मेरी तलाश ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
जाने कैसा जहां है ये कहीं ,
आकर जिस में खो गया हूं मैं
करते करते इक प्यार भरे ,
जीवन की तलाश युग युग से ।
भूल गए हैं यहां सभी लोग ,
जीने का वास्तविक अंदाज़
हर शख़्स अकेला खड़ा है
भीड़ में अजनबी लोगों की ।
ढूंढती फिरती है सबकी नैया ,
भंवर में डोलती कोई किनारा
मांझी गए पार छोड़ के पतवार
तूफानों के हवाले है सब संसार ।
नहीं है चाह धन दौलत की थी ,
कभी नहीं मांगे हीरे और मोती
ज़माने भर से रही है अभिलाषा
हो विश्वास दो थोड़ा सा प्यार ।
सब कुछ मिल सकता था मुझे ,
शोहरत नाम अपनी इक पहचान
मिलता काश स्नेह किसी का तो
मेरा बस इक वही तो था अरमान ।
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