बातें हैं बातों का क्या ( चिंतन मनन ) डॉ लोक सेतिया
सिर्फ़ आप ही नहीं अन्य कितने ही लोग दोस्त संबंधी हैं जिनको मैं इसलिए नापसंद हूं क्योंकि उनकी आरज़ू है मुझे भी अपने जैसा बनाने की , शायद उनको चाहत तो थी खुद ही मुझ जैसा बनने की , लेकिन ये उनसे संभव नहीं हुआ तो सोचा जो खुद चाह कर नहीं हो पाये मुझे ही वैसा नहीं रहने दें । बस आपकी और मेरी दुनिया में यही फर्क है जिसे सब मिटाना चाहते हैं मिटा पाते नहीं हैं । सवाल सही गलत अच्छे बुरे का बिल्कुल नहीं है सही बात तो सब जानते हैं दुनिया में ज़िंदा कोई अच्छा नहीं होता और मरने के बाद सभी को लेकर पता चलता है कि उसकी कमी कोई कभी पूरी नहीं कर सकता है । थोड़े दिन की बात है फिर किसी के नहीं होने से कुछ भी रुकता नहीं सब दुनिया का हर कारोबार चलता रहता है । ज़रा सी बहुत छोटी सी बात है खुद अपने ढंग से जियो और सबको उनकी मर्ज़ी से जीने दो । किसलिए आपको अन्य सभी के जीवन की तमाम बातों में रूचि है और दखल देना चाहते हैं जबकि सच है कि आपको किसी की परेशानी में कोई मदद नहीं करनी सिर्फ ज़ख्मों को कुरेदना है और कोई अपना खुश है चैन से रहता है तो आपको ये भी अच्छा नहीं लगता है । ऐसे रिश्ते निभाने से अच्छा है उनसे दूर अलग रहना और अपने हालात को खुद समझना किसी से सुःख दुःख बांटने का ज़माना अब नहीं है । किसी की शोक सभा में भी आजकल लोग सामान्य ढंग से अपने मतलब की बातें करते हैं कुछ मिंट भी अपनी व्यक्तिगत बातों को छोड़ नहीं सकते इस से बढ़कर अन्य कोई असंवेदनशीलता की मिसाल नहीं हो सकती है ।
कहने को ईश्वर धर्म और पूजा पाठ को लेकर बड़ी अच्छी बातें करते हैं अधिकांश लोग लेकिन वास्तविक जीवन और आचरण में लोभ लालच अहंकार और दुनिया भर की झूठी सच्ची बुराई की बातों से निकल नहीं पाते हैं । गीता कुरआन बाईबल रामायण गुरुग्रंथसाहिब पढ़ कर सुन कर समझा कुछ भी नहीं सिर्फ सर झुकाने से कुछ हासिल नहीं हो सकता है । हमने ईश्वर धर्म आस्था और सामाजिक व्यवस्था को बेहतर बनाने को साधु संतों महात्माओं के बताए दिखलाए मार्ग को समझने अपनाने की जगह उनका आडंबर करना शुरू कर दिया है । जिस रास्ते पर चलना था उसे त्याग कर जिधर नहीं जाना था उसी तरफ चलते जा रहे हैं । सच्चाई ईमानदारी और सबकी भलाई की शिक्षा भूलकर खुदगर्ज़ी का सबक पढ़ बैठे और सब अपकर्म करने पर भी चाहते हैं अच्छे सच्चे धर्मात्मा कहलाना । कोई सच कहता है तो हम उसको अपना विरोधी ही नहीं दुश्मन मानने लगते हैं और अपनी असलियत छुपाने को सच कहने वाले की बुराई करने उसको नीचा दिखाने लगते हैं । ये कोई धर्म नहीं सिखलाता है ये रास्ता भटकना है जो भी भटक गया कभी कहीं नहीं पहुंचा । आपकी राह अलग है मुझे अपनी राह पर चलना है क्या कभी मैंने आपको विवश किया उधर नहीं जाओ इधर चलो मेरे साथ । मुझे अकेले अपनी राह चलना है भीड़ में कभी उस कभी इस ओर भटकना नहीं है । दो कविताएं हैं विषय को परिभाषित करने की कोशिश है ।
जाना था कहां आ गये कहां ( कविता )
ढूंढते पहचान अपनी
दुनिया की निगाह में ,
दुनिया की निगाह में ,
खो गई मंज़िल कहीं
जाने कब किस राह में ,
सच भुला बैठे सभी हैं
झूठ की इक चाह में ।
आप ले आये हो ये
सब सीपियां किनारों से ,
खोजने थे कुछ मोती
जा के नीचे थाह में ,
बस ज़रा सा अंतर है
वाह में और आह में ।
लोग सब जाने लगे
क्यों उसी पनाह में ,
क्यों मज़ा आने लगा
फिर फिर उसी गुनाह में
फिर फिर उसी गुनाह में
मयकदे जा पहुंचे लोग
जाना था इबादतगाह में ।
जाना था इबादतगाह में ।
आस्था ( कविता )
सुलझे न जब मुझसे
कोई उलझन
निराशा से भर जाये
जब कभी जीवन
नहीं रहता
खुद पर है जब विश्वास
मन में जगा लेता
इक तेरी ही आस ।
नहीं बस में कुछ भी मेरे
सोचता हूं है सब हाथ में तेरे
ये मानता हूं और इस भरोसे
बेफिक्र हो जाता हूं
मुश्किलों से अपनी
न घबराता हूं ।
लेकिन कभी मन में
करता हूं विचार
कितना सही है
आस्तिक होने का आधार
शायद है कुछ अधूरी
तुझ पे मेरी आस्था
फिर भी दिखा देती है
अंधेरे में कोई रास्ता ।
कोई उलझन
निराशा से भर जाये
जब कभी जीवन
नहीं रहता
खुद पर है जब विश्वास
मन में जगा लेता
इक तेरी ही आस ।
नहीं बस में कुछ भी मेरे
सोचता हूं है सब हाथ में तेरे
ये मानता हूं और इस भरोसे
बेफिक्र हो जाता हूं
मुश्किलों से अपनी
न घबराता हूं ।
लेकिन कभी मन में
करता हूं विचार
कितना सही है
आस्तिक होने का आधार
शायद है कुछ अधूरी
तुझ पे मेरी आस्था
फिर भी दिखा देती है
अंधेरे में कोई रास्ता ।
1 टिप्पणी:
पढ़कर ये याद हो आया
मुझको चलाना चाहता अपने हिसाब से।
उसकी ये शर्त है रहूँ उसके हिसाब से।।
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