मई 31, 2023

मर के भी किसी के काम आएंगे ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

     मर के भी किसी के काम आएंगे ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार किसी का दर्द ले सके तो ले उधार , किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार जीना इसी का नाम है । अनाड़ी फ़िल्म थी जो पहली बनी थी 1959 में शैलेंद्र जी ने लिखा गीत उसका मुखड़ा है आखिर अंतरें में , कि मर के भी किसी को याद आएंगे , किसी के आंसुओं में मुस्कुराएंगे , कहेगा फूल है कली से बार बार जीना इसी का नाम है । सोचते थे भला कोई मर के भी किसी के काम आ सकता है हैरानी हुई ये पता चला जीते हुए कोई किसी काम आता हो चाहे नहीं मरने के बाद कितने ही लोगों के काम ही नहीं आता बल्कि बहुत लोगों का कारोबार रोज़ी रोटी ही नहीं शान बान और कितना कुछ उसे से चलता फलता फूलता है । मौत का इतना बड़ा कारोबार है व्यौपार है कि उसका ओर छोर पाना टेढ़ी खीर है । हम हो सकता है हैरान हो जाएं किस किस को जोड़ना है छोड़ना किसे है । मौत के सौदागर तो होते हैं कौन नहीं जानता और मौत के खिलाड़ी भी लेकिन उनका मरने तक तअल्लुक़ होता है बाद में उनका कोई सरोकार नहीं रहता है समझ गए अधिक विवरण की ज़रूरत नहीं है । आजकल मौत को लेकर अनुभवी लोग समझाते हैं सब काम क्या कैसे करना होगा । अर्थी उठाने मातम से शोक सभा आयोजित करने में कितने लोग बिना ढूंढे मिलते हैं जहां भी रहते हैं सब जगह जैसा चाहो सलाह मिलती है । जहां चाह वहां राह इसी को कहते हैं ।
 
याद आया इस की शुरुआत करते हैं जब कोई राजा मरता था तब शोक और जश्न इक साथ होते थे राजा की अर्थी उठने से पहले नये राजा की ताज़पोशी हुआ करती थी ये रिवायत अजीब लग सकती है पर लोकतंत्र का शासन होने पर भी चलन जारी है । शासकों की समाधियों की दर्दनाक कहानी है मुर्दों को ज़िंदा रखने की राजनीति कुछ उसी तरह है खाने वाले को मज़ा नहीं आया जनता वो बकरा है जिसकी जान जानी है । हर समाधि में दफ़्न कितने राज़ हैं ताजमहल की चाह में अभी तलक हर शाहंशाह है ढूंढता इक मुमताज है आपके हमराज़ हैं ख़ामोश हैं मगर दर्द भरी आवाज़ हैं धुन मधुर कैसे निकलते हैं क्या गुज़रती है जानते सिर्फ़ साज़ हैं । कुछ अशआर बड़े शायरों में इस मौज़ू पर बाद में पहले मेरा इक शेर है ' तू कहीं मेरा ही क़ातिल तो नहीं मेरी अर्थी को उठाने वाले ' इक और ग़ज़ल है बस यही इक करार बाक़ी है , मौत का इंतज़ार बाक़ी है '। 
आधुनिक संदर्भ में जाँनिसार अख़्तर जी के शेर कुछ इस तरह से हैं  , ' किस की दहलीज़ पे ले जाके सजाएं इसको , बीच रस्ते पे कोई लाश पड़ी है यारो '। ' दिल का वो हाल हुआ है ग़में दौरां के तले , जैसे कोई लाश चटानों में दबा दी जाए '। ' कितनी लाशों पे अभी तक , एक चादर सी पड़ी है '। मुंशी प्रेमचंद जी की कहानी कफ़न में शब्द हैं ' जीते जी तन ढकने को कपड़ा नहीं , मरने पर नया कफ़न ऐसा कितना कुछ है साहित्य शायरी कहानियों में मगर यहां माजरा कुछ और ही है ।  
 
ज़िंदगी भर मौत का डर सताता है कुछ लोग हैं जिनको स्वर्ग नर्क जन्नत दोजख़ का खेल समझाना आता है बस इक कमाल है सबको उपदेश देने वाला खुद अपने समझाए उसूलों पर खुद नहीं खरा उतरता कभी मोह माया से बचने की राह दिखलाने वाला प्रवचन देने की फीस पाकर आयोजन स्थल पे आता है । सब कुछ छोड़ दिया बताता है रखता एक दो नंबर का खाता है । कौन उनको क्यों घर बुलाता है उनको मालूम है जो खोता है वही पाता है । दान दक्षिणा से चढ़ावा सब पर नज़र रखते हैं कैसा भरोसा कैसा यकीन अब लिख कर करार रखते हैं उनकी दुनिया में लाख पर्दे हैं कुछ भी बाहर से दिखाई नहीं देता पास से भी सुन नहीं सकते राज़ है जो सुनाई नहीं देता । मरने के बाद ख़ुद नहीं जाते अवशेष कोई पहुंचाता है ये भी करना बड़ा ज़रूरी है मुक्ति मोक्ष तभी पाता है उलझन कुछ नहीं सवाल कोई नहीं कौन डूबता है किस पार जाता है । किस किस शहर का नाम बताएं कोई गिनती नहीं हिसाब नहीं चुप चाप मान लेना अच्छा है छोटा मुंह बड़ी बात बोलने की औकात नहीं । जो समझाए समझ आ गया है कहो दिन तो दिन है नहीं है रात तो है रात नहीं । शर्म करो इक जनाज़ा है कोई बारात नहीं अश्क़ों की कीमत है ज़िंदगी को मिली सौग़ात नहीं । खूबसूरत इक दुनिया बनाने लगे हैं लोग श्मशान को इतना सजाने लगे हैं लोग किस किस बहाने से बुलाने लगे हैं यूं भी तक़दीर को बनाने को तदबीर बनाने लगे हैं । सोचा नहीं था सच होगी मेरी नज़्म वसीयत जश्न मरने का मनाया जाने लगा है । शायद इस विषय पर इतना बहुत है सजन रे झूठ मत बोलो ख़ुदा के पास जाना है , न हाथी है न घोड़ा है वहां पैदल ही जाना है । इसी बहाने अपनी तीन रचनाएं फिर से दोहरानी हैं जाते जाते आखिर में पेश हैं ।
 

ग़ज़ल 

 
राहे जन्नत से हम तो गुज़रते नहीं
झूठे ख्वाबों पे विश्वास करते नहीं ।

बात करता है किस लोक की ये जहां
लोक -परलोक से हम तो डरते नहीं ।

हमने देखी न जन्नत न दोज़ख कभी
दम कभी झूठी बातों का भरते नहीं ।

आईने में तो होता है सच सामने
सामना इसका सब लोग करते नहीं ।

खेते रहते हैं कश्ती को वो उम्र भर
नाम के नाखुदा पार उतरते नहीं ।
 

नज़्म  

 
जश्न यारो , मेरे मरने का मनाया जाये
बा-अदब अपनों परायों को बुलाया जाये ।

इस ख़ुशी में कि मुझे मर के मिली ग़म से निजात
जाम हर प्यास के मारे को पिलाया जाये ।

वक़्त ए रुखसत मुझे दुनिया से शिकायत ही नहीं
कोई शिकवा न कहीं भूल के लाया जाये ।

मुझ में ऐसा न था कुछ , मुझको कोई याद करे
मैं भी कोई था , न ये याद दिलाया जाये ।

दर्दो ग़म , थोड़े से आंसू , बिछोह तन्हाई
ये खज़ाना है मेरा , सब को दिखाया जाये ।

जो भी चाहे , वही ले ले ये विरासत मेरी
इस वसीयत को सरे आम सुनाया जाये । 
  

ग़ज़ल 

 
बस यही इक करार बाकी है
मौत का इंतज़ार बाकी है ।

खेलने को सभी खिलाड़ी हैं
पर अभी जीत हार बाकी है ।

दिल किसी का अभी धड़कता है
आपका इख्तियार बाकी है ।

मय पिलाई कभी थी नज़रों से
आज तक भी खुमार बाकी है ।

दोस्तों में वफ़ा कहां बाकी
बस दिखाने को प्यार बाकी है ।

साथ देते नहीं कभी अपने
इक यही एतबार बाकी है ।

हारना मत कभी ज़माने से
अब तलक आर पार बाकी है ।

लोग सब आ गये जनाज़े पर
बस पुराना वो यार बाकी है ।
 



1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

फिल्मी गीत से शुरू हुआ बढ़िया लेख👌👍 मौत के कारोबार की बात करता हुआ