बहुत है , मगर किसी की हवस पूरी करने को काफी नहीं। आज कुछ लोगों की धन की हवस इतनी बढ़ गई है कि कभी खत्म ही नहीं होती , ध्यान से देखो कौन कौन है जो अरबपति होने का बाद और अधिक चाहता है।  हमारे धर्म ग्रंथ बताते हैं जिस के पास बहुत हो फिर भी और अधिक की चाह रखता हो वही सब से दरिद्र होता है।  इस श्रेणी में नेता अभिनेता नायक महानायक स्वामी और नेता सरकार उद्योगपति ही नहीं धार्मिक स्थल तक आते हैं जो आये दिन बताते हैं कितनी दौलत जमा हो गई किस मंदिर मठ या आश्रम के पास , मुझे दिखाओ किस धर्म की कौन सी किताब में लिखा है संचय करना ऐसे में जब लोग भूखे नंगे और बदहाली में जीते हैं। अधर्म को धर्म घोषित किया जा रहा है आजकल।

                     अब ज़रा और बात , कल रात की ही बात , टीवी पर दो कार्यक्रम देखे , एक नृत्य का एक हास्य का।  नृत्य के कार्यक्रम में अभिनेता अमिताभ बच्चन जी मंच पर थे , इक नवयुवती की परफॉर्मंस पर बोलते हुए उन्होंने अपनी फिल्म की इक कविता पढ़ी " ज़िन्दगी तुम्हारी ज़ुल्फ़ों ,,,,,,,,,,,,,,,,,, गुज़रती  तो शादाब हो भी सकती  थी  "  आप इसको हल्के में ले सकते हैं , मगर उसके बाद जो तमाशा दिखाया गया उसको नज़रअंदाज़ करना अपराध होगा। संचालक उस नवयुवती को गिरने से संभालता दिखाई दिया और समझाया गया जैसे हर युवती का सपना यही है कि भले वो सत्तर साल का बूढ़ा भी हो तब भी उसका प्रेम प्रदर्शन उनको खुश कर सकता है। क्या ये महिला जगत की छवि को खराब नहीं करता , क्या अमिताभ जी को उचित लगता है कोई अपनी उम्र से इतनी छोटी महिला से ऐसी बात कहे। मगर हम विचित्र हैं नामी लोगों की बुराई भी हमें अच्छी लगती है।  हास्य के प्रोग्राम में इतनी बेहूदा बातों पर लोग हंसते हैं कि रोना आता है।  हर सुबह हर चैनल अंधविश्वास को बेचता है अपने मुनाफे की खातिर सभी आदर्शों की बातों को भुलाकर पैसे के लिये।  जिधर देखो यही हो रहा है पाप का महिमामंडन , किसी को ग्लानि नहीं क्या कर रहे क्यों कर रहे हैं।  अब फिर भी लोग समझते हैं हम धर्म और ईश्वर को मानते हैं तो वो कौन सा धर्म है कैसा भगवान मुझे समझ नहीं आता है। 

 

सितंबर 14, 2016

POST : 516 इंतज़ार में है मंज़िल ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

 इंतज़ार में है मंज़िल ( कविता )   डॉ लोक सेतिया 

कभी कभी सोचते हैं हम
क्या खोया है क्या पाया है
 
क्या यही था हमारा ध्येय
क्या यही थी हमारी मंज़िल 

और शायद अक्सर सोच कर 
लगता है जैसे अभी तलक हम 

भटकते ही फिरते हैं इधर उधर
बिना जाने बिना समझे ही शायद 
रेगिस्तान में प्यासे मृग की तरह ।

तब रुक कर करना चाहिये मंथन
आत्मचिंतन और विशलेषण 

तभी कर सकेंगे ये निर्णय हम कि
किधर को जाना है अब हमें आगे  

और तय करना होगा फिर इक बार 
कौन सी है  मंज़िल कौन सी राह है
जिस पर चल  कर जाना है हमें ।

आज कुछ ऐसी ही बात है मेरे साथ
सोचने पर समझ आया है मुझे भी 

नहीं किया अभी तलक कुछ सार्थक
व्यतीत किया जीवन अपना निरर्थक 

लेकिन मुझे ठहरना नहीं यहां  पर
चलना है चलते जाना है तलाश में 

उस मंज़िल की जो कर रही  इंतज़ार
किसी मुसाफिर के आने का सदियों से । 
 

 

POST : 515 फिर वही ढंग हिंदी दिवस मनाने का ( बेबाक ) डॉ लोक सेतिया

  फिर वही ढंग हिंदी दिवस मनाने का ( बेबाक ) डॉ लोक सेतिया

               आज इक  मित्र  का  फ़ोन आया  , कल आपके शहर में आ  रहे  हैं  इक कवि सम्मेलन में  जो हिंदी दिवस  के उपलक्ष में स्थानीय कॉलेज में  इक समाचार पत्र आयोजित करवा रहे हैं। मैंने कहा अच्छी बात है आप आ रहे हैं तो मिलना अवश्य। उनको हैरानी हुई ये जानकर  कि मुझे अपने शहर के शायर को बुलाना नहीं याद रहा और पड़ोस के शहर से तमाम लोगों को बुलाया गया है। शायद ये इक प्रश्नचिन्ह है ऐसे हिंदी दिवस मनाने के औचित्य को लेकर। मगर मुझे ज़रा भी अचरज नहीं हुआ क्योंकि ये कोई पहली बार नहीं होने वाला  है। बहुत साल पहले साहित्य अकादमी के लोग राज्य भर में साहित्य चेतना यात्रा निकाल सभी शहरों में घूम रहे थे और फतेहाबाद में जिस दिन आये वो भी 1 4 सितंबर का ही दिन था हिंदी दिवस का। लेकिन साहित्य अकादमी वाले तब किसी स्थानीय लेखक से नहीं मिले थे न ही किसी को सूचित ही किया था। ज़िला प्रशासन को सूचित किया गया था और प्रशासन ने बाल भवन में अपनी आयोजित होने वाली मासिक बैठक की जगह पर मीटिंग से पहले जलपान की व्यवस्था कर दी थी और हिंदी दिवस मनाने की रस्म अदा कर दी गई थी। मुझे याद है मैंने साहित्य अकादमी को इस बारे इक पत्र लिखा था जो बेशक निदेशक जी को पसंद नहीं आया था और उनको सफाई देनी पड़ी थी कि जो हुआ उसकी ज़िम्मेदारी अकादमी की नहीं थी और बाकी सभी शहरों में प्रशासन ने स्थनीय लेखकों  को आमंत्रित किया था। वास्तव में हमारे प्रशासन की रिवायत यही रही है कि वो खुद कभी नहीं देखता कौन किस काबिल है , लोग जाते हैं उनको बताने कि हम कौन हैं क्या हैं , हमने क्या किया है और हमें पुरस्कार सम्मान दो , अतिथि बनाकर बुलाओ। मुझे राग दरबारी नहीं आता है , नहीं सीखना भी मुझे। ये बात सिर्फ हिंदी दिवस की ही नहीं है , सरकारी हर आयोजन इसी तरह ही किया जाता है। चाहे स्वतंत्रता दिवस हो या गणतंत्र दिवस , इक आडंबर किया जाता है चाहे वो मानव अधिकार की चर्चा ही क्यों न हो। मंच सरकार का आवाज़ भी सरकारी ही होती है , हर बार मालूम पड़ता है यहां कुछ भी नहीं बदला न ही शायद बदलेगा। कोई बदलना चाहता भी नहीं है , यथासिथति चाहते हैं वो जिनको नया कुछ करना भाता ही नहीं।  वही लोग वही बातें फिर से दोहराते रहते हैं। 

 

जुलाई 08, 2016

POST : 514 कुछ भी ठीक नहीं है सरकार ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

  कुछ भी ठीक नहीं है सरकार ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

                भ्र्ष्टाचार की खबर नहीं होना ही काफी नहीं है , उसका नहीं होना साबित किया जाना भी ज़रूरी है। बिना देखे प्रचारित करना कि मिट गया है भ्र्ष्टाचार जनता को धोखे में रखना है। आम आदमी जब सरकारी दफ्तर जाता है कोई शिकायत लेकर क्या तब उसको न्याय मिलता है ? नहीं। तब हर अधिकारी यही चाहता है शिकायत करने वाले को किसी तरह निपटाया जाये न कि उसकी परेशानी दूर की जाये। उसको टाला जाये या कहा जाये कि यहां नहीं वहां जाओ , और उलझाया जाता रहे। अदालतों में जाकर देखो आम लोग कितने परेशान हैं मगर उनको सालों साल न्याय नहीं मिलता। पुलिस थाने की बात सब जानते हैं , वहां जो नहीं हो वही कम है। इस देश में नेता अफ्सर धनवान और ख़ास लोगों को शायद ही सही गलत की कोई परवाह होती है , क़ानून को ये इक अनावश्यक वस्तु मानते हैं जिसकी कोई कद्र नहीं है। अख़बार हों या टीवी वाले उनको भी रोज़ की छोटी मोटी रिश्व्त की बात बेमानी लगती है क्योंकि उनको ये कभी देनी नहीं पड़ती है। पत्रकारिता का तमगा आपको एक सुरक्षा कवच देता है ताकि कोई आपसे छोटी छोटी बात पर पैसा नहीं मांग सके। प्रेस शब्द लिखा होना आपकी कार को चलान से बचाता है और आपको आम से ख़ास बना देता है। पत्रकारिता के मायने बदल गये हैं , खबर की परिभाषा भी। अब कोई पत्रकार खबर को ढूंढ़ता नहीं है , खबरें उस तक खुद आती हैं , जिनको खबर छपवानी हो खुद दे जाते हैं।

        अब किसी सरकार को गरीब आम आदमी की चिंता नहीं है , जिसको हर दिन रोटी कमानी होती है वो कैसे न्याय पाने को बार बार सरकारी अफसरों की हाज़िरी लगाता रहे बिना कोई समाधान पाये। और कभी अधिकारी आये नहीं , कभी मीटिंग में व्यस्त हैं जैसे बहाने सुन निराश होता रहे। अभी केंद्र सरकार के कर्मचारियों का वेतन बढ़ाया गया है जो औसत आम आदमी की आमदनी से पचास गुणा अधिक है , चाहे उसको और भी बढ़ा दो तब भी उनको ये कभी काफी नहीं लगता। उनको तब भी ऊपर की कमाई चाहिए।

इतना वेतन पाकर भी ये लोग अपना काम ईमानदारी से करना नहीं चाहते , क्या ये देशद्रोह नहीं है ? आज तक देश की जनता की हालत केवल इसी कारण नहीं सुधरी है क्योंकि पुलिस प्रशासन और नेताओं ने वो सब किया ही नहीं जो किया जाना था। विडंबना है इनको जो करना वो नहीं करने की कोई सज़ा ही नहीं मिलती है। किसी शायर ने भी कहा है :-

               वो अगर ज़हर देता तो सबकी नज़र में आ जाता ,
                 तो यूं किया कि मुझे वक़्त पर दवाएं नहीं दीं।

देश की जनता की भी बस इतनी ही शिकायत है , सरकार को जो करना था कभी किया ही नहीं। सब ठीक है के विज्ञापन हमेशा देखते रहे हैं लोग , सब ठीक हुआ नहीं कभी भी। कोई चाहता ही नहीं सब ठीक करना , उनकी कुर्सी उनके स्वार्थ कुछ भी ठीक नहीं होने से हैं। 

 

जुलाई 06, 2016

POST : 513 मेरा सुंदर सपना टूट गया ( कड़वा सच ) डॉ लोक सेतिया

  मेरा सुंदर सपना टूट गया ( कड़वा सच ) डॉ लोक सेतिया

                     दो साल हो गये हैं इंतज़ार करते करते , जनता को वो अच्छे दिन कहीं दिखाई नहीं देते। दिखाई देते हैं तो बस नित नये सरकारी विज्ञापन। भ्र्ष्टाचार मिटा दिया है ऐसा नवीन विज्ञापन आया है , तब तो देश ईमानदार समझा जाना चाहिये , फिर क्यों आज भी वहीं का वहीं है सूचि में बहुत नीचे। भ्रष्ट देशों में प्रथम आने की ओर। किसी ने वादा किया था राक्षसों का अंत करने का , राक्षस जैसे थे वैसे ही हैं , शायद सरकार ने उनका नामकरण फिर से कर कोई और नाम दे दिया है। बस एक नारे से समस्या हल हो जाती है , अगर देशवासी कूड़ा नहीं करें तो कोई गंदगी नहीं कर सकता। कूड़े के ढेर लगे हैं और स्वच्छ भारत के विज्ञापन भी। विज्ञापन में टीवी पर जनता को शर्मसार किया जाता है गंदगी करने को , सफाई करना सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं है , गंदगी मत करो का सबक पढ़ाना सरकार का काम है। लोग कूड़ा कहां डालें , शौच को कहां जायें ये सरकार का सरोकार नहीं है। रिश्वत बिना कोई काम नहीं होता तो क्या , आप रिश्वत दें ही नहीं रिश्वत का नामोनिशान मिट जायेगा , ऐसा विज्ञापन फिर से आना चाहिए। ये पहले भी हुआ था , दफ्तरों में रिश्वत नहीं देने की तख्तियां लगी थी। अब फिर से बापू के तीन बंदर सबक सिखायेंगे। गंदगी को मत देखो , भ्र्ष्टाचार है मत बोलो , सच कोई बोले कि सभी कुछ पहले सा ही है तो मत सुनो। लो जी अच्छे दिन आ गये हैं। बुरे दिन समाप्त नहीं हुए हैं , उन्हीं को अच्छे दिन घोषित कर दिया गया है। तानाशाही आज भी जारी है प्रशासन की सत्ताधारी नेताओं की , बस उसको लोकतंत्र नाम दे दिया है। बिना कुछ किये सभी कुछ हो गया है। चमत्कार है।
                          कुछ दोहे राजनीति के नाम पर :-

                             नतमस्तक हो मांगता मालिक उससे भीख
                             शासक बन कर दे रहा सेवक देखो सीख।

                             मचा हुआ है हर तरफ लोकतंत्र का शोर
                             कोतवाल करबद्ध है डांट रहा अब चोर।

                             नेता आज़माते रहे गठबंधन का योग
                              देखो मंत्री बन गये कैसे कैसे लोग।

                             झूठ यहां अनमोल है सच का ना व्योपार
                             सोना बन बिकता यहां पीतल बीच बाज़ार।

                             चमत्कार का आजकल अद्भुत है आधार
                             देखी हांडी काठ की चढ़ती बारम्बार।

जून 29, 2016

POST : 512 नया फैशन सरकार का ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

      नया फैशन सरकार का ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

                 सरकार का नया विज्ञापन आया है। ईमानदार सरकार का। अब ईमानदारी की सभी की अपनी परिभाषा होती है। मेरे शहर में बड़े अधिकारी की ईमानदारी यही है कि वो जिन से घूस लेता है उनको हर गलत काम खुल कर करने देता है। आप कितनी शिकायत करते रहो वो अपने कान बंद रखता है और आंखें भी। उसको किसी का अवैध कब्ज़ा नज़र आता ही नहीं न ही नियम तोड़ना , आप सड़क पर कब्ज़ा करें या फुटपाथ को रोक गंदगी फैलाते रहें आपको सब की अनुमति है। एक पुलिस अफ्सर नशा मुक्ति की बातें करता है और यह भी जानता है खुद उसका विभाग ही नशे का कारोबार करवा रहा है। जब किसी बस्ती के लोग शिकायत करते हैं और अफ्सर अपने अधीन अधिकारी को धंधा बंद कराने को कहता है और अधिकारी आदत के अनुसार कुछ नहीं करता तब अफ्सर को दिखाना होता है कि वह ईमानदार है। मगर जो पुलिस को बाकयदा हिस्सा देकर नशे का कारोबार करते हैं उनके प्रति अफ्सर भी ईमानदार होते हैं और जब ऐसे नशे की दुकान की शिकायत होती है तब खुद पुलिस के लोग खड़े होकर दूसरी जगह नई दुकान , या खोखा बनवा कारोबार चलाने वाले को अपनी ईमानदारी का सबूत देते हैं। नशे की लत से जब किसी की जान चली जाती है तब पुलिस का सभी अधिकारी खुद दखल देते हैं ताकि उस मौत को स्वाभाविक मृत्यु घोषित किया जा सके , ऐसे में सब चोर चोर मौसेरे भाई बन जाते हैं और डॉक्टर भी हार्ट अटैक से मौत होना घोषित कर देते हैं। सभी ईमानदार हैं , जिसकी खाते हैं उसकी बजाते हैं।

            इक अभिनेता ने इक राज्य में शराब बंदी पर बयान दिया कि वह उस राज्य में नहीं जाया करेंगे। उनका मानना है इस से अवैध ढंग से शराब बेचने वालों का धंधा चलता है और पीने वालों को अच्छी शराब नहीं मिलती है। बात तो ईमानदारी की है , यही होता है , देखा गया है। लेकिन बात सरकार की ईमानदार होने के विज्ञापन की हो रही थी। इक प्रधानमंत्री हुए हैं जिनके नाम के साथ भी ईमानदारी का तमगा लगा हुआ था , उनके काल में इतने घोटाले हुए इतना भ्र्ष्टाचार हुआ फिर भी उनका तमगा कायम रहा। जबकि वास्तव में जब एक कलर्क भी रिश्वत लेता है तब देने वाले को सरकार भ्रष्ट नज़र आती है। किस की चुनरी में दाग नहीं लगा , सभी कहते हैं लागा चुनरी में दाग छुपाऊं कैसे। अब तो लोग कहते हैं दाग अच्छे हैं। मगर जाने क्यों इस सरकार को चकाचक सफेद पोशाक पहनने का महंगा शौक चर्राया है जो ये विज्ञापन बनवा लिया है। मुझे भी कभी सफ़ेद पैंट - शर्ट पहनने का शौक हुआ करता था और जब भी पहनी बरसात हो जाती थी और कहीं न कहीं से कोई छींटा दागदार कर देता था। अब बरसात का मौसम भी आने को है , खुदा सरकारी पोशाक की लाज रखना। मगर चिंता की कोई बात नहीं है , हर फैशन दो दिन बाद बदल जाता है। मुमकिन है सरकार भी अभी से अगले विज्ञापन को लेकर चर्चा करने लगी हो। क्योंकि हर कुछ दिन बाद सरकार को लगता है उसका विज्ञापन अब ऐतबार के काबिल नहीं रहा और उसको बदल देती है। ये नया फैशन भी सरकार का जल्द ही बदलेगा उम्मीद तो यही है।
                                    नर्म आवाज़ भली बातें मुहज़ब लहज़े
                                    पहली बारिश में ही ये रंग उतर जाते हैं।

                                           ( किसी शायर का शेर है )

जून 13, 2016

POST : 511 ये किन लोगों की बात है ( मानवाधिकारों की बात ) डॉ लोक सेतिया

 ये किन लोगों की बात है ( मानवाधिकारों की बात ) डॉ लोक सेतिया

                  आज जैसे मेरे अंदर सोया हुआ कोई फिर से जाग गया । बहुत दिन से अखबारों में चर्चा थी 
 31 मई को फतेहाबाद में मानव अधिकार आयोग की सभा आयोजित होनी है । सोचा चलो चल कर देखते हैं शायद कुछ विशेष मिल जाये जो सार्थक हो । पता चला कि सैमीनार आलीशान बैंकट हाल में होना है क्योंकि सरकारी सभी इमारतों के हाल वातानुकूलित नहीं है , और बड़े बड़े लोग आने हैं भाषण देने को । जब मैं वहां पहुंचा तो देखा प्रवेश के मुख्य द्वार पर बैठे पुलिस वाले आम लोगों को दूसरे रास्ते से भेज रहे हैं । मैंने पूछा क्या सभा उधर हो रही है , तो बताया गया कि नहीं सभा तो यहीं ही है मगर , मैंने कहा , क्या ये दरवाज़ा ख़ास लोगों के प्रवेश के लिये सुरक्षित है । तब इक पुलिस वाले ने इशारा किया दूसरे को कि मुझे यहीं से अंदर जाने दे , और मैं भीतर चला गया । हाल भरा हुआ था और अधिकतर सरकारी लोग , पंचायतों के सदस्य , और तमाम बड़े तबके के लोग या संस्थाओं से जुड़े लोग ही नज़र आ रहे थे । जिन गरीबों मज़दूरों , घरों में दुकानों में काम करने वाले बच्चों को कोई अधिकार नहीं मिलता , उन में से कोई भी वहां नहीं दिखाई दिया मुझे । देखते ही किसी शानदार पार्टी का आयोजन जैसा प्रतीत हो रहा था । सभा शुरू हुई तो बात मानवाधिकारों की हालत पर चिंता की नहीं थी , संचालक अधिकारी लोगों की महिमा का गुणगान करने लगा था । मुझे इक मुल्तानी कहावत याद आई , तू मैनू महता आख मैं तैनूं महता अखेसां । उसके बाद आयोग के लोग बताते रहे कि दो तीन साल में ही हरियाणा का मानव आयोग एक कमरे से शुरू होकर आज एक पूरे भवन में काम कर रहा है । बिलकुल सरकारी विकास के आंकड़ों की तरह , जिसमें ये बात पीछे रह जाती है कि जिस मकसद से संस्था गठित हुई वो कितना पूरा हुआ या नहीं हुआ । बस कुछ सेवानिवृत लोगों को रोज़गार मिल गया , यही अधिकतर अर्ध सरकारी संस्थाओं में होता है जहां करोड़ों का बजट किसी तरह उपयोग किया जाता है , साहित्य अकादमी भी ऐसी ही एक जगह है ।

                  भाषण होते रहे और अधिकतर मानवाधिकारों के हनन की बात से इत्तर की ही बातें हुई । लगता ही नहीं कोई समस्या भी है किसी को मानवाधिकार नहीं मिलने की । अच्छा हुआ कोई पीड़ित खुद नहीं आया वहां वरना निराश ही होता , जो कुछ लोग थोड़ी समस्याएं लेकर गये उनको भी पुराने सरकारी ढंग से स्थानीय अफ्सरों से मिलने की राय दी गई । और जिनकी शिकायत उन्हीं को हल निकालने की बात कह कर समस्या का उपहास किया गया जैसे । तीन चार घंटे चले कार्यक्रम में कहीं भी चिंता या मानवाधिकारों की बदहाली पर अफसोस जैसा कुछ नहीं था , मानों कोई दिल बहलाने को मनोरंजन का आयोजन हो । बार बार संवेदना शब्द का उच्चारण भले हुआ , संवेदना किसी में कहीं नज़र नहीं  आई । वास्तव में ये सभी वो लोग थे जिनको कभी जीवन में अनुभव ही नहीं हुआ होगा कि जब कोई आपको इंसान ही नहीं समझे तब क्या होता है । पता चला ये आयोग राज्य के बड़े सचिव मुख्य सचिव स्तर के अधिकारियों को सेवानिवृत होने के बाद भी पहले की ही तरह सरकारी सुख सुविधा पाते रहने को इक साधन की तरह उपयोग किया जाता है । जो सरकार सत्ता की अनुकंपा से ऐसा रुतबा पाते हैं उन्हीं से अपेक्षा रखना कि नागरिक को सरकार और अधिकारी वर्ग से वास्तविक मानवाधिकार दिलवाने का कर्तव्य निभाएं इक मृगतृष्णा जैसा है । न्यायधीश तक सेवा काल खत्म होने के बाद अपने लिए सब कुछ पाने को इसका उपयोग करते हैं । शायद ही किसी को वास्तविक मकसद की कोई परवाह है । अंधी पीसती है कुत्ते खाते हैं की कहावत सच लगती है , शिक्षित लोग देश समाज की नहीं अपनी चिंता करते हैं और उनको अपने सिवा कोई नज़र आता नहीं है । ये जो लिखा उस दिन सामने देखा वास्तविकता है मानवाधिकार क्या हैं शायद अभी हमारे देश में किसी ने समझा ही नहीं है । आडंबर करना हमारी आदत बन गई है जो कभी हमारे समाज की परंपरा नहीं रही है । 
 

 

जून 12, 2016

POST : 510 फिर से इक बार ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

    फिर से इक बार ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

हमारी आंखों पर
बंधी हुई थी कोई पट्टी ।

और हम कोल्हू के बैल बन कर
रात दिन चलते गये चलते गये
पहुंचे नहीं कहीं भी
थे चले जहां से रहे बस वहीं ही ।

सोच रहे हैं अब
उतार फैंकें इस पट्टी को
और चल पड़ें
नई राह बनाने को जीवन की ।

ताकि बर्बाद न होने पायें
बाकी बचे पल जीवन के ।

शायद अभी भी
अवसर है हमारे पास

कुछ फूल खिलाने का
कुछ दीप जलाने का

कोई साज़ बजाने का 
कोई गीत गुनगुनाने का । 
 

 

जून 09, 2016

POST : 509 रास्ता अंधे सबको दिखा रहे ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

    रास्ता अंधे सबको दिखा रहे ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

                बहुत शोर करते हैं वो जब भी उनको लगता है कोई उन्हें मनमानी नहीं करने देता। बस तभी उनको विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की याद आती है। किसी और को भी आज़ादी है कुछ कहने की ये नहीं सोचते वो कभी भी। टीवी और सिनेमा का जितना दुरूपयोग इसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किया जा रहा है उतना शायद ही सही मकसद से हुआ हो। क्या ये भी अभिव्यक्ति की आज़ादी ही है कि जब आपकी फिल्म को जैसा आपने बनाया उसी तरह अनुमति नहीं मिलने पर आप निजि आरोप लगाने लग जाओ अथवा बिना जाने समझे किसी का समर्थन करने लगो। इक अभिनेता का ब्यान देखा जिसमें उनका कहना था , मुझे इस बारे जानकारी तो नहीं है मगर सिनेमा पर कोई बंदिश नहीं होनी चाहिए। अर्थात इनको सब करने की छूट होनी चाहिए , वास्तव में यही तो है , इनसे कोई नहीं पूछता आपने क्या किया। सही या गलत। क्या दिखा रहे हैं मनोरंजन के नाम पर। महिलाओं के प्रति बढ़ती दूषित मानसिकता का प्रमुख कारण आप हैं। फिल्म ही नहीं समाज में कहीं भी किसी भी मंच पर आप औरत को मात्र इक वस्तु की तरह देखते हैं दिखाना चाहते हैं। कभी फुर्सत मिले तो सोचना आपने कैसे आदर्श प्रस्तुत किये हैं। ज़रा पुरानी फिल्मों को देखना जिन में समाज की समस्याओं पर सार्थक कहानियों की फ़िल्में बनी थीं , और फिर देखना आज की बनी फिल्में और उनका संगीत। शायद समझ आये आप कितना नीचे गिर चुके हैं। जब सफलता और बॉक्स ऑफिस सफलता ही एक मात्र ध्येय हो तब और क्या हो सकता है। फिल्म उद्योग धनवान हुआ होगा पैसे से मगर विचारों से नहीं , शायद कंगाल हो चुका है।

          वास्तव में सब कुछ पाने की भूख ने इनको विवेकशून्य कर दिया है और सही या गलत की समझ ही बाकी नहीं रही है इनको। इनको फिल्मों में अभिनय ही नहीं करना विज्ञापन भी करने हैं पैसे के लिए और विज्ञापन झूठे हैं या लोगों को नुकसान देते हैं , अंधविश्वास को बढ़ावा देते हैं या भर्मित करते हैं , इनको क्या मतलब। इस के बावजूद ये महान लोग हैं , कुछ भी बेचते हैं वो भी जो नहीं बिकता तो अच्छा था। अब तो इनको राजनिति भी करनी है भले राजनिति की समझ भी नहीं हो। इनको तो सांसद बनना है ताकि इक तमगे की तरह नाम के साथ ये शब्द भी जुड़ सके।

                                   रास्ता अंधे सबको दिखा रहे ,
                                   इक नया कीर्तिमान हैं बना रहे।

                                   सुन रहे बहरे बड़े ध्यान से ,
                                   गीत मधुर गूंगे जब हैं गा रहे।
                                   

जून 08, 2016

POST : 508 पापी पेट का सवाल है बाबा ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

    पापी पेट का सवाल है बाबा ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

                इक विज्ञापन देख रहा हूं कुछ दिन से टीवी पर , कुछ बच्चे आते हैं इक बूढ़े आदमी के घर , देखते ही वो कहता है , कल ही बोल दिया था मैं इस बार ईद पर ईदी नहीं दे पाऊंगा। बच्चे अपनी अपनी गुल्लक साथ लाये होते हैं , कहते हैं इस बार ईदी वो देंगे , मगर आपको नहीं घर को। तब फ़िल्मी अभिनेता शाहरुख़ खान आते हैं और घर को पेंट करने सजाने का काम करते हैं। इस विज्ञापन में बहुत कुछ छिपा है , लगता है लोग बड़े संवेदनशील हैं किसी की हालत देख खुद चले आये हैं सहायता को। मगर पता चलता है उनको इंसान की भूख की बदहाली की चिंता नहीं है , चिंता  है घर की सजावट की रंग रोगन की। क्योंकि वही दिखाई देता है सभी को , आदमी के दुःख कहां देखता है कोई। सरकारी विज्ञापन भी इस से अलग नहीं हैं। गरीबों की रोटी की खातिर रोटी पर और टैक्स बढ़ा देती है। जो भी काम करती है मुनाफे का ही करती है , हर बार उसका खज़ाना और भर जाता है। जब कोई व्यापार करता है तब वो कुछ भी अपने पास से देता नहीं है , जितनी कीमत की वस्तु होती है उस से अधिक ही वसूल करता है , तभी उसका मुनाफा कभी कम नहीं होता। शायद बाबा रामदेव भी यही कहते हैं , वो जो भी कमाई करते हैं समाज सेवा के लिए ही करते हैं। ये समाज सेवा और धर्म शब्द हज़ारों साल से छलते आ रहे हैं लोगों को। भगवान के मंदिर मस्जिद गिरजाघर गुरूद्वारे अगर बांटते तो कब के खाली हो जाते उनके कोष , मगर उनकी दौलत है कि बढ़ती ही जाती है। मतलब साफ़ है छीनते अधिक हैं बांटते कम ही हैं। देने वाला कौन है ? सभी तो खुद और जमा करना चाहते हैं , चाहे जनहित की बात करती सरकार हो या दया धर्म की बात करते खुदा को बेचने वाले लोग। राजनेताओं और सरकारी लोगों के ठाठ बाठ गरीब देश की जनता के दम पर हैं तो इन धर्म के कारोबारियों की ऐश भी उन्हीं से ही है। सभी को आपके दुःख दर्द को बेचना है अपने धंधे की खातिर।

       मधरी दीक्षित जी के पति डॉक्टर हैं और उनको पता होगा कि किसी टॉनिक से आपका बच्चा बिमार होने से बच नहीं सकता है और विज्ञापन जिस टॉनिक का करती हैं खुद अपने बच्चों को शायद ही खिलाना चाहती हों। मगर उनको अभिनय से नहीं तो किसी तरह से आमदनी करनी है और जब कोई किसी को सलाह अपने मतलब को देता है तो केवल अपने हित की बात सोचता है। बच्चन जी को परेशानी हो तो क्या उस तेल की मालिश करवाते हैं जिसका विज्ञापन किया करते हैं। विज्ञापन करने वाले पैसे लेकर झूठ बोलते हैं जैसे अदालत में झूठी गवाही देने वाले हर बार अपराध के समय उस जगह उपस्थित होते हैं। कसम खाकर झूठ बोलना पाप नहीं कमाई का साधन है और धंधे का कोई धर्म नहीं होता धंधा खुद सबसे बड़ा धर्म है कहने वाले समझाते हैं कि ईमान नाम की चीज़ कभी हुआ करती थी आजकल पैसा सबका भगवान है। करोड़ों की आमदनी वालों को उचित अनुचित की बात की परवाह नहीं होती है उनकी तिजोरी भरनी चाहिए।

मई 22, 2016

POST : 507 हैं कहां ऐसे भले लोग ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

        हैं कहां ऐसे भले लोग ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

          समझ नहीं आता सच क्या है बनावट क्या है। अभी देखा इक टीवी शो में भाई भाई से बेइंतेहा प्यार करते हैं , बहन से दोस्तों से माता पिता से। देखते हैं किसी की दुःख भरी दास्तान सुन कर  सभी भावुक हो जाते हैं , आंखें हमारी भी नम हो जाती हैं। मगर यही सब अपने आस पास जीवन में नहीं दिखाई देता , किसी को किसी से कोई मतलब ही नहीं है। हमें क्या बस यही नज़र आता हर किसी की निगाह में। नतीजे घोषित हुए और हर प्रथम द्वितीय रहने वाले लड़के लड़की का यही बयान था कि डॉक्टर शिक्षक आई ए एस , आई पी एस बन देश की सेवा करना चाहते हैं। उम्र भर यही सुनता आया हूं और फिर तलाश करता रहा कि वो कहां गये जिनका ऐसा ईरादा था। नेता भी देखे सभी दलों के बड़ी बड़ी बातें करते हुए मगर जब सत्ता मिली तब केवल अपनी सत्ता को स्थापित रखने या विस्तार देने की ही बात करते रहे या फिर आये दिन नये नये तमाशे जनता को बहलाने को दिखाते रहे। कुछ भी बदलना किसी की प्राथमिकता नहीं था। आज तक किसी भी नेता को ये बात अनुचित नहीं लगी कि जिस देश के करोड़ों लोग भूख और बदहाली के शिकार हों उस देश के जनप्रतिनिधि को खुद पर इतना धन खर्च करना किसी संगीन अपराध से कम नहीं है। ये कैसा लोकतंत्र है जिसमें लोक को तंत्र खाये जा रहा है। ऐसे देश का राष्ट्रपति इक ऐसे महल में रहे जिसके सैंकड़ों कमरे हों और उस के रख रखाव पर करोड़ों रूपये मासिक अथवा लाखों रूपये हर दिन खर्च किये जाते हों , जितने पैसे से हज़ारों भूखे लोगों का पेट भर सकता हो। अर्थशास्त्र के अनुसार जब एक को इतना अधिक मिलता है तब लाखों करोड़ों से किसी तरह छीन कर ही मिलता है। आज जितने भी तथाकथित बड़े लोग महानायक समझे जाते हैं वो केवल अपनी मेहनत से नहीं बल्कि तमाम हथकंडे अपना कर और किसी भी तरह सफल होकर केवल अपने लिये और अधिक पाने की कोशिश से शिखर पर पहुंचे हैं , और खुद उनको भी नहीं पता कि कितने इसलिये पीछे या वंचित रह गये क्योंकि उनको कुछ भी नहीं मिला तभी हमें ज़रूरत से अधिक मिला है।  और ये तकदीर की बात नहीं है , सभी को समानता के अधिकार नहीं मिलने की बात है। जब ऐसे धनवान लोग आडंबर करते हैं गरीबों की सहायता का तब ये इक क्रूर मज़ाक होता है गरीबों के साथ। हम ये सब अपने मुनाफे के लिये नहीं समाज सेवा के लिये कर रहे हैं , ऐसा दावा करने वालों की हवस कभी पूरी नहीं होती , उनको सभी कुछ बेचना है जो भी बिक सके।

                   धर्म के नाम पर संचय क्या धर्म यही सिखाता है , आपके मंदिर मठ आश्रम दौलतों के अम्बार जमा करते हैं जबकि लोग दाने दाने को तरसते हैं , बेघर हैं बेइलाज मरते हैं। ऐसे धर्म ऐसे भगवान किस काम के। शिक्षा के मंदिर कहलाने वाले शिक्षा को बेच रहे हैं तो उनसे कोई उम्मीद कैसे की जा सकती है , चिक्तित्स्या के नाम पर भी यही होने लगा है , क्या शिक्षा और उपचार केवल धनवानों के लिये है। जब सरकार इन बातों की अनदेखी करे तब देश की भलाई कैसे हो सकती है। इक अंग्रेज़ी कहानी " हाउ मच लैंड ए मैन नीड्स " याद आती है , गांधी जी ने भी कहा था देश में सभी की ज़रूरत पूरी करने को बहुत है मगर किसी की हवस को पूरी करने को काफी नहीं है। बस कुछ लोगों की हवस कभी नहीं मिटती तभी बाकी लोग भूखे प्यासे हैं। आपने देवता और दैत्यों की कथायें सुनी होंगी मगर इनकी परिभाषा शायद ही समझी हो। जो अपने पास जितना है औरों को बांटते हैं वो देवता कहलाते हैं , और जो बाकी लोगों से उनका सभी कुछ छीन लेना चाहते हैं वो दैत्य कहलाते हैं। विश्व में अधुक्त्र दानव ही शासन करते रहे हैं , देवताओं को कभी शासन की चाह ही नहीं होती है। राजनीति में सज्जन पुरुष बेहद कम हुए हैं और वो कभी शासन की गद्दी पर नहीं आसीन हुए हैं।

मई 08, 2016

POST : 506 मुझे सज़ा दे दो ( मंथन ) ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

    मुझे सज़ा दे दो ( मंथन ) कविता    डॉ लोक सेतिया

कब से खड़ा हूं कटघरे में
सुन रहा हूं इल्ज़ाम सभी के
सर झुकाये खड़ा हुआ हूं 

नहीं है कोई भी जवाब देने  को
मानता हूं नहीं पूरे कर पाया
सभी अपनों के अरमानों को 

हो नहीं सका कभी भी जीवन में सफल
टूट गये सभी ख्वाब मेरे ।

कभी कभी सुनता हूं
किसी को हर कदम
किसी ने दिया प्रोत्साहन ,
कुछ भी करने को देकर बढ़ावा
किया भरोसा उसकी काबलियत पर ।

लगता है तब मुझे कि
शायद कोई तो कभी
 
मुझे भी कह देता प्यार से
बेशक सारी दुनिया
तुमको समझती है
नासमझ और नाकाबिल
 
मुझे विश्वास है तुम्हारी लगन
और कभी हार नहीं मानने की आदत पर ।

बस इतना ही मिल जाता
तो शायद मैं कभी भी
नहीं होता नाकामयाब ।

कैसे समझाता किसी को
किसलिये हमेशा रहा
डरा सहमा उम्र भर 

मेरा आत्मविश्वास
बचपन से ही कभी
उठ नहीं सका ऊपर 

खुद को समझता रहा मैं
अवांछित हर दिन हर जगह हमेशा ।

इक ऐसा पौधा
जो शायद उग आया
अनचाहे किसी वीरान जगह पर
जहां कोई नहीं था
देखभाल करने वाला
बचाने वाला आंधी तूफान से ।

हर कोई कुचलता रहा
रौंदता रहा मुझे
बेदर्दी से कदमों तले
कोई बाड़ नहीं थी मुझे बचाने को ।

बेरहम ज़माने की ठोकरों से
बार बार उजड़ता रहा
फिर फिर पनपता ही रहा
अपनी बाकी जड़ों से
और बहुत बौना बन कर रह गया
इक पौधा जिस पर थे सूखे पत्ते ही ।

कभी ऐसा भी हुआ
जिनको मुझ से
कोई सरोकार ही नहीं
किसी तरह का
उनकी नज़रों में भी
मुझे नज़र आती रही हिकारत ।

छिपी मीठी बातों में भी
किसलिये लोग अकारण ही
किया करते हैं मुझ जैसों को प्रताड़ित
जाने क्या मिलता उनको
औरों का दिल दुखा कर हमेशा ।

चाहता था मैं भी सफल होना
सभी की उम्मीदों पर
खरा साबित होना 

शायद ज़रूर हो जाता कामयाब
जीवन में अगर कोई एक होता जो
मुझे समझता मुझे परोत्साहित करता ।

मेरा यकीन करता
और मैं कर सकता
हर वो काम जो
कभी नहीं कर पाया आज तक ।

मगर आज मुझे नहीं देनी
कोई भी सफाई
अपनी बेगुनाही की
खड़ा हूं बना मुजरिम
सभी की अदालत में
कटघरे में सर झुकाये ।

मांगता हूं सज़ा
अपने सभी किये अनकिये
अपराधों की खुद ही 

मुझे सज़ा दो जो भी चाहो मुझे मंज़ूर है
आपकी हर सज़ा मगर बस अब
अंतिम पहर है जीवन का 

बंद कर दो और आरोप लगाना
गुनहगार हूं मैं मुझे नहीं मालूम
क्या अपराध है मेरा
शायद जीना ।