जून 03, 2024

पर्दे के पीछे क्या है ( एग्ज़िट पोल सर्वेक्षण ) डॉ लोक सेतिया

   पर्दे के पीछे क्या है  ( एग्ज़िट पोल सर्वेक्षण  ) डॉ लोक सेतिया  

घूंघट की प्रथा भले आपको जैसी लगती हो सिर्फ इक बंधन नहीं थी और ऐसा महिलाओं की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ अथवा उनकी आज़ादी का हनन करना नहीं था । आपको अच्छा लगता है फ़िल्मी डायलॉग दो चुटकी सिंदूर की कीमत तुम क्या जानो रमेश बाबू । सोचना ज़रूरी नहीं समझा कि कभी कभी कुछ चीज़ों का महत्व ही किसी बंधन की मर्यादा में होता है । बिल्कुल इसी तरह से वोट की गोपनीयता चुनाव की पवित्रता और देश में लोकतंत्र की सुरक्षा के लिए अनिवार्य है । सबको उत्सुकता हो सकती है होने वाली संतान लड़का है या कि लड़की है लेकिन जब लगा समय से पहले ये जानकारी बेहद हानिकारक है तो इस पर प्रतिबंध लगाना पड़ा हालांकि अभी भी जिनको मनमानी करनी है वो नहीं मानते और कुछ लोग पैसे की खातिर कानून क्या किसी भी तरह से खिलवाड़ करने में संकोच नहीं करते हैं । खेल प्रतियोगिता में भाग लेने से पहले जांच की जाती है कि किसी ने कोई ऐसी दवा तो नहीं ली हुई जिस से उसे अनुचित तरीके से अपनी ताकत बढ़ाकर छल कपट कर आगे बढ़ने को बाकि सभी को टंगड़ी मारने का अवसर मिले जो सामने दिखाई भी नहीं दे । लोकतंत्र की मर्यादा का चीरहरण चुनाव घोषित होते ही लोग करने लगते हैं । टीवी अख़बार वालों के लिए किसी का पक्ष बेशर्मी से लेकर चर्चा से जिसे चाहा उसे अच्छा बुरा या फिर नीचा दिखाने को घटिया उपहास करते रहना जैसी बातों को पत्रकारिता बिल्कुल नहीं कह सकते हैं । ऐसे ही विज्ञापन तो ऐसा है जैसे कुछ लोग हर आपदा को अवसर समझते हैं ये तो उनका पैसा कमाने का मौका है बेशक ऐसा करने से मतदाता को प्रभावित करना और सभी को निष्पक्ष सोच से विवेक से निर्णय करने को भर्मित किया जाना समाज को किसी अंधी खाई में धकेलना ही हो । आपको क्या अधिकार है खुद अपना ईमान बेच कर जनता के भोलेपन का फायदा उठाते हुए किसी की चुनावी लहर हो नहीं हो निर्मित करने की कोशिश करना ।
 
वोटों की गिनती से पहले किसी का कोई आंकलन करना ही लोकतंत्र की भावना को दरकिनार करना है , जब हर किसी का वोट गोपनीय है तब आपको किसी से भी किसी भी तरीके से जानकारी लेना सही नहीं कहला सकता है । लेकिन इन लोगों ने सिर्फ धन दौलत कमाने को अपने तथाकथित ऊंचे बड़े रुतबे  का झूठा लिबास पहन कर जो भी चाहे मनमानी करने की छूट खुद ही हासिल कर ली बल्कि छीन ली है । जैसा इनका दावा रहता है ये संविधान में कोई सतंभ नहीं हैं न ही इनको कोई विशेष अधिकार मिले हैं , खुद को ख़ास समझने को ये समाज सरकार से संगठन संस्थाओं को किसी न किसी तरह डराते रहते हैं । हमको जो महत्व नहीं देता उसकी छवि खराब करने की बात बोले बिना समझाई जाती है । आपने कभी पीत पत्रकारिता की बात सुनी है तो आजकल का ये मीडिया गंभीर रूप से पीलिया रोग से ग्रस्त है । ऐसे में उनकी नज़र जो चाहती है देखती भी है और सभी को दिखलाना भी चाहती है । 
 
कभी कभी कुछ बातें हमें लगता है जैसी भी हैं क्या फर्क पड़ता है उचित अनुचित होने से ऐसा होता ही है , बस यही भूल भविष्य को बर्बाद कर सकती है । समाज में परिवार में अनुचित को मौन स्वीकृति देना भी उचित को हानि पहुंचाता है जो इक सामान्य बात लगती है । चुनाव आयोग को जब भी चाहा कोई नियम बदलना ख़तरनाक़ साबित हो सकता है जो किया जाता रहा है कभी किसी सरकार की बात मान कर तो कभी खुद अपने आप को संविधान से ऊपर समझने की कोशिश कर । हर कदम पर संभल संभल कर चलना ज़रूरी है क्योंकि इस चुनौती में राह फिसलन भरी है और ज़रा संतुलन बिगड़ा तो गंभीर परिणाम कोई हादिसा होना मुमकिन है । आज़ादी का अर्थ किसी को कुछ भी करने की अनुमति नहीं हो सकती बल्कि हर किसी को अपनी निर्धारित सीमा में रहकर अपना कार्य करना चाहिए ईमानदारी से और निडर होकर निष्पक्षता से । बात शुरू की थी घूंघट की लाज से जो कोई अनावश्यक पुरातन प्रथा की सोच नहीं थी उस से बहुत आगे की समझ थी भले जब सामाजिक बदलाव आया तब खुद महिला को पर्दा हटाना पड़ा तब भी ये उनका खुद का निजि पसंद का विषय है हां कोई अपना मत उन पर थोप सके ये नहीं स्वीकार किया जा सकता है । 
 
आख़िर में समाज की टीवी फ़िल्म की और साहित्य की शालीनता की कड़वी बात जिस में महिला ही नहीं पुरुष को भी निर्वस्त्र दिखाना देखना इक चलन बन गया है । महिलाओं का अधिकार है जैसा चाहें वो पहन सकती हैं आपकी नज़र उनके कपड़ों पार जिस्म को क्यों देखना चाहती है खुद पर अंकुश लगाएं । मगर इक पहलू और है जो महिलाएं विज्ञापन में टीवी सीरियल में फ़िल्म में खुद को नंगा प्रस्तुत करती हैं वो सिर्फ अपना नहीं सारी नारी जगत की छवि को नुक्सान पहुंचती हैं । चिंता का विषय यही है की हम सभी ने अपनी अपनी सीमाओं का उलंघन करने की आदत बना ली है जो हमको ऐसे समाज बनाने की तरफ ले जा रही है जिधर से वापसी लौटना कभी हो नहीं सकता । सभी विषयों को जोड़ कर कम शब्दों में बात कहना क्या होता है किसी ग़ज़ल कहने वाले से समझना , दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल पढ़ते हैं समझना भी होगा । ग़ज़ल पेश है ।
 

लफ़्ज़ एहसास - से छाने लगे , ये तो हद है 

लफ़्ज़ माने भी छुपाने लगे , ये तो हद है । 

आप दीवार गिराने के लिए आए थे 

आप दीवार उठाने लगे ये तो हद है । 

ख़ामोशी शोर से सुनते थे कि घबराती है 

ख़ामोशी शोर मचाने लगे ये तो हद है । 

आदमी होंठ चबाए तो समझ आता है 

आदमी छाल चबाने लगे ये तो हद है । 

जिस्म पहरावों में छिप जाते थे , पहरावों में 

जिस्म नंगे नज़र आने लगे ये तो हद है । 

लोग तहज़ीबों तमद्दुन के सलीके सीखें 

लोग रोते हुए भी गाने लगे , ये तो हद है ।

         ( दुष्यंत कुमार - साये में धूप से )    

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