जून 30, 2019

बेनाम चिट्ठी बिना पते की ( आरज़ू ए दिल ) डॉ लोक सेतिया

   बेनाम चिट्ठी बिना पते की ( आरज़ू ए दिल ) डॉ लोक सेतिया 

( जो नहीं जानते उन्हें बताना लाज़मी है कि मेरी आदत रही है अक्सर ख़त लिख कर रखता हूं किसी को पढ़ाने के वास्ते । 

ख्वाब है कि कोई है जो मेरी तरह लिखता होगा मेरे ख़तों के जवाब भी ऐसे ही । 

कई दिन बाद फिर दिल कुछ कहना चाहता है सुनता कोई नहीं , लिख के रखता हूं जब कभी वो सपने का अपना मिलेगा तो दे दूंगा पढ़ने को । )

मेरे अनाम दोस्त ,

आज इतनी सी बात बतानी है कि इक छोटी सी आरज़ू है दिल में अभी तलक भी। ज़िंदगी को जीना चाहता हूं खुद अपने साथ रहकर बगैर किसी बंधन किसी कैद किसी ज़ंजीर के मर्ज़ी से। अभी हैं कुछ बाकी काम दुनियादारी के फ़र्ज़ निभाने को रहते हैं उनको पूरा कर लूं तभी बिना कोई बोझ क़र्ज़ का सीने पर लिए जी पाऊंगा भले एक साल ही सही ज़िंदगी से मोहलत मिले तो सही। जाने किस किस ने अपनी बही खाते में मेरे नाम क्या कुछ बकाया लिखा हुआ होगा। मेरे पास तो किसी का कुछ भी जमा नहीं है मगर तकाज़ा है हर किसी का लेनदारी का जो इनकार नहीं किया जा सकता है। नहीं मालूम ज़िंदगी को कितनी ऐसी शर्तों में किस ने जकड़ा हुआ बनाया है बड़ा कठिन हिसाब है ये दुनिया का जिस में क़र्ज़ का पलड़ा भारी रहता है रिश्तों नातों दोस्ती के तराज़ू के पलड़े में। लाख कोशिश करने पर भी बराबर नहीं होते हैं। बाट भारी हैं उठाये भी नहीं जाते आसानी से बड़ी मशक्क़त से कोशिश करने पर भी सांस फूलती है और घायल होने का डर रहता है। 

आंखे हैं कि नज़र धुंधली होती जाती है पास से भी कुछ नज़र नहीं आता कोई आवाज़ ठीक से सुनाई भी नहीं देती और जो कहता हूं कोई सुनता नहीं सुन भी ले तो समझ नहीं पाता लोग कहते हैं मुझे बात कहनी नहीं आती शायद भूल गया हूं दुनिया से संवाद करने का तौर तरीका। साफ सीधी खरी बात भी लोग कहते हैं बेकार की बात है किस युग किस ज़माने की है ये बात। आजकल इन बातों का कोई मतलब नहीं रह गया है तुम भी निकलो इस अपनी ख्वाबों की दुनिया से बाहर। मगर ये बाहरी दुनिया मुझे कब रास आई है बड़ी बेदिल और बेरहम दुनिया है डराती है दूर से ही पास जाने का साहस ही नहीं होता मुझसे। 

  चमकती हुए रेत सी है ये दुनिया और मैं भागते भागते तक गया हूं आराम करना चाहता हूं थोड़ा रुककर किसी पेड़ की छांव में ठंडी हवा के झौंके से किसी ममता की गोद में किसी के आंचल को ढककर सो जाने का मन है। चलने की ताकत बची नहीं है कुछ देर को चैन मिल जाये तो फिर आगे की राह चलने का इरादा करना है मगर अब के कोई कारवां कोई काफ़िला साथ नहीं रखना। अब अकेले खुद के साथ अपनी मंज़िल को तलाश करना है। मौत से पहले ज़रा सा जीना चाहता हूं , सभी का हिसाब चुकता करने के बाद मुमकिन है इतनी फुर्सत मिले ज़िंदगी से। 

 मेरा खत पढ़ कर उनको सुनाना जो नहीं पढ़ते हैं , जिनको सुनाई नहीं देता उनको समझा सको तो समझा देना। जिनको मतलब समझ नहीं आता उनको उनके हाल पर छोड़ देना। तुम समझ लो तो शायद तुम्हारे नाम लिखी चिट्ठी है नाम नहीं जनता पता नहीं मालूम मुझे फिर भी पहुंचेगी किसी दिन किसी तरह से। जवाब लिख सको तो लिखना मुझे भेजना भी कितने अरसे से इंतज़ार है। 

तुम्हारा दोस्त 

लोक सेतिया। 


 



कोई टिप्पणी नहीं: