ये दुनिया दोस्ती का बाज़ार नहीं है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया
ये दुनिया दोस्ती का बाज़ार नहीं है
यहां कोई किसी का दिलदार नहीं है ।
हुई ख़ामोश महफ़िल सारी बिन तेरे
पड़े हैं साज़ कितने झंकार नहीं है ।
गई खो रौनकें सब सुनसान नज़ारे
महकता था सदा जो गुलज़ार नहीं है ।
वो रातें चांदनी हम तुम साथ वहां पर
बिना बोले समझ ले ग़मख़्वार नहीं है ।
तुझी को याद कर के सब उम्र कटेगी
कि तुझसा और कोई भी यार नहीं है ।
बड़ी अच्छी हमें लगती गलियां लेकिन
ठहरने को वहां पर घर बार नहीं है ।
बहुत ' तनहा ' रहेंगी शामें भी सहर भी
लगे दिल अब कभी भी आसार नहीं है ।
1 टिप्पणी:
Waah...ठहरने का वहां घरबार👌👍
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