भटकन ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
चाहिए बस दो ग़ज़ ज़मीन , नहीं मांगते ऊंचा आसमान ,
पेट भरता दाल-रोटी से ही , क्यों चाहें हम मधुर मिष्ठान ।
सुकून से छोटे घर में रहना , महलों की झूठी लगती शान ,
झौंका खुली हवाओं को मिले , थोड़ा सा जीने का सामान ।
कतरे भर की प्यास हमारी , भर मत देना अपना ये जाम ,
आख़िर सूरज ढल जाता है , जलता दिया है हर इक शाम ।
मन उपवन खिला फूल प्यार के , कंटीला वन दुनिया न छान ,
खोने और पाने की धुन में अपना , बीत रहा है जीवन नाकाम ।
खुशियों को कैद मत करना कभी , हंसना आज़ादी का इक नाम ,
पल पल मौत खरीद रहे सभी हैं , चुका कर जीने का महंगा दाम ।
1 टिप्पणी:
👍👌
एक टिप्पणी भेजें