सितंबर 21, 2016

इक पाती अपने परमात्मा के नाम ( फरियाद ) डॉ लोक सेतिया

 इक पाती अपने परमात्मा के नाम ( फरियाद ) डॉ लोक सेतिया

         क्या संबोधन दूं  नहीं जानता , विनती कहूं या फरियाद नहीं मालूम ये भी , इतना जनता हूं शिकायत नहीं कर सकता , मुझे किसी से भी गिला शिकवा शिकायत करने का कोई अधिकार ही नहीं है , बहुत की है शिकायतें उम्र भर हर किसी से , बिना एक भी शब्द बोले ही , साहस ही नहीं है मुझ में अपनी बात कहने का , इस तरह डर डर कर जिया हूं हमेशा , लोग जाते हैं मंदिर मस्जिद गिरजा गुरूद्वारे , मैं भी जाकर देखा है बहुत बार , सच कहता हूं अक्सर लगता भी रहा है , तुम हो वहीं कहीं मेरे आस पास ही , जब भी परेशानी में तुम्हारे सामने जाकर रोया हूं मैं , बस इक सुकून सा मिलता लगा है , तब मेरे अविश्वास और आस्था में आस्था भारी रही है , लेकिन फिर भी सोचता ज़रूर हूं , क्या वास्तव में तुम समझते हो सभी के दुःख-दर्द , कभी कभी लगता है शायद मेरी कमज़ोरी रही है , भरोसा रखना कि तुम ज़रूर कभी न कभी , मुझ पर दया करोगे रहम करोगे , और मुझे बेबसी भरा जीवन जीने से , अगर निजात नहीं भी दिल सको तो कम से कम , मुझे मुक्त ही कर दोगे ऐसे मौत से बदतर जीने से , मंदिर और गुरूद्वारे जाकर लगता है , कितना शोर है वहां पर तुम्हारे गुणगान का , तुम खुश होते होगे देख भक्तों की भीड़ , नहीं सुनाई देती होगी मुझे जैसे बदनसीब की विनती , मेरी प्रार्थना में छुपा दर्द नहीं समझ सके हो कभी भी , मुझे नहीं मालूम तुमने मुझे दी है सज़ा , इस जन्म के बुरे कर्मों की जो शायद , मुझ से हुए भी हालात की विवशता के कारण , या फिर कोई हिसाब पिछले जन्म का बाकी था , जो चुकाना ही पड़ता है सब को , मगर फिर भी हमेशा इक उम्मीद रही है , शायद किसी दिन तुमको समझ आ ही जाये , हम जैसे बेबस लोगों की बेबसी पर तरस , सुना तो है दयालु हो कृपालु हो तुम , क्षमा भी करते हो जब कोई पश्चाताप करता  है , मुझे नहीं आया कभी शायद मनाना तुझे , मेरी आस्था में भी रही है कुछ न कुछ तो कमी  , आज सोचा लिखता हूं इक पाती तेरे नाम भी , अक्सर लिखता रहता हूं मैं हर किसी को पत्र , लोग कहते हैं मुझे बहुत अच्छी तरह आता है ये , और तो मुझे कुछ भी नहीं आया आज तक , हर काम में असफल ही रहा हूं मैं , हो सकता है ये पाती पढ़कर ही तुम भी , जान सको मेरे दिल का हाल , मगर कठिनाई है अभी भी , मुझे नहीं पता किस पते पर कैसे भेजूं ये खत मैं , कोई डाकघर का पता है न कोई   ई-मेल  ही , खुद ही पढ़ना तुम अगर मिले कभी फुर्सत तो , जवाब तो नहीं दोगे इतना तो जनता हूं  , हां लेकिन आना तो है मुझे शायद जल्दी ही , पास तुम्हारे इक न इक दिन तो , तब इतना तो बताना क्या मेरा पत्र पढ़कर भी , तुझे नहीं आया था मुझ पर ज़रा सा भी रहम , नहीं भगवान कुछ भी हो तुम बेरहम तो नहीं हो सकते , बहुत कुछ लिख दिया है आज , लिखने का अधिकार है भी या नहीं , सोचे बिना ही क्योंकि सुना है , दाता से कर सकते हो मन की हर बात , स्वीकार करे चाहे नहीं भी करे , तब भी सभी को फरियाद करने का अधिकार तो है , बस मुझे नहीं मालूम क्या हासिल होता है  इस से , मगर इक कसक थी मन में किसी दिन तुमसे ये बातें कहने की , पहली बार भी और शायद आखिरी बार भी , लिखी है ये पाती मैंने खुदा परमात्मा ईश्वर अल्लाह वाहेगुरु तुझ को , जनता हूं ये तरीका नहीं है दुनिया वालों का , तुझ से अपनी बात करने का , मुझे नहीं मालूम कैसे करते अर्चना अरदास विनती प्रार्थना , जो हो जाती मंज़ूर भी तुझको।  

 

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