नियम स्वीकार , शर्तें नामंज़ूर ( नज़रिया ) डॉ लोक सेतिया
आपको सब मिल जाएगा अगर आप नियम और शर्तों को मंज़ूर करने को राज़ी हैं , नियम कितने भी कठोर लगते हों समझना कठिन नहीं है शर्तों की बात बिल्कुल अलग है अक़्सर शर्तें आपको ठगती हैं । शर्तों से बंधा बंधन आखिर बचता नहीं है नियम कायदा उचित हो सकता है शर्त कभी सही नहीं होती है । ज़िंदगी से लेकर राजनीति के खेल तक नियम बदलते रहते हैं टूट भी सकते हैं मगर शर्तों की हथकड़ी जिस किसी ने पहन ली मर्ज़ी से या मज़बूरी से बाद में पछताना पड़ता है । शर्तों पर जीना मुश्किल है दिल को ये समझाना मुश्किल है उनका मझको बुलाना मुश्किल है बिन बुलाये मेरा भी जाना मुश्किल है । सच बताना मुश्किल है सच को छिपाना भी आसान नहीं बहाना बनाना मुश्किल है , आस्मां से ज़मीं का रिश्ता निभाना मुश्किल है सरकार झुकती नहीं सरकार का देश की जनता को झुकाना मुश्किल है । सर कटवाने को तैयार हैं कुछ लोग उनके सर को झुकाना मुश्किल है । आपने जगह जगह लिखा हुआ देखा पढ़ा होगा नियम और शर्तें लागू दो अलग अलग बातें हैं इनको इक साथ लाना मुश्किल है । आपको घर में रहना है चाहे किसी सभा में दफ़्तर में अथवा किसी महफ़िल में आपको दिशानिर्देश का पालन करना अनिवार्य है अन्यथा आपको निकाला जाता है या निकलने की नौबत आ सकती है । दुनिया का पहरा हर सांस पर रहता है आपको खुली हवा में भी सांस लेनी है तो सावधान रहना चाहिए नफ़रत का ज़हर फ़िज़ाओं में घुला हुआ है कोई नहीं जान पाता अक़्सर ।
आजकल समाचार पढ़ कर चिंता होने लगती है कोई घर से भाग गया किसी ने अपनी जान ख़ुदकुशी कर लेकर ज़िंदगी से निजात पा ली । रिश्तों नातों की ही नहीं सामाजिक बंधनों की बेड़ियां इंसान को अपनी मर्ज़ी से जीने ही नहीं देती हैं । सरकार भी संविधान के नियमों की अवहेलना अनदेखी कर चलती रहती है लेकिन संख्या बल का गणित ऐसी शर्त है जिस से कभी भी लड़खड़ाने से गिरने की नौबत पेश आ सकती है । इस समाज में इंसान को चैन से जीने देना कोई नहीं ज़रूरी समझता लेकिन कोई गलती कोई भूल दिखाई दे जाए तो हर कोई जीना हराम कर देता है । जियो और जीने दो की बात किसी को समझ नहीं आती है कुछ इसी तरह से सरकार को खतरा रहता है कभी भी किसी समय पकड़े जाने पर हटाए जाने की चर्चा होने का । ऐसा कहते हैं सरकार नैतिक अधिकार खो चुकी है उसे लोकतान्त्रिक मर्यादा का ध्यान रखते हुए सत्ता छोड़ देनी चाहिए । सत्ता का मोह कभी जाता नहीं है भले कोई कुछ भी कहता रहे सत्ता से इश्क़ सभी को पागल बना देता है और इश्क़ और जंग में सब चलता है । भाग कर ज़ोर ज़बरदस्ती से डरा कर बहला फुसला कर शादी करना अनुचित नहीं होता बस इसी तरह से जोड़ तोड़ कर खरीद कर धमका कर समर्थन हासिल करना सब किया जाता है । नीचे गिर कर ऊंचाई पाना राजनीति की रणनीति कहलाता है । जो समझौता नहीं करता फिर पछताता है । शर्त लगाना भी इक आदत होती है जुआ होता है जो बुरा है फिर भी खेलने वाले को मज़ा आता है , कौन है जो इस बात पर शर्त लगाता है । हार कर भी कोई जश्न मनाता है , गंधर्व राग गाकर कोई रूठी महबूबा को मनाता है ये हुनर किसी किसी को रास आता है । हर सामान सारा माल गरंटी का लेबल लगा मिलता है आखिर में नियम और शर्तें लागू आपको उल्लू बनाता है ।
1 टिप्पणी:
सार्थक लेख आज के सियासी सन्दर्भ में
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