सितंबर 14, 2016

इंतज़ार में है मंज़िल ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

 इंतज़ार में है मंज़िल ( कविता )   डॉ लोक सेतिया 

कभी कभी सोचते हैं हम
क्या खोया है क्या पाया है
 
क्या यही था हमारा ध्येय
क्या यही थी हमारी मंज़िल 

और शायद अक्सर सोच कर 
लगता है जैसे अभी तलक हम 

भटकते ही फिरते हैं इधर उधर
बिना जाने बिना समझे ही शायद 
रेगिस्तान में प्यासे मृग की तरह ।

तब रुक कर करना चाहिये मंथन
आत्मचिंतन और विशलेषण 

तभी कर सकेंगे ये निर्णय हम कि
किधर को जाना है अब हमें आगे  

और तय करना होगा फिर इक बार 
कौन सी है  मंज़िल कौन सी राह है
जिस पर चल  कर जाना है हमें ।

आज कुछ ऐसी ही बात है मेरे साथ
सोचने पर समझ आया है मुझे भी 

नहीं किया अभी तलक कुछ सार्थक
व्यतीत किया जीवन अपना निरर्थक 

लेकिन मुझे ठहरना नहीं यहां  पर
चलना है चलते जाना है तलाश में 

उस मंज़िल की जो कर रही  इंतज़ार
किसी मुसाफिर के आने का सदियों से ।