फिर से इक बार ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
हमारी आंखों परबंधी हुई थी कोई पट्टी।
और हम कोल्हू के बैल बन कर
रात दिन चलते गये चलते गये
पहुंचे नहीं कहीं भी
थे चले जहां से रहे बस वहीं ही।
सोच रहे हैं अब
उतार फैंकें इस पट्टी को
और चल पड़ें
नई राह बनाने को जीवन की।
ताकि बर्बाद न होने पायें
बाकी बचे पल जीवन के।
शायद अभी भी
अवसर है हमारे पास
कुछ फूल खिलाने का कुछ दीप जलाने का
कोई साज़ बजाने का कोई गीत गुनगुनाने का।
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