मई 28, 2023

रौशनी छीन के घर घर से चिरागों की ( अजब मंज़र ) डॉ लोक सेतिया

रौशनी छीन के घर घर से चिरागों की ( अजब मंज़र ) डॉ लोक सेतिया 

कुलदील सलिल जी की बात से शुरुआत करते हैं और आखिर में उनकी लाजवाब ग़ज़ल भी पढ़ते हैं। 

                   सितम को जड़ से जो काटे उसे शमशीर कहते हैं 
                   जो पत्थर को भी पिघला से उसे तासीर कहते हैं ।
 
                     अमीरों का मुकद्दर तो बना होता है पहले ही 
                    गरीबों की जो बन जाए उसे तकदीर कहते हैं ।  
 
 गरीबी और भूख में जिस देश का स्थान खेदजनक हो उस की राजधानी और सचिवालय की जगमगाहट क्या वास्तविकता पर पर्दा डाल सकती है । क्या सब कुछ सबसे पहले उनको चाहिए जिनका कहने को मकसद देश सेवा जनता की सेवा और समाज कल्याण करना समझा जाता है लेकिन वास्तविक सोच और चाहत ख़ास बड़े लोग होकर मनमानी करना और नियम कानून का उपहास करने की रहती है । जब देश की साधारण जनता मालिक फुटपाथ पर और सांसद सेवक होकर शानदार महल में मौज मस्ती करे तब उसे लोकतंत्र नहीं कहना चाहिए । कुछ भी और कहने से पहले इक सीधा सा गणित है 1200 करोड़ खर्च कर नया शानदार भव्य संसद परिसर बनाने का अर्थ है देश की जनता 140 करोड़ संख्या है तो एक एक व्यक्ति 8 1/2 रूपये का खर्च होता है चिड़ी चोंच भर ले गई उनको लगता है लेकिन इसका अर्थ है जिनकी रगों में लहू बचा ही नहीं उनसे कितना और निचोड़ोगे । आपको चकाचौंध रौशनी मिले मगर गरीब का दिया बुझा कर कदापि नहीं होना चाहिए । दाने दाने को तरसते लोग जिनका कोई ठिकाना नहीं उनको ये देख कर महसूस हो सकता है कि उनकी बेबसी का मज़ाक है ज़ख्मों पर नमक छिड़कने की तरह । सोचना अवश्य चाहिए कितना महत्वपूर्ण था ये निर्माण करना सोचना होगा इस संसद में कितने अपराधी कितने धनबल के कारण और कितने इक तरह से किसी दल की अनुकंपा से बैठे मिलेंगे । संसद की पवित्रता उसकी मर्यादा की चिंता छोड़ आधुनिक साधन सुविधाओं की बात करना लगता है जैसे कोई कारोबारी व्यौपारी चर्चा को पांचतारा होटल का माहौल चाहिए । सच कहें तो मिट्टी से ज़मीन से नाता तोड़ कर कंकर पत्थर की ईमारत से मुहब्बत करना हमारे देश की मान्यताओं पर खरा नहीं उतरता और लगता है जैसे लोकतंत्र नहीं खानदानी महाराजाओं का कोई दरबार है । मुमकिन है सामन्य नागरिक की फरियाद आधुनिक संसद की दिवारों को लांघ ही नहीं पाये ।
संविधान की भावना की बात करना व्यर्थ है उसे लेकर उदासीनता साफ दिखाई देती है जाने कब से राजनेताओं सरकारों प्रशासन ने उसको ताक पर रख दिया है । 

   वैसे भी गरीबी महंगाई की बात करना भी कोई नहीं चाहता राजनेता से सोशल मीडिया टीवी चैनल तक सभी को हरियाली ही हरियाली दिखाई देती है । प्राथमिकता बदल गई हैं जनता को दिखावे को योजनाएं जो कभी कामयाब नहीं होती और अधिकारी व्यौपारी वर्ग राजनेताओं की हर ज़रूरत पूरी होती है । अगर खज़ाना लबालब भरा था तो इतना पैसा देश में सबको शिक्षा स्वास्थ्य सेवाएं , बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध करवाने पर और भूख बेरोज़गारी से छुटकारा पाने पर निवेश किया जाता पहले देश की जनता में सभी को शानदार आवास और जीने को तमाम सुविधाएं उपलब्ध  करवाई जाती , तब संसद भवन की बारी आती तो लोक का कल्याण पहले होना चाहिए लगता सही है  । ये कीमत चुकाई है अथवा चुकानी होगी सभी देशवासियों को अगर ये क़र्ज़ ले कर घी पियो की बात है । मुझे नहीं पता जो अपनी हसरतें नाम शोहरत और शाहंशाही रहन सहन सैर सपाटे  अन्य कितने भव्य आयोजन नवाबी ढंग से शान बढ़ाने को करता है उसको देश की आधी से अधिक आबादी की बदहाली पर रत्ती भर भी एहसास है मानवीय संवेदना है । क्यों नहीं बड़े नेता अभिनेता जो करोड़ों रूपये बिना किसी शारीरिक मेहनत केवल टीवी पर विज्ञापन देने का धंधा कर बनाते हैं इस को महान घोषित करें जबकि वो फ़िल्म वाले टीवी वाले करते क्या हैं पैसा कमाने को दर्शकों को फ़िल्म टीवी सीरियल से समाचार तक की आड़ में गंदगी परोसना गुमराह करना और हिंसा को बढ़ावा देना । 
 
  जी यही उपलब्धि है पिछले तीस साल से इन सभी ने भगवान बना लिया है पैसे को और शैतान को इतना चमकदार किरदार बनाकर खड़ा कर दिया है कि अधिकांश हम लोग उसे स्वीकार ही नहीं पसंद करने लगे हैं । इस तथाकथित अभिजात्य वर्ग को देश समाज से जनता से ज़रा भी सरोकार नहीं है । आपसी भाईचारा है गुणगान करते हैं बदले में मनचाहा वरदान पाते हैं साफ शब्दों में ईमान बेच कर जागीर बनाना आसान है उनकी दुनिया में और सही मार्ग पर चल कर जीने की चाहत इक आफत की तरह है । उनको कितना चाहिए कोई हिसाब नहीं देश की आज़ादी और संविधान को कुछ लोगों ने अपना बंधक बना लिया है और आम जनता को बेबस और लाचार बना कर किसी भिखारी जैसी हालत कर दी है जबकि शोर इनके तमाशों का है जनता की आहों की आहट भी कहीं किसी को सुनाई नहीं देती है । सरकार को इतना तो बताना चाहिए कि इस पर किया खर्च क्या है कैसे हुआ है कितना जमापूंजी से कितना क्या क्या बेच कर कितना गिरवी रख कर विरासत को और कितना क़र्ज़ या उधार कितने सालों तक कौन चुकाएगा । ये विकास है देशभक्ति है तो मुझे ऐसा मंज़ूर नहीं कुलदीप सलिल ही नहीं दुष्यंत कुमार जी की पहली ग़ज़ल यही है , " कहां तो तय था चिरागां हर एक घर के लिए , कहां चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए "। 

आखिर में कुलदीप सलिल जी की ग़ज़ल बहुत कुछ कहती है । 

इस कदर कोई बड़ा हो मुझे मंज़ूर नहीं 
कोई बंदों में खुदा हो मुझे मंज़ूर नहीं । 

रौशनी छीन के घर घर से चिरागों की अगर 
चांद बस्ती में ऊगा हो मुझे मंज़ूर नहीं । 

मुस्कुराते हुए कलियों को मसलते जाना 
आपकी एक अदा हो मुझे मंज़ूर नहीं । 

हूं मैं अगर आज कुछ तो हूं बदौलत उसकी 
मेरे दुश्मन का बुरा हो मुझे मंज़ूर नहीं । 

खूब तू खूब तेरा शहर है , ता -उम्र 
एक ही आबो-हवा हो मुझे मंज़ूर नहीं । 

सीख लें दोस्त भी कुछ अपने तज़रबे से कभी 
काम ये सिर्फ मेरा हो , मुझे मंज़ूर नहीं । 
 
हो चिरागां तेरे घर में मुझे मंज़ूर ' सलिल ' 
ग़ुल कहीं और दिया हो मुझे मंज़ूर नहीं ।

 


1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

जनता में कंगाली है।
इक सत्ता पर लाली है।
उम्मीद बड़ी थी इससे,
ये सुबहा भी काली है।
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