मई 17, 2023

ख्वाबों ख्यालों की दुनिया ( सबसे पुरातन कथा ) डॉ लोक सेतिया

 ख्वाबों ख्यालों की दुनिया ( सबसे पुरातन कथा  ) डॉ लोक सेतिया

इक कल्पनालोक की सच्ची बात है इस दुनिया जहान से बिल्कुल अलग इक ऐसी दुनिया है जहां पर किसी से किसी का कोई नाता नहीं है सब साथ होते हैं पर अकेले कभी नहीं होते उस जगह किसी को पाने की कोई ख़ुशी नहीं होती खोने का कभी कोई ग़म नहीं होता । हमराज़ हमसफ़र हम निवाला हम प्याला होते है हमदम नहीं होता बहारों की बात है खिज़ा के मौसम नहीं होते फूल होते हैं काटों के चमन नहीं होते । दोस्ती क्या दुश्मनी क्या वहां किसी को मालूम नहीं हर कोई आदमी है मशीन नहीं है अपनी दुनिया इक वीराना है उस जहां में गुलशन हैं अश्कों से भीगे दामन नहीं होते । इस जहां में किसी की बढ़ाई कोई नहीं करता और किसी की कभी होती तौहीन नहीं होती । सब रंग हैं बराबर सब बातें सीधी हैं जो समझ नहीं पाए ऐसी कोई बात महीन नहीं होती । सौ तरह की परिभाषा की ज़रूरत नहीं होती अपने जहां जैसी इक भी रिवायत नहीं होती , कुछ भी हो रहने वालों को शिकायत नहीं होती । सब होता है बहस की गुंजाइश नहीं है । भटकते भटकते हम इधर आ गए हैं कुछ ख़ास महान व्यख्यान देने वालों से अचानक टकरा गए हैं , मुझे देख कर वो किसलिए घबरा गए हैं । अंधेरे उजालों को रौशनी का राज़ समझा गए हैं दूर जाते जाते सब नज़दीक वापस आ गए हैं । 

चिंता मत करें आपको किसी दुविधा में नहीं रखता कोई चौंकाने हैरान करने की कोशिश कर उलझन में नहीं डालते हुए बताना है कि हुआ क्या है माजरा क्या ये जगह कौन सी है इसका भगवान वाहेगुरू खुदा अल्लाह क्या है । मैंने उस अनजान अजनबी से बिना सोचे समझे यही मांग लिया कि जिस किसी ने दुनिया को जब बनाया तब कैसी थी मुझे देखना है और आंखें बंद कर भीतर झांकने पर मुझे यही नज़ारा दिखाई दिया है । आपको या खुद मुझी को इसको लेकर शंका हो सकती है कि ये सच है या कोई बनाई मनघड़ंत कहानी है फिर भी मुझे इसी जगह रहना है कहीं और जाना नहीं चाहता । कभी न कभी सभी ऐसा करते हैं अपने ख्यालों में खो जाते हैं उन से बाहर नहीं निकलना चाहते बस बंद आंखों का ये खेल है आंख खुलते ही इक डर है कहीं ये खूबसूरत दुनिया गुम नहीं हो जाये उम्र लगी है इसी की तलाश करने में दोबारा क्या खबर करना संभव हो कि नहीं हो । मुझे ये दुनिया जो शुरू में बनाई थी देखने की अनुमति उस ने इस शर्त के साथ दी कि इस दुनिया को सैरगाह समझ आनंद उठाना है बस समय आते वापस लौट जाना है जिस ने भेजा इक दिन बुलाना है ये दुनिया इक सराय है मुसफ़िरख़ाना है कभी नहीं बनाना कोई ठिकाना है । आखरी बात इतनी समझाना है जिधर जाना मना है भूलकर भी नहीं जाना है । इक पंछी से तुझे मिलवाना है जो भी कहे मान जाना है । 
 
 देखा इक पंछी दिखाई दिया मुझे आवाज़ दे कर बताया उधर जाना मना है नहीं जाना है । ठीक है मुझे राज़ समझना है ये जहां कैसा फ़साना है हक़ीक़त है ये कोई अफ़साना है । उसने बताया अभी जो तुझे मिले थे राह में टकरा गए थे अचानक देख कर घबरा गए थे मेरी तरह पंछी हुआ करते थे , मुसाफ़िर को जिस तरफ नहीं जाना समझाते रोका करते थे । इक दिन किसी ने पंछी को मीठा फल खिलाया लालच ने उनसे अपना फ़र्ज़ भुलवाया तभी से लोग मनमानी करने लगे हैं कुदरत से छेड़खानी करने लगे हैं । आदमी अपना ईमान बेच कर बेईमानी करने लगे हैं , खुद खराब अपनी ज़िंदगानी करने लगे हैं ।  जिस शाख पे बैठे उसी को काटने की नादानी करने लगे हैं ।  

  कितने पंछी मीठा फल खाकर मुसाफिरों को रोकने की बात भूल गए बस उपदेशक की तरह बातें समझाने लगे अपने चाहने वालों से चढ़ावा ले खाने लगे । छोड़ो क्या होगा जानकर कि कब क्यों किस ने ये जहां बनाया नीचे धरती ऊपर आस्मां बनाया , सोचना है तो सोचो इक आदमी ने पहले घबरा कर तन्हाई से कोई आशना बनाया दोनों ने साथ मिलकर कोई कारवां  बनाया साथ रहने को इक मकां बनाया । इक भूल हुई उनसे बदलने चले जहां को जो भी मिला सफर में सोचे समझे बगैर उसे हमज़ुबां बनाया फिर मेहरबां बनाया फिर रहनुमां बनाया । खुद को गुमान था बस मेरा है सब मेरा है किसी और को नहीं हो हासिल इस बात ने आदमी को बदगुमां बनाया । दिन रात क्या होते हैं कभी अंधेरा कभी उजाला ये कुदरत का नियम उसको न रास आया आखिर साथ छोड़ जाता है अपना साया घर के करीब जिस ने आकर कोई घर बनाया था जो भी हमसाया लगने लगा पराया । खुदगर्ज़ी का सबक कब किसी ने था पढ़ाया पर आदमी इस बला से फिर कभी नहीं बच पाया । इक होड़ लग गई सब भागने लगे ज़मीन बंटने लगी इंसान बंटने लगे अजब हाल था दुनिया पूरी पर अधिकार था नासमझ कुछ टुकड़ों की खातिर भागते भागते मौत की आग़ोश में समाने लगा ।  
 
अब पछताने से क्या होगा जब आदमी ने दुनिया बनाने वाले की बनाई शानदार दुनिया को बदल कर खुद इक दुनिया जैसी उसको चाहिए बनाने की ख़्वाहिश में ख़ुदग़र्ज़ी में सब बर्बाद कर दिया है । खुद को अपने बनाने वाले से बड़ा और ऊपर समझने की सोच के पागलपन ने इंसान का सब छीन लिया है सुख चैन सुकून सभी । धनवान से धनवान ताकतवर से ताकतवर तमाम साधन सुविधाओं को पाने के बाद भी हालत किसी भिखारी जैसी है जिस को जितना मिले थोड़ा लगता है । गरीबी यही है सब पास है फिर भी अधिक पाने की चाहत बाक़ी है इन हसरतों ने इंसान को बहशी जानवर बना दिया है । आदमी आदमी का शिकार करने लगा है मुझे दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल याद आई है । हम भी पंछी हैं आप सभी भी पंछी हैं चार घड़ी का बसेरा है ये गीत गुनगुनाते रहते हैं ।
 

       अब नई तहज़ीब के पेशे-नज़र हम , आदमी को भूनकर खाने लगे हैं । 





1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

तुकांत शब्दावली का प्रयोग...पंछी प्रतीक के माध्यम से बात की गहनता को समझाया गया👌