दिसंबर 04, 2023

परछाई बनकर खुश हैं लोग ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

        परछाई बनकर खुश हैं लोग ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया 

आवाज़ अल्फ़ाज़ अंदाज़ लाजवाब लगते हैं मगर फिर भी सोचने पर अजीब लगता है कि उनका मौलिक नहीं है किसी जाने माने व्यक्ति की बात को थोड़ा अदल बदल कर पेश किया गया है । आपने किसी की आवाज़ की नकल करते देखा होगा किसी की शक़्ल सूरत मिलती हुई दिखाई देती है कहने का अर्थ असली की हूबहू प्रतिलिपि बनाना , साफ शब्दों में नकल । वास्तविक दस्तावेज़ की फोटोकॉपी की बात नहीं है क्योंकि उस में कोई छेड़छाड़ बदलाव नहीं किया गया होता लेकिन किसी शायर की ग़ज़ल की लोकप्रियता को भुनाने को कोई उनकी रचना में कुछ नये अंतरे या शेर जोड़ कर उस शायर को याद नहीं कर रहा होता न ही कोई श्रद्धाभाव समझना चाहिए बल्कि इसको चोरी नहीं तो हेराफेरी करना समझना चाहिए । बात इतने तक भी ठहरती तो छोड़ देते लेकिन जब कोई उनकी निजि ज़िंदगी प्यार की सुनी सुनाई या दुनिया की काल्पनिक मनघड़ंत कहानी को लेकर अपनी रचना लिखने की बात कर दावा करता है वास्तविकता की तब सीमा लांगने की बात बन जाती है । विशेषकर जो लोग दुनिया में नहीं उनको लेकर मनमाने ढंग से किस्से सुनाना कम से कम साहित्यिक दृष्टि से ईमानदारी नहीं कहला सकती है । तमाम ऐसे लोगों का उपयोग खुद को स्थापित करने या कारोबार अथवा शोहरत हासिल करने को करना अनुचित एवं अनैतिक आचरण है । 
 
इधर धार्मिक ग्रंथों का उपयोग कुछ लोग खुद को ऊंचे शिखर पर दिखाने की खातिर करने लगे हैं । अजीब बात है कोई मंच से धार्मिक ग्रंथ पढ़ उपदेश देने का कार्य भी व्यवसायिक तरीके से करता हुआ दिखाई देता है लेकिन संवाद करते हैं तो पाप अपराध और बुराई को गलत कहने का साहस करने से घबराता है और इतना ही नहीं शासक सरकार से हर संभव लाभ उठा कर खुद को बुलंदी पर खड़ा करने में अनुचित उचित की चिंता नहीं करता है । सबको अहंकार की भावना छोड़ने का पाठ पढ़ाता मगर खुद अपने आप को अन्य तमाम सभी संतों महात्माओं साधुओं से बड़ा ज्ञानवान मानते हुए खुद ही अपने इश्तिहार लगवाने का कार्य करता है । कभी किसी ग्रंथ को जो पुरातन है प्रमाणित समझा जाता है उसी को खुद फिर से दोबारा लिखने का काम करता है तो कभी किसी अन्य व्यक्ति की सभाओं में विख्यात प्रार्थना या ईश्वर के गुणगान की तर्ज़ पर इक अपनी रचना बनाकर उसकी जगह हासिल करना चाहता है । आजकल कितने ही धर्म उपदेशक इक दूजे से प्रतिस्पर्धा  कर प्रतिद्विंदी बने हुए हैं जो हमको कहते हैं किसी से ईर्ष्या द्वेष से बचने को कहते हैं क्योंकि ये ऐसा ज़हर है जो आपसी रिश्ते संबंध का अंत कर देता है । सबको महान धार्मिक ग्रंथ का महत्व समझाने वाला शायद उस का अर्थ कभी नहीं समझ पाया है । दीपक तले अंधेरा है ।
 
 

    1             मैं ( नज़्म ) 

मैं कौन हूं
न देखा कभी किसी ने
मुझे क्या करना है
न पूछा ये भी किसी ने
उन्हें सुधारना है मुझको
बस यही कहा हर किसी ने ।

और सुधारते रहे
मां-बाप कभी गुरुजन
नहीं सुधार पाए हों दोस्त या कि दुश्मन ।

चाहा सुधारना पत्नी ने और मेरे बच्चों ने
बड़े जतन किए उन सब अच्छों ने
बांधते रहे रिश्तों के सारे ही बंधन
बनाना चाहते थे मिट्टी को वो चन्दन ।

इस पर होती रही बस तकरार
मानी नहीं दोनों ने अपनी हार
सोच लिया मैंने
जो कहते हैं सभी
गलत हूंगा मैं
वो सब ही होंगें सही
चाहा भी तो कुछ कर न सका मैं
सुधरता रहा
पर सुधर सका न मैं ।

बिगड़ा मैं कितना
कितनी बिगड़ी मेरी तकदीर
कितने जन्म लगेंगें
बदलने को मेरी तस्वीर 
जैसा चाहते हैं सब
वैसा तभी तो मैं बन पाऊं ।

पहले जैसा हूं
खत्म तो हो जाऊं
मुझे खुद मिटा डालो 
यही मेरे यार करो
मेरे मरने का वर्ना कुछ इंतज़ार करो । 
 

   2      हर किसी का अलग ख़ुदा है ( ग़ज़ल ) 

हर किसी का अलग ख़ुदा है 
अब ज़माना बहुत नया है ।  
 
प्यार की बात कर रहे हो 
प्यार करना बड़ी ख़ता है । 
 
जाम भर भर मुझे पिलाओ 
ज़हर ये दर्द की दवा है ।
 
हम से दुनिया ख़फ़ा है सारी 
बोलते सच मिली सज़ा है ।  

मौत भी जश्न बन गई है 
रोज़ होता ये हादिसा है । 

साथ हर बार और कोई 
आजकल की यही वफ़ा है । 

झूठ ' तनहा ' से कह रहा है
ये बता सच का हाल क्या है ।  
 
मैंने अपने बारे में जो महसूस किया वही लिखा वही कहा वही समझा है किसी और की परछाई नहीं बनाया अपने आप को इतना तय है । 
 

सबको लगता नहीं उन जैसा हूं मैं ,

मैं सोचता हूं खुद अपने जैसा हूं मैं । 

   डॉ लोक सेतिया ' तनहा ' 


 

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

तथाकथित साहित्यकारों से लेकर राजनेताओं और धार्मिक व्याख्याताओं पर बढ़िया आलेख सर👍👌