जून 03, 2024

अर्थी उठेगी या बरात निकलेगी ( लोकतंत्र का भविष्य ) डॉ लोक सेतिया

 अर्थी उठेगी या बरात निकलेगी  ( लोकतंत्र का भविष्य ) डॉ लोक सेतिया  

लगा हुआ है दरबार , क्या है जीत क्या है हार मिथ्या है सारा संसार  , जनता ने क्या किया कमाल सबकी नैया बीच मझधार इक लोकतंत्र का कायम आधार ।  कुर्सी वही रहती है हर दिन होता उसी का सोलह श्रृंगार , छोड़ दिया सब दुनिया का झूठा प्यार उनको जाना ही है उस पार । कौन सुने ऐसे समाचार जिन को सुन खाना पीना हो जाए , बेकार राजनीति है कौन संग है खुद से अपनी जंग है ,  बस कहने की होती ही क्या कोई आर या पार , कोई शिकारी बन गया कोई हुआ शिकार । जनाब ने अचानक किसी को फोन लगाया बोला वो कहिए सरकार याद किया आपने हर बार , लेकिन अभी तो नहीं मिला कोई किनारा आप हैं बीच मझधार , होगा जिया भी बेकरार । नहीं कोई चिंता की बात कट जाएगी ये भी इक रात बजेगा बैंड बाजा नाचेगी बरात , हमने बिछाई है बिसात हमसे कौन जीत सकेगा उनके घर है भीतरघात । मुझे किसी ने बताया है आपसे लोग ही नहीं अपने भी बड़े नाराज़ हैं , परेशान हैं बहुत शिकायत भी करते हैं हां मगर अभी भी गुस्सा हद से बढ़ा नहीं है । कुछ जो बंधे हैं मेरी परस्तिश में किधर जाएंगे मैं डूबूंगा साथ वो खुद मर जाएंगे । वफ़ा करने वाले रूठ कर जाते हैं शाम ढलनेलगे वापस घर आते हैं । सबको ही ज़िंदगी ने मारा है हम दुश्मन हैं अपने जहां हमारा है इक इसी बात का बाकी सहारा है । हम मुसाफिर हैं अपना यही किनारा है , कौन भला हार कर जीता है जो भी जीता है आखिर कभी दिल हारा है ।

 सत्ता का है चढ़ा सुरूर क्या बहक रहे हैं मेरे हज़ूर खाना चाहें मोतीचूर लेकिन दिल्ली है अभी दूर धीरे धीरे जाएगा सत्ता का खुमार । ये नज़ारा ऊपरवाला देख रहा था जब से सीसीटीवी लगवाया दुनिया का आंखों देखा हाल ठीक समझने लगे हैं । ग़ज़ब हैं वो जो अपने आप को भगवान समझने लगे हैं । जीवनसंगिनी चुप थी ध्यानमग्न नहीं पशेमान थी कई साल पहले इक भिखारी पर हुई मेहरबान थी पति से मांग लिया अजब वरदान था उस भिखारी को राजा बना दो उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते रहना , ऐसा संभव नहीं मुझे मत कहना । भला पत्नी की मांग कौन पूरी नहीं करना चाहता कोई विकल्प ही नहीं था वरदान देना पड़ा था । 
उसको भी कुछ समझ नहीं आ रहा है ये क्या सच अपने कर्मों पर पछता रहा है या दिखावे को आंसू किसी मगरमच्छ के बहा रहा है ।  

शासक बनकर लगा जैसे ऊपरवाले ने छप्पर फाड़ कर इतना दिया कि झोली में समाना मुश्किल हो गया , भगवान से जो जब मांगता मिलता तो समझता कि मुझ से अधिक काबिल और बड़ा आदमी कौन है । बस थोड़ा अहंकार का असर था जो समझने लगा उस ने जो भी किया भगवान ने भेजा था वो सब करने को । ऊपरवाला अपनी पत्नी को दिखला रहा था कोई अपने कर्मों का उत्तरदाई उसे बना रहा था । इतना बड़ा  इल्ज़ाम भला कैसे मंज़ूर होता लेकिन अपने ही दिए वचन से है वो भी मज़बूर होता । दुनिया वादा करती है कसमें खाती है भूल जाती है पर काश उसकी दुनिया का नहीं इक दस्तूर होता प्राण जाये पर वचन ना जाये । लेकिन हर बात की सीमा होती है शेर को बिल्ली ने सबक पढ़ाया इक दिन उसी को खाने आया , बिल्ली झट से पेड़ पर चढ़ गई शेर को बात लगी बिगड़ गई , बोला मौसी ये सबक नहीं सिखाया तब बिल्ली ने ठेंगा दिखलाया । सोचा उसने क्या था पाया पल भर में सब कुछ गंवाया । आखिर हाथी पहाड़ नीचे आया , कुछ घबराया कुछ इतराया अपना बोझ नहीं जाता खुद उठाया लेकिन खूब जमकर खाया जितना मनचाहा उड़ाया । अच्छा बुरा समझ नहीं आया कर दिया जैसा मनभाया । क्या बिल्ली ने रास्ता है काटा या फिर दिल को समझाना है कभी कभी धंधे में हो जाता है घाटा , कंगाली में गीला हुआ आटा रसोईघर छाया सन्नाटा ।  बैंड बाजा बारात रौशनी सजावट सब शानदार था । दुल्हा कुछ उदास लग रहा था परिवार के सदस्य और मित्र मंडली चिंतित थी कि कहीं दूल्हे के मन में कोई बात अभी तक अनकही तो नहीं रह गई । जब कारण पता चला कि दुल्हन के घरवालों ने बताया कि दुल्हन का कुछ पता नहीं है जाने कहां चली गई है । हज़ार तरह के डर लगने लगे हैं । खुशी का माहौल चिंता के आलम में तबदील हो गया है और ज़रा सी आहट सुनाई देती है तो धड़कने तेज़ हो जाती हैं । लड्डू खिलाए जाते हैं मगर अब लगता है कि लड्डुओं में मिठास नहीं है । इक मुल्तानी की कहावत है नहांदी - धोंदी रह गई ते मुंह से मक्खी बह गई ।



 आंगन में हलवाई थे बिठाए लड्डू के थाल पड़े सजाए लेकिन कौन खाए कैसे खाए जीया तरसे मनवा डराए ।
 चाहे कोई शीतल पेय पीये चाहे पीना चाहे गर्म-गर्म , सब हाज़िर है दाम चुकाओ छोड़ कर लाज शर्म । उन को तो है करना अपना कर्म फिर किस बात का भरम , जो भी हो किसी का नहीं कोई इख़्तियार है । आज नहीं किसी की जीत है आज नहीं किसी की हार है । लोकतंत्र का त्यौहार है जनता ही भगवान है सब जनता की मर्ज़ी है बाक़ी की खुदगर्ज़ी है । बुलावा आएगा ज़रूर उनको ये ऐतबार है कोई नया नाता नहीं वो अपना पुराना यार है । धंधा इसी को कहते हैं ख़ुशी और ग़म जो भी मिले सब सहते हैं इस को वही बस समझते हैं जो महानगर में रहते हैं । बरात निकले चाहे अर्थी जो भी हो बड़ी ऊंची शान से हो फूलों की बारिश से लेकर सजावट तक का इंतज़ाम सब पूरे अरमान से हो । आप क्या समझे अजब ग़ज़ब उनका व्यौपार है जिस को जो भी चाहिए समझो पूरा बाज़ार है । ताज़ भी मिल जाते हैं शोक गीत गाने वाले मातम जाकर मनाते हैं । ख़ुशी और ग़म दोनों अवसर के अश्क़ उनके पास हैं जिनका सपना टूटा उस दिल की तसल्ली की ख़ातिर बुझे दीप  जल जाते हैं । 
 
कयामत की घड़ी आने वाली है अभी ये राज़ है अर्थी सजनी है कि बरात चलने वाली है , आदमी की आरज़ू कब निकलने वाली है सब कुछ जमा किया है मगर थोड़ा लगता है थोड़ा और मांगते हैं । सिकंदर जब गया दुनिया से दोनों हाथ खाली थे मगर इस बात से अनजान सभी ताली बजाने वाले थे । दोनों आमने सामने हैं भीड़ उधर भी है इधर भी है , कयामत की है सबकी नज़र भी । बेखबर हैं वो जिनको रहती है दुनिया की खबर भी ।  कोई विश्लेषण का अर्थ समझा रहा था , अजब हाल है टेढ़ी तिरछी चाल है गर्दन उठा खड़ा हो किस की मज़ाल है कोई जीत कर भी उदास है मंज़िल दूर है बची आस है कोई खुश है हार भी उसकी जीत का नया आधार है । कुछ रिश्ते नाते दोस्त आएंगे रूठों को मनाएंगे जश्न मिलकर मनाएंगे , शपथ ग्रहण होना है शुभ अशुभ का रोना है आदमी खिलौना है । धरती पर रहना ज़रूरी है आसमान नहीं होना है नींद उड़ने लगी जागना नहीं आसां मुंह ढक कर सोना है । खाधी तां रज के नहीं तां सुमणा मुंह कज के , मुल्तानी कहावत है ।
 
 शायर बशीर बद्र जी की ग़ज़ल से कुछ शेर याद आए हैं । 
 

अब है टूटा - सा दिल , खुद से बेज़ार - सा 

इस हवेली में लगता था दरबार - सा । 

बात क्या है कि मशहूर लोगों के घर 

मौत का सोग भी होता है , तेहवार - सा । 

              डॉ बशीर बद्र 

 हर वक्त गुजर जाता है चाहे खुशी हो या गम का नशा उतर ही जाता है चाहे माशुका  या रम का - विभूति | Quote by vibhuti mishra | Writco

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