आधुनिक का पुरातन से साक्षात्कार ( विवेचना ) डॉ लोक सेतिया
बीता हुआ कल वर्तमान के आज से आमने सामने मिले ऐसा वास्तव में संभव नहीं है सभी जानते हैं फिर भी लोग कभी कल्पनाओं में कभी पुरानी यादों में खोए रहते हैं । ये विषय कभी पुराना नहीं होता है दुनिया चाहे कितनी भी बदल जाए पुरानी अच्छी बुरी बातें पीछा नहीं छोड़ती कई बार इक घटना किसी परछाई की तरह साथ नहीं छोड़ती और जीवन भर क्या इंसान नहीं रहता तब भी उस व्यक्ति से उस घटना का नाता दुनिया हमेशा याद रखती है । जिसे इतिहास कहते हैं वो कुछ ऐसा ही क़ब्रिस्तान है जिस में दफ़्न मुर्दे कब अपनी कब्र फाड़ बाहर निकल आते हैं पता ही नहीं चलता । हमारी सभ्यता हमारा धर्म हमारी विरासत हमारी परंपरा कितनी पुरातन है तमाम लोग इस को लेकर गर्व अनुभव किया करते हैं । हक़ीक़त ये है कि सिर्फ पुरातन होने से सब अच्छा और शानदार नहीं हो जाता न ही नया होने से सब बढ़िया कहला सकता है । आसान तो बिल्कुल नहीं बल्कि दुश्वार है इक कसौटी पर रख कर देखना और निर्णय करना कि कब क्या सही और कब क्या सही नहीं होता है । कितनी पुरानी बातें इतनी शानदार थी जिनको लेकर सोचते हैं कि काश आज भी वही सब होता तो कितना अच्छा समाज हो सकता था वहीं तमाम पुरानी कुरीतियां भी होती थी जिन को लेकर अभी भी अफ़सोस होता है कि कैसे वो सब स्वीकार किया जाता रहा और कुछ तो ऐसा भी होता है जिनको लेकर शर्म आती है कि क्यों अभी भी हमारा समाज इतना पिछड़ा हुआ है । लेखक भगवान तक से साक्षात्कार कर सकता है लोकतंत्र संविधान से लेकर कितनी इमारतों से वार्तालाप कर सकता है अपनी सोच को इतना विस्तार देने वाला आधुनिक काल और पुरातन युग को साथ साथ आमने सामने लाकर बात क्यों नहीं कर सकता । यही होने जा रहा है मेरे सामने दोनों बैठे हैं और मैं सिर्फ इक सूत्रधार की भूमिका निभा रहा हूं ।
देखा कि दोनों कोशिश कर रहे हैं मगर समझ नहीं पा रहे कि सामने कौन है जान पहचान हुई ध्यान नहीं और अनजान अजनबी लगे ऐसा भी नहीं जैसा हमारे साथ कितनी बार होता है मुद्दत बाद मिलने पर । जानते हैं पहचानते नहीं और परिचय पूछना भी उचित नहीं लगता कहीं कोई बुरा नहीं मान जाए अच्छा अब नाम भी याद नहीं । मैंने कहा आप आधुनिक हैं और ये पुरातन हैं वो आप हैं और ये हैं समय से बदल कर ये बन गए हैं । खिल उठे दोनों के चेहरे अपनी सूरत आईने में देख कर । कितना अनुपम दृश्य बन गया इक जगह इक साथ नए बदलाव की नई सोच और पुरातन परिपक्व विचारों का अंतर्द्वंद जो अडिग था हालात की आंधी तूफ़ान से लड़ता हुआ । अपने आदर्शों ऊंचे मूल्यों की ख़ातिर जान देने वाले और इधर अपना मकसद हासिल करने को चाहे जो भी बाधा सामने आए उसको मिटाने वाले किसी सामाजिक नैतिक बंधन की परवाह नहीं करने वाले समय ने कितना बदल दिया है । आज दिखाई देता है अपनी चाहत का ऊंचा फैला आसमान कुछ पुराने सदैव हितकारी और कुछ पुरातन सड़े गले मापदंड खड़े थे अपनी हालत की परिभाषा ढूंढते । कितने अच्छे आदर्श देश समाज को समर्पित वैचारिक एवं नैतिक हुआ करते थे जो अब केवल व्यक्तिगत आर्थिक एवं भौतिक उन्नति को महत्व देते हैं । सत्य और ईमानदारी की राह छोड़ झूठ आडंबर और नकली चमक दमक से प्रभावित हैं ।
प्रकृति पेड़ पौधे जीव जंतु सभी की चिंता करना छोड़कर विकास के लिए पर्यावरण का विनाश कर इक अंधकारमय भविष्य की तरफ अग्रसर हैं । पढ़ लिख कर शिक्षित होकर छायादार पेड़ की तरह फ़लदार वृक्ष की तरह झुके हुए नहीं बल्कि खजूर की तरह तने हुए पद पैसा नाम शोहरत धन दौलत और विशेषाधिकार पाकर अहंकारी बन समाज को रसातल को धकेल रहे हैं । कभी आपस में इक साथ मिल जुलकर प्यार से रहते थे थोड़े में मिल बांटकर खुश रहते थे वही ताकत और साधन हासिल होने पर नफरत और ईर्ष्या में अंधे हो कर लड़ाई झगड़े जंग की तैयारी करते हैं । विनाशकारी हथियार बनाकर बर्बादी को आमंत्रित करते हैं । हर राज्य हर देश की सरकार संसाधनों को जनकल्याण को उपयोग नहीं कर दुरूपयोग कर रहे हैं । शासक अत्याचारी और निरंकुश बन गए हैं मानवीयता की भावना बची नहीं है । कभी अमीर धनवान दयालु होते थे असहाय की सहायता गरीब को आश्रय दान और सामाजिक कार्यों में स्कूल धर्मशाला धर्मार्थ औषधालय खोलने का कार्य किया करते थे अब सभी को अधिक से अधिक अमीर होने की लत लगी है ।
कला साहित्य नाटक फ़िल्म संगीत सार्थक उद्देश्य के लिए जगत कल्याण की बात करते थे सही दिशा दिखाया करते थे जो आजकल मनोरंजन के नाम पर समाज को भटकाने और गंदगी परोसने का अपराध कर रहे हैं । सिनेमा और टीवी जगत में विचारों की गिरावट इतनी बढ़ती गई है कि उनसे समाज को इक खतरा पैदा हो गया है । आजकल की फिल्मों को देख कर लोग हिंसक और अपराधी बनते जा रहे हैं लेकिन फ़िल्मजगत करोड़ों की आमदनी के नशे में चूर अपना अस्तित्व भुलाए बैठा है । घटिया कॉमेडी और गाली गलौच की भाषा का उपयोग जाने क्या मिलता है किसी को भी इन से अचरज की बात है । कभी पूरा गांव शहर अपना लगता था हर किसी को इक लगाव अपनापन महसूस हुआ करता था आजकल हर व्यक्ति अपने ख़ुद तक सिमटा हुआ अकेला है किसी और के सुःख दुःख परेशानी से कोई मतलब नहीं है किसी को भी । देखने को विज्ञान टेक्नोलॉजी ने सुविधाएं और संपर्क साधन बढ़ाए हैं लेकिन धीरे धीरे इन्हीं साधनों ने हमको अपना गुलाम बना दिया है । सोशल मीडिया स्मार्ट फोन कंप्यूटर आदि का अनावश्यक उपयोग हमारे जीवन में इक हस्ताक्षेप साबित हुआ है । आपस में मिलना जुलना कुशल क्षेम पूछना बंद हो गया है केवल फेसबुक व्हाट्सएप्प पर औपचारिक संदेश भेजते हैं । सैंकड़ों हज़ारों नंबर हैं संवाद किसी से नहीं बल्कि कभी कॉल आए तो कौन हैं पूछते हैं ।
चांद तारों की बात कविता की नहीं वास्तविक होने लगी है और हम हज़ारों किलोमीटर दूर किसी देश की सैर कर सकते हैं सबकी जानकारी रखते हैं लेकिन कोई तरीका नहीं खोजा जा सकता है जिस से अपने मित्र साथी हमसफ़र हमराही की मन की भावनाओं को जान सकते । कभी हर किसी पर भरोसा करना आसान था और लोग विश्वास पर खरे साबित हुआ करते थे अब तो भरोसा करना छोड़ दिया है और विश्वासघात करते देर नहीं लगती है । गिरगिट से अधिक रंग बदलने लगा है आदमी , सच झूठ और झूठ सच लगने लगता है । हम सभी भयभीत रहते हैं क्योंकि जिन्हें सुरक्षा की भावना जगानी है वही रक्षक भक्षक बन जाते हैं । सरकार कानून व्यवस्था न्यायालय सभी असफ़ल साबित हुए हैं अपना कर्तव्य निभाने में बल्कि इनके जाल में उलझा व्यक्ति छटपटाता रहता है चैन नहीं मिलता उसे कभी । बाढ़ खेत को खाने लगी है कहावत सच होने लगी है ।
आधुनिक समाज में उन लोगों को नायक और जाने क्या क्या घोषित कर रखा है जिन्होंने देश समाज को कोई योगदान बेहतर बनाने को नहीं दिया है केवल अपनी व्यवसायिक सफ़लता का कार्य किया है धन दौलत सत्ता हासिल कर ऐशो- आराम से जीना सीखा है । किसी को कुछ भी देते नहीं ऐसे लोग सिर्फ बातें करते हैं पर्दे पर या सभाओं में बड़ी बड़ी महान आदर्शवादिता की , उनको जितना मिलता है उनकी भूख उतनी अधिक बढ़ती जाती है और धर्म कहता है जो लोग सब कुछ पास होने पर भी और ज़्यादा पाने की हवस रखते हैं वही सबसे दरिद्र होते हैं । दुनिया में सभी की ज़रूरत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बहुत कुछ है लेकिन किसी की अधिक पाने की चाहत की हवस को पूरा करने को कदापि नहीं है । आजकल अधिकांश लोगों के पास ज़रूरत को भी कुछ नहीं है क्योंकि कुछ लोगों ने किसी भी तरह से अपने पास इतना जमा कर लिया है कि सबको इक समान नहीं मिलता अपनी मेहनत का मूल्य । और उन लोगों की चतुराई से बना हुआ ये असमानता का जाल बढ़ता ही जा रहा है । जिनसे किसी को कुछ भी नहीं मिलता उनको महानायक बताना साबित करता है कि हमारे मापदंड कितने खोखले हैं । सैंकड़ों हज़ारों वर्ष पुरानी बात क्या कहें कि कितना बदल गया है अपना समाज का नज़रिया जब पिछले पचास साल में हमने अपने आदर्श अपने नायक के मापदंड इतने बदल डाले हैं कि कभी जयप्रकाश नारायण जी जैसे लोग लोकनायक कहलाते थे जिसने कभी कोई सत्ता धन की पद की चाहत नहीं रखी जीवन भर जनता और समाज की खातिर कार्य करते रहे और अब 11 अक्टूबर को हम उनको नहीं याद करते बल्कि इक फ़िल्मी अभिनेता को सदी का महानायक घोषित करते हुए ऐसे व्यक्ति का सोशल मीडिया टीवी चैनल पर गुणगान करते हैं जिन्होंने देश समाज को कुछ देना तो दूर की बात है सही दिशा ही नहीं दिखलाई बल्कि अपने किरदारों से युवा वर्ग को भटकाया ही है । शायद इस विडंबना से ही समझ सकते हैं आधुनिक और पुरातन का अंतर और उनके मकसद कितने अलग अलग रहे हैं ।
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