घायल लोकतंत्र की चिंता ( खरी-खरी ) डॉ लोक सेतिया 
जब शुरुआत ही विवादित प्रस्ताव से कर रहे हैं जिस में संविधान और लोकतंत्र की चिंता से बढ़कर सत्ता का स्वर बुलंद कर विपक्ष की आवाज़ को चुप करवाने की भावना दिखाई दे रही थी तब भविष्य में क्या नहीं होगा कोई भविष्यवाणी करना कठिन है । जिस आपात्कात के चीथड़े तक जनता ने अपने हाथ से ख़ाक में मिला दिए थे चुनाव में ऐसा सबक सिखाया था कि अच्छे अच्छों की ज़मानत तक ज़ब्त हो गई थी आज उसकी निंदा करने से कुछ भी हासिल नहीं होगा सिर्फ संसद को आमने - सामने खड़ा कर बांटने का प्रयास है ताकि शासक दल पर कोई संविधान से खिलवाड़ नहीं करने की अपेक्षा जताए तो ईंट का जवाब पत्थर से देना का कार्य किया जाए । कुछ लोग पुराने ज़ख्मों को कुरेदते रहते हैं भरने नहीं देना चाहते क्योंकि उनको मरहम लगाना नहीं आता है । निंदा करने को बहुत कुछ सत्ता पक्ष के खिलाफ भी है लेकिन समझदार लोग पुराने अनुभव और इतिहास से सबक लेते हैं उनको दोहराते हैं तो खुद शर्मसार होते हैं । सत्ताधारी कुछ कहे विपक्ष कुछ कहे तो सदन के अध्यक्ष को अपने पद की गरिमा कायम रखते हुए कोई रास्ता तलाश करना चाहिए । खुद अध्यक्ष जब टकराव की बात करने लगे तो देश संविधान लोकतंत्र की चिंता नहीं कोई छुपी हुई ऐसी मानसिकता है जो कदापि उचित नहीं है । आपको आग बुझानी है मगर आप चिंगारी को हवा देने लगे हैं बीते हुए कल की वर्तमान को ही नहीं भविष्य को भी सज़ा देने लगे हैं । कोई भी ऐसी शुरुआत की प्रशंसा कभी नहीं कर सकता है अर्थात संसद के नवनिर्वाचित अध्यक्ष का ये कार्य कोई शुभ संकेत नहीं है । 
 
किसी शायर की नज़्म है अख़बार में छपी हुई :-  
 चीथड़े में हूँ भले पर हिंदुस्तान हूँ ( नज़्म ) दंडपानी नाहक 
कहते हैं देश का मान सम्मान हूँ
                                                                 
                            
                                                                 
                            
मैं अन्नदाता हूँ गरीब किसान हूँ । 
                                                                 
                            
मेरी फटेहाली का सबब कोई हो
                                                                 
                            
                                                                 
                            
चीथड़े में हूँ भले पर हिंदुस्तान हूँ ।  
 
ये नया सूरज पहले मुझे खायेगा
                                                                 
                            
                                                                 
                            
क्षितिज तक फैला जो आसमान हूँ ।  
                                                                 
                            
                                                                 
                            
                                                                 
                            
मेरी स्थिति में परिवर्तन क्यों होगा
                                                                 
                            
                                                                 
                            
रहनुमां अंधे मेरे और मैं बेज़ुबान हूँ ।  
इज़्ज़त की मौत तो दे ऐ मुल्क मेरे
                                                                 
                            
                                                                 
                            
मैं सदियों से तेरा जो मेहरबान हूँ । 
 
अजीब दौर है इसका ग़ज़ब का तौर है , ख़ुद बनाने से पहले तोड़ने पर लगाया ज़ोर है । एकता भाईचारा समाज की समानता की नहीं परवाह किसी को बस यही लक्ष्य है बाहुबली है कौन कौन बड़ा कमज़ोर है । हर किसी से कई गलतियां हो जाती हैं लोग उनको सज़ा भी देते हैं और कभी आवश्यकता होने पर क्षमा भी कर इक अवसर भी देते हैं । जनता सभी का हिसाब रखती है कौन कितना गुनहगार है हर सवाल का जनता जवाब रखती है । यहां राजनीति में कोई भी मसीहा नहीं है कुछ के अपराध साबित हो गए कुछ के जुर्म साबित नहीं हुए मगर लोग जानते हैं किस ने दंगे करवाए किस ने धर्म के नाम पर लोगों को बांटने का अपराध किया । देश की आज़ादी से पहले जिस ने मुखबरी की खुद स्वीकार किया अपनी गलती को नादानी समझ सभी ने उस को इसी संसद में बड़े पद पर बिठाया भी , कभी किसी ने निंदा प्रस्ताव की बात नहीं की क्योंकि जो बीत गई सो बिसार आगे की सुध लेना समझदारी है । अभी भी कितने नेता हर दल में हैं जिन पर कितने ही गंभीर आरोप हैं मगर हर दल ने उनको किनारे नहीं लगाया जनहित और न्याय को महत्व देते हुए , चुनावी लाभ की खातिर पापियों का पाप धोते धोते ये संसद की गंगा कब की मैली हो चुकी है इस को अपराधियों से मुक्त करवाने का संकल्प किसी को याद नहीं है । अपनी सरकार बचाए रखने को अपने दल के नेताओं की निंदा नहीं कर उनका बचाव करते रहना क्या इस की निंदा नहीं की जानी चाहिए । सबसे पहले उनकी घोर निंदा का प्रस्ताव लाया जाना चाहिए जिन्होंने उन महान नेताओं की छवि खराब करने की कोशिश की जिन्होंने अपना सारा जीवन देश की आज़ादी और लोकतंत्र को कायम रखने में लगाया था । खुद अटल बिहारी बाजपेयी जी ने जिनको सबसे लोकप्रिय और शानदार बताया और जिस ने प्रधानमंत्री पद पर रहते सभी विपक्षी नेताओं को आदर दिया उनकी बातों को महत्व दिया कभी खुद को महिमामंडित नहीं करवाना चाहा आज कौन उनकी बराबरी कर सकता है । देश की राजनीति आज किस सीमा तक भटक कर आदर्श और नैतिकता के निचले पायदान पर खड़ी हुई लगती है । धरती के ज़ख्मों पर मरहम नहीं लगा सकते हैं तो नमक छिड़कने की बात मत करो , अहंकार को छोड़ कर भविष्य की सुंदर कामनाओं से सद्भावना पूर्वक आचरण अपनाने की ज़रूरत है । 
 
शायद लोग आईना नहीं देखते अन्यथा पता चलता कि खुद उन्होंने क्या क्या नहीं किया जो देश समाज और संविधान के अनुसार किया नहीं जाना चाहिए था । किसी और के चेहरे पर लगा दाग़ दिखाई देता है अपनी कालिख़ ढकी हुई दुनिया को दिखाई नहीं भी दे तब भी ज़मीर जानता है कौन दूध का धुला है । इतिहास की गलतियों से सबक सीखना उचित है मगर उनका उपयोग राजनीतिक द्वेष से करने से किसी का भी भला नहीं हो सकता है । अपने गुण अपने अच्छे कार्य को छोड़ किसी की कमियों का शोर मचाने से कोई व्यक्ति गुणी नहीं कहलाता है । नकारात्मक राजनीति से देश समाज का कभी कल्याण नहीं हो सकता है । लोकतंत्र में जीत हार को विनम्रतापूर्वक स्वीकार करना चाहिए अन्यथा प्रतीत होता है कि जनमत को समझने के बजाय अपने वर्चस्व को किसी भी तरह कायम रखने की ज़िद में अनावश्यक दीवार खड़ी करने का प्रयास किया जा रहा है ।   डॉ बशीर बद्र कहते हैं । 
 
इस तरह साथ निभाना है दुश्वार सा , 
तू भी तलवार सा मैं भी तलवार सा ।  

  
 
2 टिप्पणियां:
Bdhiya lekh...Biti bato ko chhodkar aage badna chahiye
👍👌
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