जून 01, 2019

जीवन का पिंजरा और चौराहा ( लीक से हटकर ) डॉ लोक सेतिया

  जीवन का पिंजरा और चौराहा ( लीक से हटकर ) डॉ लोक सेतिया 


     आज कोई कहानी नहीं कविता नहीं ग़ज़ल नहीं कोई निरर्थक बहस नहीं कोई राजनीति की धर्म की बात नहीं और दुनिया की नहीं अपनी ज़िंदगी को सच्ची बात खुलकर । मैंने बहुत थोड़ा पढ़ा है मगर जितना भी पढ़ता रहता हूं उस को लेकर चिंतन करना समझना आदत है । किताबों से बेहद लगाव है और किताबों से संगीत से फिल्मों से पुरानी युग की से भी मुझे काफी सबक समझने सीखने को मिले हैं । कल इक अख़बार में बोध कथा और इक किताब में इक ग़ज़ल पढ़कर ये फ़लसफ़े की बात लिखना ज़रूरी हो गया है ।

       सोचता हूं तो एक साथ दोनों बातें सच लगती हैं । जैसे कोल्हू का बैल अपनी परिधि में घूमता रहता है आंखों पर दो खोपे बंधे रहते हैं और बैल समझता है चलता जा रहा है जबकि रहता वहीं का वहीं है अपनी भी दशा उसी जैसी है । जीवन की राह में कितने चौराहे मिलते रहते हैं चलते चलते , इक राह लगती है आसान होगी छोटी होगी , इक और लगती है बनी हुई पगडंडी है पहले भी तमाम लोग उसी से गुज़रते रहे हैं कोई परेशानी  नहीं होगी ,  इक उबड़ खाबड़ लगती है जिस पर कांटे भरी झाड़ियां हैं रेगिस्तान है पत्थरीली राह है कोई छांव नहीं कठिन लगती है और इक और सीधी चली जाती है । हम समझते नहीं हमारी मंज़िल क्या है और कौन सी राह उस को जाती है , हम अपनी मर्ज़ी की राह चलते रहते हैं और कभी मंज़िल नहीं मिलती है । शायद आज से ही सही दिशाहीनता को छोड़ अपनी मंज़िल की तरफ चलने का निर्णय लेना होगा ।

  पिंजरे की बात इक बोध कथा से फिर याद आई । संक्षेप में सुनाता हूं । इक आदमी पहाड़ों पर सैर करने को गया। उसने देखा चरों तरफ ऊंचे ऊंचे पहाड़ हरे-भरे पेड़ और ठंडी ठंडा हवाएं खूबसूरत वादियां हसीन मंज़र का आनंद ले रहा था । अचानक उसको कोई आवाज़ पहाड़ों से टकराती हुई उसके कानों को सुनाई दी । जैसे कोई पुकार रहा हो , आज़ादी - आज़ादी । वह आदमी हैरान होकर ढूंढने लगा कहां से ये चीख आ रही है। काफी तलाश करने के बाद उसे इक तोता मिला जो इक पिंजरे में बंद था जो चिल्ला रहा था आज़ादी - आज़ादी । उस आदमी ने पिंजरे का दरवाज़ा खोल दिया । पर तोता डरकर अंदर की तरफ भाग गया । आदमी बहुत देर तक तोते को पुचकारता रहा पर तोता पिंजरे से बाहर नहीं निकला और अंदर से ही राग अलापता रहा , आज़ादी - आज़ादी । काफी कोशिश के बाद आदमी ने हाथ डालकर तोते को आराम से पकड़ कर बाहर निकाला और खुले गगन में छोड़ दिया । अगली सुबह फिर से उस आदमी को वही आवाज़ सुनाई दी मगर जब जाकर देखा तो हैरान हुआ दरवाज़ा खुला है फिर भी तोता अंदर बैठा चिल्ला रहा है आज़ादी - आज़ादी । सोच समझ कर उस आदमी ने तोते को दोबारा बाहर खुले आसमान में उड़ाया और साथ ही उस पिंजरे को उठाकर गहरी खाई में फेंक दिया ताकि तोता अपनी आदत अनुसार फिर लौट कर पिंजरे में नहीं जा सके । हम लोग भी जीवन में सभी जगह उसी तरह से किसी पिंजरे में रहने के अभ्यस्त हो चुके हैं । पिंजरा छोड़ेंगे तभी पता चलेगा कि दुनिया कितनी हसीन है ।

       कुछ शेर बलबीर राठी जी की ग़ज़ल से चौराहे को लेकर सुनने से पहले ज़रूरी बात खरी भी कड़वी भी । सभी लोग अपने को जानकर समझते हैं अच्छी अच्छी बातें कहते हैं समझाते हैं । सोशल मीडिया पर और क्या होता है संदेश पढ़कर लगता है कितने आदर्शवादी लोग हैं भलाई की बातें धर्म की उपदेश जैसी सुंदर सुंदर तस्वीरें भी मगर कितने हैं जो उन को पहले खुद आचरण में अपनाते भी हैं । लिखने वाले साहित्य की दुनिया की खबर की आईने दिखाने की बात करने वाले टीवी अख़बार वाले भली भली महानता की बातें कहते हैं खूब ज़ोर शोर से लेकिन खुद इनकी बात मत पूछना नसीहत करते हैं अमल में लाते नहीं है । जिसे देखो खुद को जानकर समझदार ही नहीं शरीफ ईमानदार होने का दिखावा करते हैं मगर जब ज़रूरत हो कोई सीमा नहीं कोई बंधन नहीं उचित अनुचित का कोई मापदंड नहीं । चेहरा कोई है मुखौटा बदलते रहते हैं शराफत वाला सुविधानुसार । अब कुछ शेर पेश हैं शायर बलबीर राठी जी की ग़ज़ल से ।

मेरे पीछे सूनी राहें और मेरे आगे चौराहा , 

मैं ही मंज़िल का दीवाना मुझको ही रोके चौराहा । 

ऐसे मुसाफिर भी थे जिनकी अक्सर यूं भी उम्रें गुज़रीं , 

जिस भी सिम्त सफर को निकले उनको मिला आगे चौराहा । 

चौराहों पर आकर सारी राहें गड्ड मड्ड हो जाती हैं ,

जो अपना रस्ता पहचाने उसका क्या कर लेगा चौराहा । 

जिन दीवानों के कदमों में मंज़िल अपनी राह बिछा दे ,

राठी ऐसे दीवानों को खुद रस्ता दे दे चौराहा । 

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