समझौता कोरोना से कर लो ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
" ये खैरखाह ज़माने ने तय किया आखिर , नमक ही ठीक रहेगा जले कटे के लिए। "
गुरूजी आर पी मह्रिष जी का शेर है। जनाबेआली समझा रहे हैं अब दर्द की दवा यही है दर्द सहना होगा। दर्द के साथ जीने की आदत डालनी होगी। कब तलक हाथ पर हाथ धरे बैठे रहोगे , भला ऐसे भी कोई राज करने का मज़ा है। बहुत हाल चाल जान लिया तसल्ली दे दे कर थक गए अब भूखे भजन न होये गोपाला। सरकार को कर चाहिए कर देने को आपको कारोबार करना होगा बहुत कारोबार अपनी ज़रूरत को किया अब देश की तिजोरी खाली होने को है वही नहीं भरी तो सत्ता का हासिल क्या है। कभी विचार ही नहीं किया था राजनेताओं और सरकारी अधिकारियों ने कि जनता नहीं है सरकार के भरोसे , सरकार का वजूद ही जनता के सहारे है। चलो पता चला सेवक सेवक होता है मालिक मालिक रहता है। 45 दिन में टें बोलने लगे लोग 72 साल से हिम्मत नहीं हारे हैं। उनको यही लगता था जनता ज़रूरी है शासन करने को लोग होने चाहिएं और वोट देने को भी जनता की ज़रूरत आमदनी को भी होती है इसकी कल्पना नहीं की थी। अब तो बात आशिक़ी जैसी बन गई है तुम बिन जीवन कैसा जीवन। हम तुमसे जुदा हो के मर जाएंगे रो रो के।
दुश्मनी का सफर एक कदम दो कदम , तुम भी थक जाओगे हम भी थक जाएंगे।
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे ,जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिन्दा न हों।
दुनिया में सब किसी की पसंद का नहीं हुआ करता। पसंद नापसंद दोनों तरह के लोग माहौल चीज़ें गांव शहर रास्ते आदमी रिश्ते नाते होते हैं। पहले सभी सब कुछ बदलने की कोशिश करते हैं फिर ऐसा भी होता है कि जिनको बदलना था खुद उन्हीं जैसे हो जाते हैं , या जो न बदलते हैं न ही बदलना चाहते हैं हालत को देख कर समझ कर समझौता कर लेते हैं। टकराव आखिर कब तक हर कोई थक जाता है। आखिर बड़े बड़े शूरवीर घुटने टेक देते हैं हार नहीं मानते मगर शांति समझौता करने की बात होने लगती है। चीन पाकिस्तान आतंकवाद से हम रोज़ लड़ते हैं रोज़ मिल बैठते हैं , सयाने लोग कहते थे बीच का रास्ता बनाए रखना चाहिए ज़िद करके रूठे हैं तब भी मान जाने की उम्मीद कायम रखनी चाहिए और जब कोई मनाने आये तो मान भी जाना चाहिए। इतनी जल्दी हार मानने की उम्मीद तो नहीं थी जैसे सरकार ने सीना ठोककर कहा था कोरोना को हराना ही है चाहे कुछ भी हो। दो महीने भी नहीं हुए और सरकार ने झुकने का निर्णय कर लिया है देश की जनता का हौंसला कायम रहता है उसे कितनी तरफ से किस किस ने घेरा हुआ है सबसे लड़ती रहती है हर पल उसकी जंग किसी जद्दोजहद की तरह चलती रहती है। राजनेताओं को केवल एक ही लड़ाई लड़नी आती है चुनावी जंग में उनको कोई रोक नहीं सकता है सत्ता लुभाती रहती है।
इक कहानी याद आई है इक नगर के शासक को सूचना मिली कोई बदमाश नगर भर को परेशान करने लगा है। अपने सिपहसलार को कहा उसको आदेश भेजो दरबार में हाज़िर हो अभी , हवालदार आदेश देकर वापस लौट आया मगर बदमाश ने कोई जवाब नहीं दिया। उसके बाद दरोगा को जाकर पकड़ने का आदेश जारी किया गया मगर दरोगा का हुक्म नहीं माना बदमाश ने कह दिया जाओ नहीं चलता साथ। दरोगा अकेला हाथ में डंडा पकड़े समझ गया जान है तो जहान है आकर बताया जनाब मुझसे नहीं पकड़ा गया। अब सिपहसलार खुद साथ अपनी सेना लेकर बदमाश को सबक सिखाने पहुंचा मगर अकेला बदमाश दस पर भारी पड़ने लगा जाने क्या क्या हथियार लिए थे जो शहर के शासक के पास नहीं थे। आखिर शासक को बदमाश को समझौता करने को शांतिवार्ता को किसी की मध्यस्ता से मिलना पड़ा। जब आमना सामना होता है तब कोई छोटा बड़ा नहीं होता है जो जीता वही सिकंदर होता है। सरकार ने अभी तक सोचा भी नहीं था कि कोई छोटा सा जीवाणु उसको विवश कर सकता है हारने की तो बात सपने में नहीं थी दुनिया को जीतने का भरोसा था। जल्द समझ गए ये कोई चुनाव नहीं है जो किसी भी तरह जीत लेंगे और नहीं जीत सके तब भी जोड़ तोड़ खरीद फ़रोख़्त से अपनी सरकार बनवा लेंगे। यहां खुद को चाणक्य होने का दावा करने वाले भी खामोश हैं उनको सब जानकारी सबको समझानी ज़रूरी लगती थी अब कोरोना शब्द बोलते ज़ुबान लड़खड़ाने लगती है। सवाल कोरोना का होना नहीं है सवाल सरकार का सरकार होना है।
सुदर्शन फ़ाक़िर की ग़ज़ल है।
आज के दौर में ऐ दोस्त ये मंज़र क्यों है , ज़ख्म हर सर पे हर इक हाथ में पत्थर क्यों है।
अपना अंजाम तो मालूम है सब को फिर भी , अपनी नज़रों में हर इक शख़्स सिकंदर क्यों है।
जब हक़ीक़त है कि हर ज़र्रे में तू रहता है , फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मंदिर क्यों है।
ज़िंदगी जीने के काबिल तो नहीं अब फ़ाकिर , वर्ना हर आंख में अश्कों का समंदर क्यों है।
क्या बदनसीबी है कि जब लोग जीने से तंग आकर मौत का भी सामना करने को तैयार होते हैं , फ़रमान जारी किया जाता है जीने के लिए। ये भी कोई जीना है डर डर कर हर पल मौत को देखना , इक बार मरना मुश्किल नहीं ये बार बार नहीं मरना चाहते लोग।
जाते जाते अपनी इक ग़ज़ल भी पेश करता हूं :-
आप ये कैसी सज़ा देने लगे।
दर्द दुनिया को दिखाये थे कभी ,
दर्द बढ़ने की दवा देने लगे।
लोग आये थे बुझाने को मगर ,
आग को फिर हैं हवा देने लगे।
अब नहीं उनसे रहा कोई गिला ,
अब सितम उनके मज़ा देने लगे।
साथ रहते थे मगर देखा नहीं ,
दूर से अब हैं सदा देने लगे।
प्यार का कोई सबक आता नहीं ,
बेवफा को हैं वफ़ा देने लगे।
कल तलक मुझ से सभी अनजान थे ,
अब मुझे मेरा पता देने लगे।
मांगता था मौत "तनहा" रात दिन ,
जब लगा जीने , क़ज़ा देने लगे।
( ग़ज़ल लोक सेतिया "तनहा" )
1 टिप्पणी:
बहुत की बढ़िया तंज़ करते हुए लेख बढ़ा है👌👍
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