भटकन ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
चाहिए बस दो ग़ज़ ज़मीन
नहीं मांगते ऊंचा आसमान ,
पेट भरता दाल-रोटी से ही
क्यों चाहें हम मधुर मिष्ठान ।
सुकून से छोटे घर में रहना
महलों की झूठी लगती शान ,
झौंका खुली हवाओं को मिले
थोड़ा सा जीने का है सामान ।
कतरे भर की है प्यास हमारी
मांगते हम कब छलकते जाम ,
आख़िर सूरज ढल ही जाता है
जलता दिया है हर इक शाम ।
मन उपवन खिलाने फूल कई
कंटीला वन दुनिया मत छान ,
खोने और पाने की धुन में ही
बीत जाएगा है जीवन नाकाम ।
खुशियों को कैद न करना कभी
हंसना हमेशा आज़ादी का नाम ,
पल पल मौत खरीद रहे हैं सब
चुका कर जीने का महंगा दाम ।
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