जून 13, 2024

POST : 1842 बन बैठे मालिक हैं किरायेदार ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      बन बैठे मालिक हैं किरायेदार ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

लाएंगे हम नई बहार , पतझड़ रही दो बार तीसरी बार होगा अलग संसार हम नहीं कहलाएंगे बस किरायेदार । अपना होगा कुल बाज़ार अब नहीं होता इंतिज़ार , हम दोनों बचपन के यार अमर रहेगा अपना प्यार । पर इक मुश्किल तू उस पार मैं इस पार बीच में दरिया है मझधार । कौन चोर है कौन बटमार करना नहीं इस पर सोच विचार हमको बनानी है सरकार धन दौलत खूब कमाया दिल मांगे सब अबकी बार खरीदनी है नई नवेली इक कार खाना पहनना हुआ बेकार । क़र्ज़ लेकर घी पीना है हमको मिलकर संग-संग जीना है मेरा हलवा पूरी तुम्हारा खट्टा मीठा अचार सब है पास मौज मनाएं सारी दुनिया को दिखलाएं उल्लू सभी को बनाकर सिर्फ हम कहलाएं समझदार । मैं तुझको महापंडित मानता तुम भी मुझको मानते आधुनिक युग का कोई अवतार कौन कहता है काठ की हांड़ी चढ़ती नहीं दूजी बार अपना है अजब इश्तिहार तीसरी बार हम होंगे उस पार । हमने देखा है इक सपना फूलों के नगर में घर अपना , चाहे हमने बबूल उगाये लेकिन आम सभी बाग़ से चुराये मिलकर अपनों से खाये खिलाये माली बनकर गुलशन रौंदा कलियों को मसला खलियान को रौंदा । कुछ कागज़ कहीं से बनवा लाये हैं जो लाया सबको उसको हम लाये हैं अब कोई अपने सिवा नहीं किसी का लोग कहते हैं बड़े लंबे शाम वाले साये हैं हम , पर सभी साथी हैं टूटी पतवार की तरह उनका सहारा लिया है जो हाथ छुड़ा लेते हैं जब चाहे किसी और का हाथ पकड़ , उनकी आदत से घबराये हैं हम । हम दोनों ने मिलकर दुनिया का दस्तूर बनाया है सिक्का खोटा हर बार चलाया है हमने साम दाम दंड भेद सब आज़माया है कौन समझता है क्या था जो भी हमने ढाया है । नगर वालों के घर बाज़ार बस्ती मंदिर मस्जिद ज़मीन सब छीन कर कितना अनुपम मनोरम दृश्य दिखाया है , इस नगरी ने हमको आईना दिखाया है सब खोया है जब उसको भुलाया है मर्यादा छोड़ जितना पाया समझ नहीं पाए क्या क्या गंवाया है । भूखों को हमने भीख मांगना आसान है सबक सिखलाया है जो पढ़ा था सबको पढ़ाया है । आपको कुछ भी समझ नहीं आया कोई बात नहीं इस इक शहर के हर शख़्स को सब समझ आया है , साये में धूप का मतलब यही होता है जिन दरख्तों के साये में धूप लगती हो उनसे रिश्ता निभाना कठिन है । उनसे किनारा कर लिया है जिन्होंने सभी को फुटपाथ पर ही आसरा है ये बतलाया है , भूखे भजन नहीं होता , आपने कितने दिन से कुछ भी नहीं खाया है । 
 

        चलो इक ग़ज़ल पढ़ते हैं दुष्यंत कुमार कहते हैं ।


वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है , माथे पे उस के चोट का गहरा निशान है । 

वो कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तुगू , मैं क्या बताऊं मेरा कहीं और ध्यान है । 

सामान कुछ नहीं है फटे - हाल है मगर , झोले में उस के पास कोई संविधान है । 

उस सिर-फ़िरे को यूं नहीं बहला सकेंगे आप ,  वो आदमी नया है मगर सावधान है । 

फिसले जो उस जगह तो लुढ़कते चले गए , हमको पता नहीं था कि इतनी ढलान है । 

वो आदमी मिला था मुझे उसकी बात से , ऐसा लगा कि वो भी बहुत बे-ज़बान है ।

                                                                
                
                
        Dushyant kumar ghazal wo aadmi nahi hai mukammal bayan hai         
                                
                                                

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

आलेख में गद्य कम पद्यात्मकता ज्यादा लगी....और सशक्त बन सकता था👍