दिसंबर 07, 2023

POST : 1757 भटकन ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

               भटकन ( कविता ) डॉ लोक सेतिया  

चाहिए बस दो ग़ज़ ज़मीन 
नहीं मांगते ऊंचा आसमान ,
 
पेट भरता दाल-रोटी से ही 
क्यों चाहें हम मधुर मिष्ठान । 
 
सुकून से छोटे घर में रहना 
महलों की झूठी लगती शान ,
 
झौंका खुली हवाओं को मिले 
थोड़ा सा जीने का है सामान । 
 
कतरे भर की है प्यास हमारी 
मांगते हम कब छलकते जाम ,
 
आख़िर सूरज ढल ही जाता है 
जलता दिया है हर इक शाम ।
 
मन उपवन खिलाने फूल कई
कंटीला वन दुनिया मत छान ,
 
खोने और पाने की धुन में ही 
बीत जाएगा है जीवन नाकाम । 
 
खुशियों को कैद न करना कभी 
हंसना हमेशा आज़ादी का नाम ,
 
पल पल मौत खरीद रहे हैं सब 
चुका कर जीने का महंगा दाम ।      
 
 

            ( बहुत साल पुरानी डायरी से इक रचना प्रस्तुत की है। )